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तुलसीदासजी पहले कौन कौन से देवताओं को प्रणाम करते हैं?

सरस्वतीजी और गणेशजीकी को प्रणाम क्यों करें?

श्लोक वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥

अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और
मंगलोंकी करनेवाली सरस्वतीजी और
गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

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भगवान् शंकर और माँ पार्वती को प्रणाम क्यों करें?

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥

श्रद्धा और विश्वासके स्वरूप श्रीपार्वतीजी और
श्रीशङ्करजीकी मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरणमें स्थित
ईश्वरको नहीं देख सकते॥2॥

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शंकररूपी गुरु की महिमा कैसी है?

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

ज्ञानमय, नित्य, शङ्कररूपी गुरुकी मैं वन्दना करता हूँ,
जिनके आश्रित होनेसे ही
टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

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विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कौन है?

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ ॥4॥

श्रीसीतारामजीके गुणसमूहरूपी पवित्र वनमें विहार करनेवाले,
विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर श्रीवाल्मीकिजी और
कपीश्वर श्रीहनुमान्‌जीकी मैं वन्दना करता हूँ॥4॥

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श्रीसीताजीको प्रणाम क्यों करें?

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥

उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली,
क्लेशोंकी हरनेवाली
तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली
श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा
श्रीसीताजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥

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भगवान् की माया कैसी है और उससे कैसे पार हो सकते है?

यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥

जिनकी मायाके वशीभूत
सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं,

जिनकी सत्तासे
रस्सीमें सर्पके भ्रमकी भाँति
यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और

जिनके केवल चरण ही
भवसागरसे तरनेकी इच्छावालोंके लिये एकमात्र नौका हैं,

उन समस्त कारणोंसे पर,
सब कारणोंके कारण और सबसे श्रेष्ठ,
राम कहानेवाले भगवान् हरिकी मैं वन्दना करता हूँ॥6॥

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तुलसीदासजी ने रामायण कैसे लिखी?

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा- भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥7॥

अनेक पुराण, वेद और तन्त्र शास्त्रसे सम्मत
तथा जो रामायणमें वर्णित है और
कुछ अन्यत्रसे भी उपलब्ध

श्रीरघुनाथजीकी कथाको
तुलसीदास अपने अन्तःकरणके सुखके लिये
अत्यन्त मनोहर भाषारचनामें विस्तृत करता है॥7॥

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भगवान् गणेशजी को वंदन क्यों करें?

सोरठा – जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥

जिन्हें स्मरण करनेसे सब कार्य सिद्ध होते हैं,
जो गणोंके स्वामी और सुन्दर हाथीके मुखवाले हैं,
वे ही बुद्धिके राशि और शुभ गुणोंके धाम
श्रीगणेशजी मुझपर कृपा करें॥1॥

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भगवान् की कृपा से क्या क्या हो सकता है?

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥2॥

जिनकी कृपासे गूँगा बहुत सुन्दर बोलनेवाला हो जाता है और
लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़पर चढ़ जाता है,

वे कलियुगके सब पापोंको जला डालनेवाले दयालु (भगवान्)
मुझपर द्रवित हों (दया करें),॥2॥

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भगवान् नारायण का स्वरुप कैसा है?

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥

जो नील कमलके समान श्यामवर्ण हैं,
पूर्ण खिले हुए लाल कमलके समान जिनके नेत्र हैं और
जो सदा क्षीरसागरमें शयन करते हैं,
वे भगवान् नारायण मेरे हृदयमें निवास करें॥3॥

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भगवान् शंकर का स्वरुप कैसा है?

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥

जिनका कुन्दके पुष्प और चन्द्रमाके समान (गौर) शरीर है,
जो पार्वतीजीके प्रियतम और दयाके धाम हैं और
जिनका दीनोंपर स्नेह है,
वे कामदेवका मर्दन करनेवाले
शङ्करजी मुझपर कृपा करें॥4॥

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गुरु के चरणों को वंदन क्यों करें?

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

मैं उन गुरु महाराजके चरणकमलकी वन्दना करता हूँ,
जो कृपाके समुद्र और नररूपमें श्रीहरि ही हैं और
जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये
सूर्य-किरणोंके समूह हैं॥5॥

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गुरु के चरणरज का क्या महत्व है?

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥

मैं गुरु महाराजके चरणकमलोंकी रजकी वन्दना करता हूँ,
जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुरागरूपी रससे पूर्ण है।

वह अमर मूल (सञ्जीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है,
जो सम्पूर्ण भवरोगोंके परिवारको नाश करनेवाला है॥1॥

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श्रीगुरु महाराजके चरण वंदन से जीवन में क्या बदलाव आते है?

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी।
किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥

वह रज
सुकृती (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजीके शरीरपर सुशोभित
निर्मल विभूति है और
सुन्दर कल्याण और आनन्दकी जननी है,

भक्तके मनरूपी सुन्दर दर्पणके मैलको दूर करनेवाली और
तिलक करनेसे गुणोंके समूहको वशमें करनेवाली है॥2॥

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गुरु के चरण वंदन से क्या लाभ मिलता है?

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥

श्रीगुरु महाराजके चरण-नखोंकी ज्योति
मणियोंके प्रकाशके समान है,
जिसके स्मरण करते ही
हृदयमें दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है।

वह प्रकाश
अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है;
वह जिसके हृदयमें आ जाता है,
उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥

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गुरु के चिंतन से जीवन में क्या परिवर्तन आते है?

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥

उसके हृदयमें आते ही
हृदयके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और
संसाररूपी रात्रिके दोष-दुःख मिट जाते हैं
एवं श्रीरामचरित्ररूपी मणि और माणिक्य,
गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खानमें है,
सब दिखायी पड़ने लगते हैं – ॥4॥

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दोहा – 1

दोहा – जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

जैसे सिद्धाञ्जनको नेत्रोंमें लगाकर साधक,
सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वीके अंदर
कौतुकसे ही बहुत-सी खानें देखते हैं॥1॥

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तुलसीदासजी गुरु के चरण रज से कैसे लाभ प्राप्त करते है?

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिंकरि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥

श्रीगुरु महाराजके चरणोंकी रज
कोमल और सुन्दर नयनामृत-अञ्जन है,
जो नेत्रोंके दोषोंका नाश करनेवाला है।

उस अञ्जनसे
विवेकरूपी नेत्रोंको निर्मल करके
मैं संसाररूपी बन्धनसे छुड़ानेवाले
श्रीरामचरित्रका वर्णन करता हूँ॥1॥

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देवता और संतों के चरणोंकी वन्दना क्यों करना चाहिए?

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥

पहले पृथ्वीके देवता ब्राह्मणोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ,
जो अज्ञानसे उत्पन्न सब संदेहोंको हरनेवाले हैं।

फिर सब गुणोंकी खान संत-समाजको
प्रेमसहित सुन्दर वाणीसे प्रणाम करता हूँ॥2॥

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संतों का चरित्र कैसा होता है?

साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

संतोंका चरित्र
कपासके चरित्र (जीवन)-के समान शुभ है,
जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है।

(कपासकी डोडी नीरस होती है,
संत-चरित्रमें भी विषयासक्ति नहीं है,
इससे वह भी नीरस है;

कपास उज्ज्वल होता है,
संतका हृदय भी
अज्ञान और पापरूपी अन्धकारसे रहित होता है,
इसलिये वह विशद है, और

कपासमें गुण (तन्तु) होते हैं,
इसी प्रकार संतका चरित्र भी
सद्‌गुणोंका भण्डार होता है,
इसलिये वह गुणमय है।)

जैसे कपासका धागा सूईके किये हुए छेदको
अपना तन देकर ढक देता है,
अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने,
काते जाने और बुने जानेका कष्ट सहकर भी
वस्त्रके रूपमें परिणत होकर
दूसरोंके गोपनीय स्थानोंको ढकता है

उसी प्रकार,
संत स्वयं दुःख सहकर
दूसरोंके छिद्रों (दोषों)-को ढकता है,
जिसके कारण उसने जगत्‌में वन्दनीय यश प्राप्त किया है॥3॥

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मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

संतोंका समाज आनन्द और कल्याणमय है,
जो जगत्‌में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है।
जहाँ (उस संतसमाजरूपी प्रयागराजमें)
रामभक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा है और
ब्रह्मविचारका प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥

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बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी।
सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मोंकी कथा कलियुगके पापोंको हरनेवाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शङ्करजीकी कथाएँ त्रिवेणीरूपसे सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणोंकी देनेवाली हैं॥5॥

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बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा॥

उस संतसमाजरूपी प्रयागमें, अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है वह अक्षयवट है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराजका समाज (परिकर) है।

वह (संतसमाजरूपी प्रयागराज) सब देशोंमें, सब समय सभीको सहजहीमें प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करनेसे क्लेशोंको नष्ट करनेवाला है॥6॥

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अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥

वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देनेवाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥

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दोहा – सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

जो मनुष्य इस संत-समाजरूपी तीर्थराजका प्रभाव प्रसन्न मनसे सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीरके रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों फल पा जाते हैं॥2॥

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मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

इस तीर्थराजमें स्नानका फल तत्काल ऐसा देखनेमें आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगकी महिमा छिपी नहीं है॥1॥

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बालमीक नारद घटजोनी।
निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजीने अपने-अपने मुखोंसे अपनी होनी (जीवनका वृत्तान्त) कही है। जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड़-चेतन जितने जीव इस जगत्‌में हैं,॥2॥

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मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥

उनमेंसे जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्‌गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदोंमें और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

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बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥ सत्संगके बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजीकी कृपाके बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है। सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल हैं॥4॥

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सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई॥

बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥ दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है)। किन्तु दैवयोगसे यदि कभी सज्जन कुसंगतिमें पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँपकी मणिके समान अपने गुणोंका ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँपका संसर्ग पाकर भी मणि उसके विषको ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाशको नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टोंके संगमें रहकर भी दूसरोंको प्रकाश ही देते हैं, दुष्टोंका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता)॥5॥

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बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी॥

सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितोंकी वाणी भी संत-महिमाका वर्णन करनेमें सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवालेसे मणियोंके गुणसमूह नहीं कहे जा सकते॥6॥

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दोहा – बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3(क)॥

मैं संतोंको प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्तमें समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अञ्जलिमें रखे हुए सुन्दर फूल [जिस हाथने फूलोंको तोड़ा और जिसने उनको रखा उन] दोनों ही हाथोंको समानरूपसे सुगन्धित करते हैं [वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनोंका ही समानरूपसे कल्याण करते हैं]॥3(क)॥ संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥3(ख)॥ संत सरलहृदय और जगत्‌के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेहको जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनयको सुनकर कृपा करके श्रीरामजीके चरणोंमें मुझे प्रीति दें॥3(ख)॥

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बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥ अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरोंके हितकी हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरोंके उजड़नेमें हर्ष और बसनेमें विषाद होता है॥1॥

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हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥ जो हरि और हरके यशरूपी पूर्णिमाके चन्द्रमाके लिये राहुके समान हैं (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु या शङ्करके यशका वर्णन होता है, उसीमें वे बाधा देते हैं) और दूसरोंकी बुराई करनेमें सहस्रबाहुके समान वीर हैं। जो दूसरोंके दोषोंको हजार आँखोंसे देखते हैं और दूसरोंके हितरूपी घीके लिये जिनका मन मक्खीके समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घीमें गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरोंके बने-बनाये कामको अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥2॥

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तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥

उदय केत सम हित सब ही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥ जो तेज (दूसरोंको जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोधमें यमराजके समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धनमें कुबेरके समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभीके हितका नाश करनेके लिये केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुम्भकर्णकी तरह सोते रहनेमें ही भलाई है॥3॥

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पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥ जैसे ओले खेतीका नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरोंका काम बिगाड़नेके लिये अपना शरीरतक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [हजार मुखवाले] शेषजीके समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषोंका हजार मुखोंसे बड़े रोषके साथ वर्णन करते हैं॥4॥

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पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥ पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवान्‌का यश सुननेके लिये दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानोंसे दूसरोंके पापोंको सुनते हैं। फिर इन्द्रके समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है [इन्द्रके लिये भी सुरानीक अर्थात् देवताओंकी सेना हितकारी है]॥5॥

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बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा॥

जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखोंसे दूसरोंके दोषोंको देखते हैं॥6॥

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दोहा – उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

दुष्टोंकी यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसीका भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥

Sunderkand Index


सुन्दरकाण्ड के प्रसंग की लिस्ट


हनुमानजी का लंका की ओर प्रस्थान

  • हनुमानजी वानरों को समझाते है
  • श्रीराम का कार्य करने पर मन को ख़ुशी मिलती है
  • हनुमानजी ने एक पहाड़ पर भगवान् श्रीराम का स्मरण किया
  • हनुमानजी, श्रीराम के बाण जैसे तेज़ गति से, लंका की ओर जाते है

मैनाक पर्वत का प्रसंग

  • समुद्र ने मैनाक पर्वत को हनुमानजी की सेवा के लिए भेजा
  • मैनाक पर्वत हनुमानजी से विश्राम करने के लिए कहता है
  • प्रभु राम का कार्य पूरा किये बिना विश्राम नही

सुरसा का प्रसंग

  • देवताओं ने नागमाता सुरसा को भेजा
  • सुरसा ने हनुमानजी का रास्ता रोका
  • हनुमानजी ने सुरसा को समझाया कि वह उनको नहीं खा सकती
  • सुरसा ने कई योजन मुंह फैलाया, तो हनुमानजी ने भी शरीर फैलाया
  • सुरसा ने मुंह सौ योजन फैलाया, तो हनुमानजी ने छोटा सा रूप धारण किया
  • सुरसा को हनुमानजी की शक्ति का पता चला
  • सुरसा, हनुमानजी को प्रणाम करके चली जाती है

मायावी राक्षस का प्रसंग

  • समुद्र में छाया पकड़ने वाला राक्षस
  • हनुमानजी ने मायावी राक्षस के छल को पहचाना
  • हनुमानजी समुद्र के पार पहुंचे
  • हनुमानजी लंका पहुंचे
  • भगवान् शंकर पार्वतीजी को श्रीराम की महिमा बताते है

लंका नगरी का वर्णन

  • लंका नगरी और उसके सुवर्ण कोट का वर्णन
  • लंका नगरी और उसके महाबली राक्षसों का वर्णन
  • लंका के बाग-बगीचों का वर्णन
  • लंका के राक्षसों का बुरा आचरण
  • हनुमानजी छोटा सा रूप धरकर लंका में प्रवेश करने का सोचते है

लंकिनी का प्रसंग और ब्रह्माजी का वरदान

  • हनुमानजी राम नामका स्मरण करते हुए लंका में प्रवेश करते है
  • हनुमानजी लंकिनी को घूँसा मारते है
  • लंकिनी हनुमानजी को प्रणाम करती है
  • ब्रह्माजी के वरदान में राक्षसों के संहार का संकेत
  • थोड़े समय का सत्संग – स्वर्ग के सुख से बढ़कर है
  • प्रभु श्रीराम को निरंतर स्मरण करने के फायदे

हनुमानजी का लंका में प्रवेश

  • हनुमानजी, छोटा सा रूप धरकर, लंका में प्रवेश करते है
  • हनुमानजी, रावण के महल तक पहुंचे
  • हनुमानजी, सीताजी की खोज करते करते, विभीषण के महल तक पहुंचे
  • विभीषण के महल का वर्णन – श्रीराम के चिन्ह और तुलसी के पौधे

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

  • राक्षसों की नगरी में, सत-पुरुष को देखकर, हनुमानजी को आश्चर्य हुआ
  • हनुमानजी, विभीषण को, राम नाम का जप करते देखते है
  • हनुमानजी ब्राह्मण का रूप धारण करते है
  • विभीषण हनुमानजी से उनके बारे में पूछते है
  • हनुमानजी विभीषण को श्री राम कथा सुनाते है
  • विभीषण हनुमानजी को अपनी स्थिति बताते है
  • बिना भगवान् की कृपा के सत्पुरुषों का संग नहीं मिलता

हनुमानजी द्वारा प्रभु श्री राम के गुणों का वर्णन

  • प्रभु श्री राम भक्तों पर सदा दया करते है
  • हनुमानजी कहते है, श्री राम ने वानरों पर भी कृपा की है
  • भगवान् राम के गुणों का भक्तिपूर्वक स्मरण
  • भगवान् को भूलने पर, इंसान के जीवन में दुःख का आना
  • विभीषण हनुमानजी को माता सीता के बारे में बताते है

अशोकवन का प्रसंग

  • हनुमानजी अशोकवन जाते है
  • सीताजी का राम के गुणों का स्मरण करना
  • माता सीता का मन, श्री राम के चरणों में

अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

  • रावण का अशोकवन में आना
  • रावण सीताजी को भय दिखाता है
  • सीताजी तिनके का परदा बना लेती है
  • सीताजी रावण को श्रीराम के बाण की याद दिलाती है
  • रावण को क्रोध आता है
  • रावण सीताजी को कृपाण से भय दिखाता है
  • माता सीता के कठोर वचन
  • माता सीता तलवार से प्रार्थना करती है
  • मंदोदरी रावण को समझाती है
  • रावण राक्षसियों को आदेश देता है
  • राक्षसियाँ सीताजी को डराने लगती है

त्रिजटा का स्वप्न

  • रामचन्द्रजीके चरनोंकी भक्त, निपुण और विवेकवती त्रिजटा
  • त्रिजटा अन्य राक्षसियों को स्वप्न के बारे में बताती है
  • स्वप्न में रामचन्द्रजी की लंका पर विजय
  • स्वप्न सुनकर राक्षसियाँ डर जाती है
  • सीताजी मन में सोचने लगती है

सीताजी और त्रिजटा का संवाद

  • माता सीता, त्रिजटा को, श्रीराम से विरहके दुःख के बारे में बताती है
  • सीताजी का दुःख
  • त्रिजटा सीताजी को सांत्वना देती है

सीताजी को प्रभु राम से विरह का दुःख

  • आसमान के तारे
  • चन्द्रमा और अशोक वृक्ष
  • सीताजी को दुखी देखकर हनुमानजी को दुःख होता है

प्रभु श्री राम की मुद्रिका (अंगूठी)

  • हनुमानजी श्री राम की अंगूठी सीताजी के सामने डाल देते है
  • माता सीता अंगूठी को देखती है
  • सीताजी अंगूठी कहाँ से आयी यह सोचती है
  • हनुमानजी पेड़ पर से ही श्री राम की कथा सुनाते है

माता सीता और हनुमानजी का संवाद

  • सीताजी हनुमान को सामने आने के लिए कहती है
  • हनुमानजी, माता सीता को अपने बारें में और अंगूठी के बारें में बताते है
  • सीताजी हनुमानजी से पूछती है की श्री राम उनसे कैसे मिले
  • सीताजी को विश्वास हो जाता है की हनुमानजी श्री राम के भक्त है
  • माता सीता हनुमानजी को धन्यवाद देती है
  • सीताजी प्रभु श्री राम के बारें में पूछती है
  • भगवान राम की कृपा से भक्त सदा सुखी
  • सीताजी का दुःख
  • हनुमानजी श्री राम के बारें में बताते है
  • बजरंगबली श्री राम का संदेशा सुनाते है

प्रभु श्री रामचन्द्रजी का संदेशा

  • श्री राम का माता सीता के लिए संदेशा
  • प्रभु राम का सीताजी के लिए संदेशा
  • श्री रामचन्द्रजी अपनी स्थिति बताते है
  • सीताजी संदेशा सुनकर भगवान् राम को स्मरण करती है

हनुमानजी और माता सीता का संवाद

  • हनुमानजी माता सीता को धैर्य धरने के लिए कहते है
  • भगवान् राम के बाणों से राक्षसों का संहार हो जायेगा
  • अंधकार जैसे राक्षस और सूर्य जैसे श्री राम के बाण
  • हनुमानजी भगवान् राम की आज्ञा के बारें में कहते है

हनुमानजी का विशाल स्वरुप

  • हनुमानजी का छोटा रूप देखकर माता सीता को वानर सेना पर शंका
  • हनुमानजी सीताजी को अपना विशाल स्वरुप दिखाते है
  • बजरंगबली का विशाल रूप देखकर सीताजी को वानर सेना पर विश्वास
  • प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव
  • माता सीता का हनुमानजी को आशीर्वाद
  • हनुमानजी – अजर, अमर और गुणों के भण्डार
  • हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है

अशोकवन के फल और राक्षसों का संहार

  • हनुमानजी अशोकवन में लगे फलों को देखते है
  • हनुमानजी सीताजी से आज्ञा मांगते है
  • प्रभु श्री राम के चरणों में मन रखकर कार्य करें
  • हनुमानजी फल खाते है और कुछ राक्षसों का संहार करते है
  • राक्षस रावण को हनुमानजी के बारे में बताते है
  • रावण और राक्षसों को भेजता है
  • रावण अक्षय कुमार को भेजता है
  • हनुमानजी अक्षय कुमार का संहार करते है

मेघनाद और ब्रह्मास्त्र का प्रसंग

  • रावण मेघनाद को भेजता है
  • मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाने के लिए आता है
  • हनुमानजी ने मेघनाद के रथ को नष्ट किया
  • हनुमानजी ने मेघनाद को घूंसा मारा
  • मेघनाद हनुमानजी से जीत नहीं पाया
  • मेघनादने ब्रम्हास्त्र चलाया
  • मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले जाता है
  • हनुमानजी ने अपने आप को क्यों ब्रह्मास्त्र में बँधा लिया?
  • हनुमानजी रावण की सभा देखते है
  • रावण की सभा का वर्णन
  • रावण हनुमानजी की ओर देखकर हँसता है

हनुमानजी और रावण का संवाद

  • रावण हनुमानजीसे उनके बारे में पूछता है?
  • हनुमानजी श्री राम के बारे में बताते है
  • श्री राम का बल और सामर्थ्य
  • भगवान राम के अवतार का कारण
  • रावण का साम्राज्य, भगवान् राम के बल के थोड़े से अंश के बराबर
  • रावण का सहस्रबाहु और बालि से युद्ध
  • हनुमानजी ने अशोकवन क्यों उजाड़ा?
  • हनुमानजी ने राक्षसों को क्यों मारा?

हनुमानजी रावण को समझाते है

  • ईश्वर से कभी बैर नहीं करना चाहिए
  • हनुमानजी रावण को भगवान् की शरण में जाने के लिए कहते है
  • श्रीराम को मन में धारण करके कार्य करें
  • राम नाम बिना वाणी कैसी लगती है
  • राम नाम भूलने का क्या परिणाम होता है
  • भगवान् राम से भूलने वाले की क्या गति होती है
  • अभिमान और अहंकार त्याग कर भगवान् की शरण में
  • हनुमानजी के सच्चे वचन अहंकारी रावण की समझ में नहीं आते है
  • रावण हनुमानजी को डराता है
  • रावण हनुमानजी को मारने का हुक्म देता है
  • विभीषण रावणको दुसरा दंड देने के लिए समझाता है
  • रावण हनुमानजी को दुसरा दंड देने का सोचता है
  • राक्षस हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का सुझाव देते है

हनुमानजी की पूँछ में राक्षसों द्वारा आग लगाने का प्रसंग

  • रावण हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने का हुक्म देता है
  • राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने की तैयारी करते है
  • हनुमानजी पूँछ लम्बी बढ़ा देते है
  • राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगा देते है
  • हनुमानजी छोटा रूप धरकर बंधन से छूट जाते है
  • हनुमानजी का विशाल रूप और गर्जना

लंका दहन का प्रसंग

  • हनुमानजी एक महल से दूसरे महल पर जाते है
  • राक्षस लोग समझ जाते है की हनुमानजी देवता का रूप है
  • लंका नगरी जल जाती है
  • सिर्फ विभीषण का घर क्यों नहीं जलता है?
  • हनुमानजी फिर से माता सीता के पास आते है

माता सीता का प्रभु राम के लिए संदेशा

  • सीताजी हनुमानजीको पहचान का चिन्ह देती है
  • सीताजी श्री राम के लिए संदेशा देती है
  • माता सीता का श्रीराम को संदेशा
  • सीताजी को हनुमानजी के जाने का दुःख
  • हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है

हनुमानजी का लंका से वापस आना

  • हनुमानजी लंका से वापिस आते है
  • हनुमानजी का तेज देखकर वानर हर्षित होते है
  • हनुमानजी के साथ सभी वानर श्री राम के पास जाते है

सुग्रीव का प्रसंग

  • वानरों का मधुवन के फल खाना
  • वन के रखवाले सुग्रीव से शिकायत करते है
  • सुग्रीव मन ही मन खुश होते है
  • सभी वानर सुग्रीव के पास आते है
  • वानर सुग्रीव को हनुमानजी के कार्य के बारे में बताते है
  • वानरसेना प्रभु राम के पास जाती है
  • सभी वानर भगवान् राम को प्रणाम करते है

जाम्बवान और प्रभु श्री राम का संवाद

  • ईश्वर की कृपा से भक्त का निरंतर कुशल
  • भगवान् की कृपा का फल
  • जाम्बवान श्री राम को हनुमानजी के कार्य के बारें में बताते है

हनुमानजी और प्रभु श्री राम का संवाद

  • भगवान् राम हनुमानजी से माता सीता के बारें में पूछते है
  • हनुमानजी माता सीता के बारें में बताते है
  • भगवान् का ध्यान किस प्रकार करें
  • हनुमानजी प्रभु राम को सीताजी की चूड़ामणि देते है

सीताजी का प्रभु राम के लिए संदेशा

  • हनुमानजी श्री राम को सीताजी का संदेशा सुनाते है
  • माता सीता का संदेशा
  • भगवानके दर्शन की प्यास
  • सीताजी की लंका में स्थिति
  • सीताजी को प्रभु से विरह का दुःख
  • प्रभुकी शरण में आये हुए को दुःख नहीं
  • भगवान को भूलने पर मनुष्य को दुःख

रामभक्त वीर हनुमान की जय

  • प्रभु राम बजरंगबली की प्रशंसा करते है
  • रामभक्त हनुमान के प्रभु राम ऋणी
  • हे प्रभु राम, हमारी रक्षा करो
  • शिव के अंशावतार हनुमानजी की श्री राम भक्ति
  • श्री राम ने हनुमान जी को गले से लगाया
  • रामचन्द्रजी लंका दहन के बारें में पूछते है
  • हनुमानजी लंका दहन के बारें में बताते है
  • सभी कार्य ईश्वर की कृपा से
  • भगवान् की कृपा से सब कुछ संभव

श्री राम और हनुमानजी का संवाद

श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना

  • छंद – Sunderkand
  • छंद – Sunderkand

मंदोदरी और रावण का संवाद


अहंकारी रावण और उसके अज्ञानी मंत्री

विभीषण का रावण को समझाना

माल्यावान का रावण को समझाना

विभीषण का अपमान

विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

विभीषण वानरसेना के पास पहुंचते है

भगवान रामकी शरण में कौन जा सकता है

विभीषण को भगवान रामके दर्शन

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

भगवान् श्री राम की महिमा

प्रभु श्री रामचंद्रजी की महिमा


विभीषण की भगवान् रामसे प्रार्थना

  • समुद्र पार करने के लिए विचार
  • रावणदूत शुक का आना
  • लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना
  • दूत का रावण को समझाना
  • रावणदूत शुक का रावण को समझाना
  • समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध
  • समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध
  • समुद्र की श्री राम से विनती
  • मंगलाचरण – सुंदरकाण्ड

सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ के लिए

इस पोस्ट में सुंदरकांड के दोहे और चौपाई अर्थ सहित दिए गए है।

लेकिन यदि आपको सिर्फ सुंदरकांड पाठ करना है, तो उसके लिए अलग पेज दिया गया है, जिसमें –

सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ के लिए सभी दोहे और चौपाइयां सिर्फ एक पेज में दी गयी है।

उस सुंदरकांड पाठ के पेज को देखने के लिए, निचे दी गयी लिंक को क्लिक करें –

सपूर्ण सुंदरकांड पाठ – एक पेज में

सुंदरकांड – सरल अर्थ सहित

सुंदरकाण्ड रामायण और रामचरितमानस का एक सोपान अर्थात भाग है और इस सोपान में, हनुमानजी की शक्ति और सफलता को याद किया जाता है।

सुन्दरकांड में 526 चौपाइयाँ, 60 दोहे, 6 छंद और 3 श्लोक है। सुन्दरकांड में 5 से 7 चौपाइयों के बाद 1 दोहा आता है।

महाकाव्य रामायण में सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामायण कथा श्रीराम के गुणों और उनके पुरुषार्थ को दर्शाती है। किन्तु सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है, जो सिर्फ हनुमानजी की शक्ति और विजय का कांड है।


Sunderkand in Hindi


Sunderkand with Meaning in Hindi

सुन्दरकाण्ड – हिन्दी में – अर्थ सहित

सुन्दरकांड में 60 दोहे, 526 चौपाइयाँ,
6 छंद और 3 श्लोक है।

सुन्दरकांड में 5 से 7 चौपाइयों के बाद 1 दोहा आता है।

सुंदरकांड प्रसंग की लिस्ट (Sunderkand – Index)


इस पेज में सम्पूर्ण सुंदरकांड सरल अर्थ सहित दिया गया है।

सुंदरकाण्ड पाठ के लिए सुंदरकांड के 60 दोहे और 526 चौपाइयाँ, एक अलग पेज में दी गयी है। उस पेज को पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें –

सम्पूर्ण सुंदरकांड पाठ के 60 दोहे

Sunderkand in Hindi with Meaning
Sunderkand in Hindi with Meaning

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इस लेख में सुंदरकांड की
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बोलो बजरंगबली की जय
जय बोलो बजरंगबली की जय


Ramayan Sundarkand in Hindi

हनुमानजी वानरों को समझाते है

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

सुहाए – सूंदर, अच्छे लगने वाले, शोभित | परिखेहु – राह देखना, प्रतीक्षा करना

जाम्बवान के (सुन्दर, सुहावने) वचन सुनकर
हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लगे॥

और हनुमानजी ने कहा की – हे भाइयो!
आप लोग कन्द, मूल व फल खाकर समय बिताना, और
तब तक मेरी राह देखना,
जब तक कि मैं सीताजी का पता लगाकर लौट ना आऊँ,
(जब तक मै सीताजी को देखकर लौट न आऊँ)॥1॥

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श्रीराम का कार्य करने पर मन को ख़ुशी मिलती है

जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

हरष – ख़ुशी, हर्ष | बिसेषी – अधिक, विशेष | माथा – मस्तक | हिय – ह्रदय

जब मै सीताजीको देखकर लौट आऊंगा,
तब कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा॥

यह कहकर और सबको नमस्कार करके,
रामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धरकर,
प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले॥2॥

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हनुमानजी ने एक पहाड़ पर भगवान् श्रीराम का स्मरण किया

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

सिन्धु – समुद्र | भूधर- पृथ्वी को धारण करने वाला अर्थात पर्वत | कौतुक – खेल से, आसानी से | सँभारी – याद करके | तरकेउ – गर्जना की | बलभारी – भारीबलवाले या  बल भारी – भारी बल से, बड़े वेग से

समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पहाड़ था।
हनुमान् जी खेल से ही (अनायास ही, कौतुकी से) कूदकर
उसके ऊपर चढ़ गए॥

फिर वारंवार रामचन्द्रजी का स्मरण करके,
बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की॥

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हनुमानजी, श्रीराम के बाण जैसे तेज़ गति से, लंका की ओर जाते है

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

जेहिं – जिस | गिरि – पर्वत | जिमि – जैसे | अमोघ – अचूक | रघुपति कर बाना – श्रीराम के बाण

जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखे थे
(जिस पर से वे उछले),
वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया॥

और जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है,
ऐसे हनुमानजी वहा से लंका की ओर चले॥

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मैनाक पर्वत का प्रसंग

समुद्र ने मैनाक पर्वत को हनुमानजी की सेवा के लिए भेजा

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

जलनिधि – समुद्र | श्रमहारी – थकान को हरने वाला | तैं – तू (कही कही पर “तैं” के स्थान पर “कह” का प्रयोग किया गया है)

समुद्र ने हनुमानजी को श्रीराम का दूत जानकर
मैनाक नाम पर्वत से कहा की –
हे मैनाक, तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो,
इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो,
(अर्थात् अपने ऊपर इन्हे विश्राम दे)॥

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मैनाक पर्वत हनुमानजी से विश्राम करने के लिए कहता है

सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब।
कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै॥

सिन्धुवचन – समुद्रके वचन | कर – हाथ | जोरिकै – जोड़कर

समुद्रके वचन कानो में पड़तेही
मैनाक पर्वत वहांसे तुरंत ऊपर को उठ गया,
जिससे हनुमानजी उसपर बैठकर थोड़ी देर आराम कर सके।

और हनुमानजीके पास आकर,
वारंवार हाथ जोड़कर, उसने हनुमानजीको प्रणाम किया॥

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दोहा – 1

प्रभु राम का कार्य पूरा किये बिना विश्राम नही

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥

तेहि – उसको | परसा – स्पर्श किया, छुआ | कर – हाथ | पुनि – पुनः, फिर | मोहि – मुझको

हनुमानजी ने उसको अपने हाथसे छुआ,
फिर उसको प्रणाम किया, और कहा की –
रामचन्द्रजीका का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहाँ? ॥1॥

श्री राम का कार्य जब तक पूरा न कर लूँ,
तब तक मुझे आराम कहाँ?

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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सुरसा का प्रसंग

देवताओं ने नागमाता सुरसा को भेजा

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

जानैं कहुँ – जानने के लिए | बिसेषा – विशेष, अधिक | अहिन्ह कै – सर्पों की | पठइन्हि – भेजा, प्रस्थापित | बाता – वार्ता

देवताओ ने पवनपुत्र हनुमान् जी को जाते हुए देखा और
उनके बल और बुद्धि के वैभव को जानने के लिए॥

देवताओं ने नाग माता सुरसा को भेजा।
उस नागमाताने आकर हनुमानजी से यह बात कही॥

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सुरसा ने हनुमानजी का रास्ता रोका

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥

सुरन्ह – देवताओं ने | अहारा – आहार, भोजन | फिरि आवउँ – लौट आऊँ | सुधि – शोध, खबर, समाचार

आज तो मुझको देवताओं ने यह अच्छा आहार दिया।
यह बात सुन, हँस कर हनुमानजी बोले॥

मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौट आऊँ और
सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं॥

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हनुमानजी ने सुरसा को समझाया कि वह उनको नहीं खा सकती

तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥

तव – तेरा | पैठिहउँ – प्रवेश कर लूंगा | कवनेहुँ – किसी भी | जतन – यत्न, युक्ति | ग्रससि – निगलना

फिर हे माता! मै आकर आपके मुँह में प्रवेश करूंगा।
अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा।
मै तुझे सत्य कहता हूँ॥

जब सुरसा ने किसी उपायसे उनको जाने नहीं दिया,
तब हनुमानजी ने कहा कि,
तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती॥

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सुरसा ने कई योजन मुंह फैलाया, तो हनुमानजी ने भी शरीर फैलाया

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

सुरसाने अपना मुंह, एक योजनभरमें (चार कोस मे) फैलाया।
हनुमानजी ने अपना शरीर, उससे दूना यानी दो योजन विस्तारवाला किया॥

सुरसा ने अपना मुँह सोलह (16) योजनमें फैलाया।
हनुमानजीने अपना शरीर तुरंत बत्तीस (32) योजन बड़ा किया॥

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सुरसा ने मुंह सौ योजन फैलाया, तो हनुमानजी ने छोटा सा रूप धारण किया

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥

सुरसा ने जैसे-जैसे मुख का विस्तार बढ़ाया, जैसा जैसा मुंह फैलाया,
हनुमानजी ने वैसे ही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥

जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया,
तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया॥

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सुरसा को हनुमानजी की शक्ति का पता चला

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥

छोटा स्वरुप धारण कर हनुमानजी,
सुरसाके मुंहमें घुसकर तुरन्त बाहर निकल आए।
फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया॥

उस वक़्त सुरसा ने हनुमानजी से कहा की –
हे हनुमान! देवताओंने मुझको जिसके लिए भेजा था,
वह तुम्हारे बल और बुद्धि का भेद, मैंने अच्छी तरह पा लिया है॥

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दोहा – 2

सुरसा, हनुमानजी को प्रणाम करके चली जाती है

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥

तुम बल और बुद्धि के भण्डार हो,
सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे।
ऐसे आशीर्वाद देकर, सुरसा तो अपने घर को चली,
और हनुमानजी प्रसन्न होकर, लंकाकी ओर चले ॥2॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मायावी राक्षस का प्रसंग

समुद्र में छाया पकड़ने वाला राक्षस

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥

समुद्र के अन्दर एक राक्षस रहता था।
वह माया करके आकाश मे उड़ते हुए पक्षी और जंतुओको पकड़ लिया करता था॥

जो जीवजन्तु आकाश में उड़कर जाता,
उसकी परछाई जल में देखकर परछाई को जल में पकड़ लेता॥

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हनुमानजी ने मायावी राक्षस के छल को पहचाना

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2

परछाई को जल में पकड़ लेता,
जिससे वह जिव जंतु फिर वहा से सरक नहीं सकता।
इस तरह वह हमेशा, आकाश मे उड़ने वाले जिवजन्तुओ को खाया करता था॥

उसने वही कपट हनुमान् जी से किया।
हनुमान् जी ने उसका वह छल तुरंत पहचान लिया॥

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हनुमानजी समुद्र के पार पहुंचे

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥

धीर बुद्धिवाले पवनपुत्र वीर हनुमानजी
उसे मारकर समुद्र के पार उतर गए॥

वहा जाकर हनुमानजी वन की शोभा देखते है कि
भँवरे मधु (पुष्प रस) के लोभसे गुंजार कर रहे है॥

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हनुमानजी लंका पहुंचे

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥

अनेक प्रकार के वृक्ष, फल और फूलोसे शोभायमान हो रहे है।
पक्षी और हिरणोंका झुंड देखकर तो वे मन मे बहुत ही प्रसन्न हुए॥

वहां सामने हनुमानजी एक बड़ा विशाल पर्वत देखकर,
निर्भय होकर उस पहाड़पर कूदकर चढ़ बैठे॥

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भगवान् शंकर पार्वतीजी को श्रीराम की महिमा बताते है

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

भगवान् शंकर पार्वतीजी से कहते है कि
हे पार्वती! इसमें हनुमान की कुछ भी अधिकता नहीं है।
यह तो केवल रामचन्द्रजीके ही प्रताप का प्रभाव है कि,
जो काल को भी खा जाता है॥

पर्वत पर चढ़कर हनुमानजी ने लंका को देखा,
तो वह ऐसी बड़ी दुर्गम है की,
जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता॥

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लंका नगरी का वर्णन

लंका नगरी और उसके सुवर्ण कोट का वर्णन

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

पहले तो वह बहुत ऊँची है,
फिर उसके चारो ओर समुद्र की खाई।

उसपर भी ससोने के परकोटे (चार दीवारी) का तेज प्रकाश
कि जिससे नेत्र चकाचौंध हो जाए॥

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छन्द 1

लंका नगरी और उसके महाबली राक्षसों का वर्णन

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥

उस नगरीका रत्नों से जड़ा हुआ, सुवर्ण का कोट, अतिव सुन्दर बना हुआ है।

चौहटे, दुकाने व सुन्दर गलियों के बहार, उस सुन्दर नगरी के अन्दर बनी है॥

जहा हाथी, घोड़े, खच्चर, पैदल व रथोकी गिनती कोई नहीं कर सकता।

और जहा महाबली, अद्भुत रूपवाले राक्षसोके सेनाके झुंड इतने है कि जिसका वर्णन किया नहीं जा सकता॥

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छन्द 2

लंका के बाग-बगीचों का वर्णन

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

जहा वन, बाग़, बागीचे, बावडिया, तालाब, कुएँ, बावलिया शोभायमान हो रही है।

जहां मनुष्यकन्या, नागकन्या, देवकन्या और गन्धर्वकन्याये विराजमान हो रही है – जिनका रूप देखकर, मुनिलोगोका मन मोहित हुआ जाता है॥

कही पर्वत के समान बड़े विशाल देहवाले महाबलिष्ट, मल्ल गर्जना करते है और
अनेक अखाड़ों में अनेक प्रकारसे भिड रहे है और
एक एकको आपस में पटक पटक कर गर्जना कर रहे है॥

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छन्द 3

लंका के राक्षसों का बुरा आचरण

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥

जहां कही विकट शरीर वाले करोडो भट,
चारो तरफसे नगरकी रक्षा करते है और
कही वे राक्षस लोग, भैंसे, मनुष्य, गौ, गधे,
बकरे और पक्षीयोंको खा रहे है॥

राक्षस लोगो का आचरण बहुत बुरा है।

इसीलिए तुलसीदासजी कहते है कि
मैंने इनकी कथा बहुत संक्षेपसे कही है।

ये महादुष्ट है, परन्तु रामचन्द्रजीके बानरूप पवित्र तीर्थनदीके अन्दर
अपना शरीर त्यागकर, गति अर्थात मोक्षको प्राप्त होंगे॥

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दोहा – 3

हनुमानजी छोटा सा रूप धरकर लंका में प्रवेश करने का सोचते है

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥

हनुमानजी ने बहुत से रखवालो को देखकर मन में विचार किया की
मै छोटा रूप धारण करके नगर में प्रवेश करूँ ॥3॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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लंकिनी का प्रसंग और ब्रह्माजी का वरदान

हनुमानजी राम नामका स्मरण करते हुए लंका में प्रवेश करते है

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥

हनुमानजी मच्छर के समान छोटा-सा रूप धारण कर,
प्रभु श्री रामचन्द्रजी के नाम का सुमिरन करते हुए लंका में प्रवेश करते है॥

लंकिनी, हनुमानजी का रास्ता रोकती है

लंका के द्वार पर लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी।
हनुमानजी की भेंट, उस लंकिनी राक्षसी से होती है।
वह पूछती है कि,
मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहा जा रहे हो?

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हनुमानजी लंकिनी को घूँसा मारते है

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

तूने मेरा भेद नहीं जाना?
जहाँ तक चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं॥

महाकपि हनुमानजी उसे एक घूँसा मारते है,
जिससे वह पृथ्वी पर लुढक पड़ती है।

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लंकिनी हनुमानजी को प्रणाम करती है

पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥

वह राक्षसी लंकिनी, अपने को सँभालकर फिर उठती है।
और डर के मारे हाथ जोड़कर हनुमानजी से कहती है॥

लंकिनी, हनुमानजी को, ब्रह्माजी के वरदान के बारे में बताती है

जब ब्रह्मा ने रावण को वर दिया था,
तब चलते समय उन्होंने राक्षसों के विनाश की यह पहचान मुझे बता दी थी कि॥

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ब्रह्माजी के वरदान में राक्षसों के संहार का संकेत

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए,
तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना।

हनुमानजी के दर्शन होने के कारण, लंकिनी खुदको भाग्यशाली समझती है

हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं,
जो मैं श्री रामजी के दूत को अपनी आँखों से देख पाई।

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दोहा – 4

थोड़े समय का सत्संग – स्वर्ग के सुख से बढ़कर है

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥

हे तात!, स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को
तराजू के एक पलड़े में रखा जाए,
तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए)
उस सुख के बराबर नहीं हो सकते,
जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है ॥4॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभु श्रीराम को निरंतर स्मरण करने के फायदे

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥

अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए
नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए॥

उसके लिए, अर्थात, जिसके मन में श्री राम का स्मरण रहता है,
विष अमृत हो जाता है,
शत्रु मित्रता करने लगते हैं,
समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है,
अग्नि में शीतलता आ जाती है॥

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हनुमानजी का लंका में प्रवेश

हनुमानजी, छोटा सा रूप धरकर, लंका में प्रवेश करते है

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

और हे गरूड़जी! जिसे राम ने एक बार कृपा करके देख लिया,
उसके लिए सुमेरु पर्वत रज के समान हो जाता है॥

तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया,
और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥

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हनुमानजी, रावण के महल तक पहुंचे

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की।
जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे॥

फिर वे रावण के महल में गए।
वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥

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हनुमानजी, सीताजी की खोज करते करते, विभीषण के महल तक पहुंचे

सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

हनुमानजी ने, महल में रावण को सोया हुआ देखा।
वहां भी हनुमानजी ने सीताजी की खोज की,
परन्तु सीताजी उस महल में कही भी दिखाई नहीं दीं॥

फिर उन्हें एक सुंदर महल दिखाई दिया।
उस महल में भगवान का एक मंदिर बना हुआ था॥

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दोहा – 5

विभीषण के महल का वर्णन – श्रीराम के चिन्ह और तुलसी के पौधे

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥5॥

वह महल श्री राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था,
उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती॥

वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर
कपिराज हनुमान हर्षित हुए॥ 5॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी और विभीषण का संवाद

राक्षसों की नगरी में, सत-पुरुष को देखकर, हनुमानजी को आश्चर्य हुआ

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

और उन्हीने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसोंके कुलकी निवासभूमी है,
राक्षसो के समूह का निवास स्थान है।
यहाँ सत्पुरुषो के रहने का क्या काम॥

इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे।
इतने में विभीषण की आँख खुली॥

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हनुमानजी, विभीषण को, राम नाम का जप करते देखते है

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

और जागते ही उन्होंने – राम! राम! – ऐसा स्मरण किया,
तो हनुमानजीने जाना की यह कोई सत्पुरुष है।
इस बात से हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ॥

सत्पुरुषों से क्यों पहचान करनी चाहिये?

हनुमानजीने विचार किया कि
इनसे जरूर पहचान करनी चहिये,
क्योंकि सत्पुरुषोके हाथ कभी कार्यकी हानि नहीं होती,
बल्कि लाभ ही होता है॥

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हनुमानजी ब्राह्मण का रूप धारण करते है

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

फिर हनुमानजीने ब्राम्हणका रूप धरकर वचन सुनाया,
तो वह वचन सुनतेही विभीषण उठकर उनके पास आया॥
और प्रणाम करके कुशल पूँछा कि,
हे ब्राह्मणदेव!, जो आपकी बात हो सो हमें समझाकर कहो
(अपनी कथा समझाकर कहिए)॥

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विभीषण हनुमानजी से उनके बारे में पूछते है

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥

विभीषणने कहा कि, क्या आप हरिभक्तो मे से कोई है?
क्योंकि मेरे मनमें आपकी ओर बहुत प्रीती बढती जाती है,
आपको देखकर मेरे हृदय मे अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है॥

अथवा मुझको बडभागी करने के वास्ते,
भक्तोपर अनुराग रखनेवाले आप साक्षात दिनबन्धु ही तो नहीं पधार गए हो॥

(अथवा क्या आप दीनो से प्रेम करने वाले स्वयं श्री राम जी ही है,
जो मुझे बड़भागी बनाने, घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने आए है?)

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दोहा – 6

हनुमानजी विभीषण को श्री राम कथा सुनाते है

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥6॥

विभिषणके ये वचन सुनकर
हनुमानजीने रामचन्द्रजीकी सब कथा विभीषणसे कही,
और अपना नाम बताया।

प्रभु राम के नाम स्मरण से, दोनों के मन आनंदित हो जाते है

परस्परकी बाते सुनतेही दोनोंके शरीर रोमांचित हो गए
और श्री रामचन्द्रजीका स्मरण आ जानेसे दोनों आनंदमग्न हो गए ॥6॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण हनुमानजी को अपनी स्थिति बताते है

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥

विभीषण कहते है की – हे हनुमानजी!
हमारी रहनी हम कहते है सो सुनो।
जैसे दांतों के बिचमें बिचारी जीभ रहती है,
ऐसे हम इन राक्षसोंके बिच में रहते है॥

हे तात! वे सूर्यकुल के नाथ (रघुनाथ),
मुझको अनाथ जानकर कभी कृपा करेंगे?

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बिना भगवान् की कृपा के सत्पुरुषों का संग नहीं मिलता

तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

जिससे प्रभु कृपा करे ऐसा साधन तो मेरे है नहीं।
क्योंकि मेरा शरीर तो तमोगुणी राक्षस है,
और न कोई प्रभुके चरणकमलों में मेरे मनकी प्रीति है॥

परन्तु हे हनुमानजी, अब मुझको इस बातका पक्का भरोसा हो गया है कि,
भगवान मुझपर अवश्य कृपा करेंगे।
क्योंकि भगवानकी कृपा बिना सत्पुरुषोंका मिलाप नहीं होता॥

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हनुमानजी द्वारा प्रभु श्री राम के गुणों का वर्णन

प्रभु श्री राम भक्तों पर सदा दया करते है

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥

रामचन्द्रजी ने मुझपर कृपा की है।
इसीसे आपने आकर मुझको दर्शन दिए है॥

विभीषणके यह वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि, हे विभीषण! सुनो,
प्रभुकी यह रीतीही है की वे सेवकपर सदा परमप्रीति किया करते है॥

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हनुमानजी कहते है, श्री राम ने वानरों पर भी कृपा की है

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

हनुमानजी कहते है की कहो मै कौनसा कुलीन पुरुष हूँ।
हमारी जाति देखो (चंचल वानर की),
जो महाचंचल और सब प्रकारसे हीन गिनी जाती है॥

जो कोई पुरुष प्रातःकाल हमारा (बंदरों का) नाम ले लेवे,
तो उसे उस दिन खाने को भोजन नहीं मिलता॥

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दोहा – 7

भगवान् राम के गुणों का भक्तिपूर्वक स्मरण

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥

हे सखा, सुनो मै ऐसा अधम नीच हूँ।
तिस पर भी रघुवीरने कृपा कर दी,
तो आप तो सब प्रकारसे उत्तम हो॥

आप पर कृपा करे इस में क्या बड़ी बात है।
ऐसे प्रभु श्री रामचन्द्रजी के गुणोंका स्मरण करनेसे
दोनों के नेत्रोमें आंसू भर आये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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भगवान् को भूलने पर, इंसान के जीवन में दुःख का आना

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

जो मनुष्य जानते बुझते ऐसे स्वामीको छोड़ बैठते है,
वे दूखी क्यों न होंगे?

इस तरह रामचन्द्रजीके परम पवित्र व
कानोंको सुख देने वाले गुणसमूहोंको कहते कहते,
हनुमानजी ने विश्राम पाया,
उन्होने परम (अनिर्वचनीय) शांति प्राप्त की॥

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विभीषण हनुमानजी को माता सीता के बारे में बताते है

पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥

फिर विभीषण ने हनुमानजी से वह सब कथा कही कि –
सीताजी जिस जगह, जिस तरह रहती थी।

तब हनुमानजी ने विभीषण से कहा, हे भाई सुनो,
मैं सीता माताको देखना चाहता हूँ॥

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अशोकवन का प्रसंग

हनुमानजी अशोकवन जाते है

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥

सो मुझे उपाय बताओ।
हनुमानजी के यह वचन सुनकर
विभीषण ने वहांकी सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाई।

तब हनुमानजी भी विभीषणसे विदा लेकर वहांसे चले॥

फिर वैसाही छोटासा स्वरुप धर कर,
हनुमानजी वहां गए, जहां अशोकवनमें सीताजी रहा करती थी॥

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सीताजी का राम के गुणों का स्मरण करना

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥

हनुमानजी ने सीताजी का दर्शन करके,
उनको मनही मनमें प्रणाम किया और बैठे।
इतने में एक प्रहर रात्रि बीत गयी॥

हनुमानजी सीताजी को देखते है,
सो उनका शरीर तो बहुत दुबला हो रहा है।
सरपर लटोकी एक वेणी बंधी हुई है।
और अपने मनमें श्री राम के गुणों का जाप (स्मरण) कर रही है॥

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दोहा – 8

माता सीता का मन, श्री राम के चरणों में

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥

और अपने पैरो में दृष्टि लगा रखी है।
मन रामचन्द्रजी के चरणों में लीन हो रहा है।

सीताजीकी यह दीन दशा (दुःख) देखकर,
हनुमानजीको बड़ा दुःख हुआ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

रावण का अशोकवन में आना

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥

हनुमानजी वृक्षों के पत्तो की ओटमें छिपे हुए,
मनमें विचार करने लगे कि
हे भाई अब मै क्या करू?
इनका दुःख कैसे दूर करूँ?॥

उसी समय बहुतसी स्त्रियोंको संग लिए रावण वहाँ आया।
जो स्त्रिया रावणके संग थी,
वे बहुत प्रकार के गहनों से बनी ठनी थी॥

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रावण सीताजी को भय दिखाता है

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥

उस दुष्टने सीताजी को अनेक प्रकार से समझाया।
साम, दाम, भय और भेद अनेक प्रकारसे दिखाया॥

रावणने सीतासे कहा कि हे सुमुखी!
जो तू एकबार भी मेरी तरफ देख ले तो हे सयानी,
मंदोदरी आदि सब रानियो को॥

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सीताजी तिनके का परदा बना लेती है

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

(जो ये मेरी मंदोदरी आदी रानियाँ है, इन सबको)
तेरी दासियाँ बना दूं, यह मेरा प्रण जान॥

रावण का वचन सुन
बीचमें तृण रखकर (तिनके का आड़ – परदा रखकर),
परम प्यारे रामचन्द्रजीका स्मरण करके,
सीताजीने रावण से कहा –

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सीताजी रावण को श्रीराम के बाण की याद दिलाती है

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

हे रावण! सुन,
खद्योत अर्थात जुगनू के प्रकाश से कमलिनी कदापी प्रफुल्लित नहीं होती।
किंतु कमलिनी सूर्यके प्रकाशसेही प्रफुल्लित होती है।
अर्थात तू खद्योतके (जुगनूके) समान है, और रामचन्द्रजी सूर्यके सामान है॥

सीताजीने अपने मन में ऐसे समझकर, रावणसे कहा कि
Or (जानकी जी फिर कहती है, तू अपने लिए भी ऐसा ही मन मे समझ ले)
रे दुष्ट! रामचन्द्रजीके बाणको अभी भूल गया क्या?
वह रामचन्द्रजी का बाण याद नहीं है॥

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सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

अरे निर्लज्ज! अरे अधम!
रामचन्द्रजी के सूने तू मुझको ले आया।
तुझे शर्म नहीं आती॥

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दोहा – 9

रावण को क्रोध आता है

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥

सीता के मुख से कठोर वचन
अर्थात अपनेको खद्योतके (जुगनूके) तुल्य और
रामचन्द्रजीको सुर्यके समान सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ।

जिससे उसने तलवार निकाल कर,
बड़े गुस्से से आकर ये वचन कहे ॥9॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावण सीताजी को कृपाण से भय दिखाता है

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी॥

हे सीता! तूने मेरा मान भंग कर दिया है।
इस वास्ते इस कठोर खडग (कृपान) से मैं तेरा सिर उड़ा दूंगा॥

हे सुमुखी, या तो तू जल्दी मेरा कहना मान ले,
नहीं तो तेरा जी जाता है,
(नही तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा)॥

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माता सीता के कठोर वचन

स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥

रावण के ये वचन सुनकर सीताजी ने कहा,
हे शठ रावण, सुन,
मेरा भी तो ऐसा पक्का प्रण है की
या तो इस कंठपर श्याम कमलोकी मालाके समान सुन्दर और
हाथिओ के सुन्ड के समान (पुष्ट तथा विशाल) रामचन्द्रजी की भुजा रहेगी
या तेरी यह भयानक तलवार।

अर्थात रामचन्द्रजी के बिना मुझे मरना मंजूर है,
पर अन्यका स्पर्श नहीं करूंगी॥

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माता सीता तलवार से प्रार्थना करती है

चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा॥

सीता उस तलवार से प्रार्थना करती है कि हे तलवार!
तू मेरे संताप को दूर कर,
क्योंकि मै रामचन्द्रजीकी विरहरूप अग्निसे संतप्त हो रही हूँ॥

सीताजी कहती है, हे चन्द्रहास (तलवार)!
तेरी शीतल धारासे (तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है, तेरी धारा ठंडी और तेज है) मेरे भारी दुख़को दूर कर॥

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मंदोदरी रावण को समझाती है

सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥

सीताजीके ये वचन सुनकर,
रावण फिर सीताजी को मारने को दौड़ा।
तब मय दैत्यकी कन्या मंदोदरी ने
नितिके वचन कह कर उसको समझाया॥

फिर रावणने सीताजीकी रखवारी सब राक्षसियोंको बुलाकर कहा कि –
तुम जाकर सीता को अनेक प्रकार से भय दिखाओ॥

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रावण राक्षसियों को आदेश देता है

मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥

यदि वह एक महीने के भीतर मेरा कहना नहीं मानेगी,
तो मैं तलवार निकाल कर उसे मार डालूँगा॥

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दोहा – 10

राक्षसियाँ सीताजी को डराने लगती है

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥10॥

उधर तो रावण अपने भवनके भीतर गया।

इधर वे नीच राक्षसियोंके झुंडके झुंड
अनेक प्रकारके रूप धारण कर के
सीताजी को भय दिखाने लगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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त्रिजटा का स्वप्न

रामचन्द्रजीके चरनोंकी भक्त, निपुण और विवेकवती त्रिजटा

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना॥

उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी।
वह रामचन्द्रजीके चरनोंकी परमभक्त और
बड़ी निपुण और विवेकवती थी॥

उसने सब राक्षसियों को अपने पास बुलाकर,
जो उसको सपना आया था, वह सबको सुनाया
और उनसे कहा की –
हम सबको सीताजी की सेवा करके
अपना हित कर लेना चाहिए
(सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो)॥

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त्रिजटा अन्य राक्षसियों को स्वप्न के बारे में बताती है

सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

क्योकि मैंने सपने में ऐसा देखा है कि –
एक वानरने लंकापुरीको जलाकर
राक्षसों की सारी सेनाको मार डाला॥

और रावण गधेपर सवार है।
वह भी कैसा की नग्नशरीर,
सिर मुंडा हुआ और बीस भुजायें टूटी हुई॥

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स्वप्न में रामचन्द्रजी की लंका पर विजय

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥

इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और
मैंने सपने में यह भी देखा है कि
मानो लंकाका राज विभिषणको मिल गया है॥

और नगर मे रामचन्द्रजी की दुहाई फिर गयी है।
तब रामचन्द्रजीने सीताको बुलाने के लिए बुलावा भेजा है॥

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स्वप्न सुनकर राक्षसियाँ डर जाती है

यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

त्रिजटा कहती है की
मै आपसे यह बात खूब सोच कर कहती हूँ की
यह स्वप्न चार दिन बितने के बाद (कुछ ही दिनों बाद) सत्य हो जाएगा॥

त्रिजटाके ये वचन सुनकर सब राक्षसियाँ डर गई।
और डरके मारे सब सीताजीके चरणों में गिर पड़ी॥

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दोहा – 11

सीताजी मन में सोचने लगती है

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥

फिर सब राक्षसियाँ मिलकर जहां तहां चली गयी।
तब सीताजी अपने मनमें सोच करने लगी की –
एक महिना बितनेके बाद यह नीच राक्षस (रावण) मुझे मार डालेगा ॥11॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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सीताजी और त्रिजटा का संवाद

माता सीता, त्रिजटा को, श्रीराम से विरहके दुःख के बारे में बताती है

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥

फिर त्रिजटाके पास हाथ जोड़कर सीताजी ने कहा की हे माता!
तू मेरी सच्ची विपत्तिकी संगिनी (साथिन) है॥

सीताजी कहती है की जल्दी उपाय कर
नहीं तो मै अपना देह तजती हूँ।
(जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मै शरीर छोड़ सकूँ)
क्योंकि अब मुझसे अति दुखद विरहका दुःख सहा नहीं जाता॥

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सीताजी का दुःख

आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥

हे माता! अब तू जल्दी काठ ला और
चिता बना कर मुझको जलानेके वास्ते जल्दी उसमे आग लगा दे॥

हे सयानी! तू मेरी प्रीति सत्य कर।
रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानो से कौन सुने?
सीताजीके ऐसे शूलके सामान महाभयानाक वचन सुनकर॥

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त्रिजटा सीताजी को सांत्वना देती है

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥

त्रिजटा ने तुरंत सीताजी के चरण पकड़कर उन्हे समझाया
और प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप, बल और उनका सुयश सुनाया॥

और सिताजीसे कहा की हे राजपुत्री! हे सुकुमारी!
अभी रात्री है, इसलिए अभी आग नहीं मिल सकती।
ऐसा कहा कर वहा अपने घरको चली गयी॥

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सीताजी को प्रभु राम से विरह का दुःख

आसमान के तारे

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
हिमिलि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥

तब अकेली बैठी बैठी सीताजी कहने लगी की
क्या करूँ विधाता ही विपरीत हो गया।
अब न तो अग्नि मिले और न मेरा दुःख कोई तरहसे मिट सके॥

ऐसे कह तारोको देख कर सीताजी कहती है की
ये आकाशके भीतर तो बहुतसे अंगारे दिखाई दे रहे है,
परंतु पृथ्वीपर पर इनमेसे एकभी तारा नहीं आता॥

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चन्द्रमा और अशोक वृक्ष

पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

सीताजी चन्द्रमा को देखकर कहती है कि
यह चन्द्रमा का स्वरुप अग्निमय दिख पड़ता है,
पर यहभी मानो मुझको मंदभागिन जानकार आगको नहीं बरसाता॥

अशोकके वृक्ष को देखकर उससे प्रार्थना करती है कि
हे अशोक वृक्ष!
मेरी विनती सुनकर तू अपना नाम सत्य कर।
अर्थात मुझे अशोक अर्थात शोकरहित कर।
मेरे शोकको दूर कर (मेरा शोक हर ले)॥

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सीताजी को दुखी देखकर हनुमानजी को दुःख होता है

नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान है
तुम मुझको अग्नि देकर मुझको शांत करो॥

इस प्रकार सीताजीको विरह से अत्यन्त व्याकुल देखकर
हनुमानजीका वह एक क्षण कल्पके समान बीतता गया॥

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दोहा – 12

प्रभु श्री राम की मुद्रिका (अंगूठी)

हनुमानजी श्री राम की अंगूठी सीताजी के सामने डाल देते है

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥12॥

उस समय हनुमानजीने अपने मनमे विचार करके
अपने हाथमेंसे मुद्रिका (अँगूठी) डाल दी।

सो सीताजी को वह मुद्रिका उससमय कैसी दिख पड़ी की मानो अशोकके अंगारने प्रगट हो कर हमको आनंद दिया है (मानो अशोक ने अंगारा दे दिया।)।
सो सिताजीने तुरंत उठकर वह अँगूठी अपने हाथमें ले ली ॥12॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम




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माता सीता अंगूठी को देखती है

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

फिर सीताजीने उस मुद्रिकाको (अँगूठी को) देखा
तो वह सुन्दर मुद्रिका रामचन्द्रजीके मनोहर नामसे अंकित हो रही थी,
अर्थात उसपर श्री राम का नाम खुदा हुआ था॥

उस अँगूठीको सीताजी चकित होकर देखने लगी।
आखिर उस मुद्रिकाको पहचान कर हृदय में अत्यंत हर्ष और
विषादको प्राप्त हुई और बहुत अकुलाई॥

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सीताजी अंगूठी कहाँ से आयी यह सोचती है

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

यह क्या हुआ? यह रामचन्द्रजीकी नामांकित मुद्रिका यहाँ कैसे आयी?
या तो उन्हें जितनेसे यह मुद्रिका यहाँ आ सकती है,
किंतु उन अजेय रामचन्द्रजीको जीत सके ऐसा तो जगतमे कौन है?
अर्थात उनको जीतनेवाला जगतमे है ही नहीं।

और जो कहे की यह राक्षसोने मायासे बनाई है सो यह भी नहीं हो सकता।
क्योंकि मायासे ऐसी बन नहीं सकती॥

इस प्रकार सीताजी अपने मनमे अनेक प्रकार से विचार कर रही थी।
इतनेमें ऊपरसे हनुमानजी ने मधुर वचन कहे॥

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हनुमानजी पेड़ पर से ही श्री राम की कथा सुनाते है

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

हनुमानजी रामचन्द्रजीके गुनोका वर्णन करने लगे।
उनको सुनतेही सीताजीका सब दुःख दूर हो गया॥

और वह मन और कान लगा कर सुनने लगी।
हनुमानजीने भी आरंभसे लेकर अब तक की कथा सीताजी को सुनाई॥

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माता सीता और हनुमानजी का संवाद

सीताजी हनुमान को सामने आने के लिए कहती है

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

हनुमानजीके मुखसे रामचन्द्रजीका चरितामृत सुनकर सीताजीने कहा कि
जिसने मुझको यह कानोंको अमृतसी मधुर लगनेवाली कथा सुनाई है,
वह मेरे सामने आकर प्रकट क्यों नहीं होता?

सीताजीके ये वचन सुनकर हनुमानजी चलकर उनके समीप गए
तो हनुमानजी का वानर रूप देखकर
सीताजीके मनमे बड़ा विस्मय हुआ (आश्र्चर्य हुआ) की यह क्या!
सो कपट समझकर सीता जी मुख फेरकर बैठ गई
(हनुमानजी को पीठ देकर बैठ गयी)॥

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हनुमानजी, माता सीता को अपने बारें में और अंगूठी के बारें में बताते है

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

तब हनुमानजीने सीताजीसे कहा की हे माता!
मै रामचन्द्रजीका दूत हूँ।
मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ की इसमें फर्क नहीं है॥

और रामचन्द्रजीने आपके लिए जो निशानी दी थी,
वह यह मुद्रिका (अँगूठी) मैंने लाकर आपको दी है॥

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सीताजी हनुमानजी से पूछती है की श्री राम उनसे कैसे मिले

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥

सीताजी ने पूछा की हे हनुमान!
नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ?

तब हनुमान जी ने जैसे संग हुआ था,
वह सब कथा कही॥
(तब उनके परस्परमे जैसे प्रीति हुई थी,
वे सब समाचार हनुमानजी ने सिताजीसे कहे)॥

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दोहा – 13

सीताजी को विश्वास हो जाता है की हनुमानजी श्री राम के भक्त है

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

हनुमानजीके प्रेमसहित वचन सुनकर
सीताजीके मनमे पक्का भरोसा आ गया और
उन्होंने जान लिया की यह मन, वचन और
कायासे कृपासिंधु श्रीरामजी के दास है॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माता सीता हनुमानजी को धन्यवाद देती है

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

हनुमानजी को हरिभक्त जानकर सीताजीके मन में अत्यंत प्रीति बढ़ी,
शरीर अत्यंत पुलकित हो गया और नेत्रोमे जल भर आया॥

सीताजीने हनुमान से कहा की हे हनुमान!
मै विरहरूप समुद्रमें डूब रही थी, सो हे तात!
मुझको तिरानेके लिए तुम नौका हुए हो॥

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सीताजी प्रभु श्री राम के बारें में पूछती है

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

अब तुम मुझको बताओ कि
सुखधाम, खर के शत्रु श्रीराम लक्ष्मणसहित कुशल तो है॥

हे हनुमान! रामचन्द्रजी तो बड़े दयालु और बड़े कोमलचित्त है।
फिर यह कठोरता आपने क्यों धारण कि है? ॥

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भगवान राम की कृपा से भक्त सदा सुखी

सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

यह तो उनका सहज स्वभावही है कि जो उनकी सेवा करता है
उनको वे सदा सुख देते रहते है॥

सो हे हनुमान! वे रामचन्द्रजी कभी मुझको भी याद करते है?॥
कभी मेरे भी नेत्र रामचन्द्रजीके कोमल श्याम शरिरको देखकर शीतल होंगे॥

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सीताजी का दुःख

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

सीताजीकी उस समय यह दशा हो गयी कि
मुखसे वचन निकलना बंद हो गया और नेत्रोमें जल भर आया।
इस दशा में सीताजीने प्रार्थना की, कि हे नाथ!
मुझको आप बिल्कुल ही भूल गए॥

सीताजीको विरह्से अत्यंत व्याकुल देखकर
हनुमानजी बड़े विनयके साथ कोमल वचन बोले॥

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हनुमानजी श्री राम के बारें में बताते है

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

हे माता! लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी सब प्रकार से कुशल है,
केवल एक आपके दुःख से तो वे कृपानिधान अवश्य दुखी है।
बाकी उनको कुछ भी दुःख नहीं है॥

हे माता! आप अपने मनको उन मत मानो
(अर्थात मन मे ग्लानि न मानिए, रंज मत करो,
मन छोटा करके दुःख मत कीजिए),
क्योंकि रामचन्द्रजीका प्यार आपकी ओर आपसे भी दुगुना है॥

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दोहा – 14

बजरंगबली श्री राम का संदेशा सुनाते है

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

हे माता! अब मै आपको जो रामचन्द्रजीका संदेशा सुनाता हूं,
सो आप धीरज धारण करके उसे सुनो,
ऐसे कह्तेही हनुमानजी प्रेम से गदगद हो गए और
नेत्रोमे जल भर आया ॥14॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभु श्री रामचन्द्रजी का संदेशा

श्री राम का माता सीता के लिए संदेशा

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता!
रामचन्द्रजी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो।

रामचन्द्रजी ने कहा है कि
तुम्हारे वियोगमें मेरे लिए सभी बाते विपरीत हो गयी है॥

वृक्षो के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान हो गए है।
रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है।
चन्द्रमा सूरजके समान दिख पड़ता है॥

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प्रभु राम का सीताजी के लिए संदेशा

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कमलों के वन मानो भालोके समूहके समान हो गए है।
मेघकी वृष्टि मानो तापे हुए तेलके समान लगती है,
(मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते है)॥

मै जिस वृक्षके तले बैठता हूं, वही वृक्ष मुझको पीड़ा देता है और
शीतल, सुगंध, मंद पवन मुझको साँपके श्वासके समान प्रतीत होता है॥

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श्री रामचन्द्रजी अपनी स्थिति बताते है

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

और अधिक क्या कहूं?
क्योंकि कहनेसे कोई दुःख घट थोडाही जाता है?
परन्तु यह बात किसको कहूं! कोई नहीं जानता॥

मेरे और आपके प्रेमके तत्वको कौन जानता है! कोई नहीं जानता।
केवल एक मेरा मन तो उसको भलेही पहचानता है॥

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सीताजी संदेशा सुनकर भगवान् राम को स्मरण करती है

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

पर वह मन सदा आपके पास रहता है।
इतने ही में जान लेना कि राम किस कदर प्रेमके वश है॥

रामचन्द्रजीके सन्देश सुनतेही सीताजी ऐसी प्रेममे मग्न हो गयी
कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रही॥

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हनुमानजी और माता सीता का संवाद

हनुमानजी माता सीता को धैर्य धरने के लिए कहते है

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु ताई।रघुपति प्रभु
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

उस समय हनुमानजीने सीताजीसे कहा कि हे माता!
आप सेवकजनोंके सुख देनेवाले
श्रीराम को याद करके मनमे धीरज धरो॥

श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको हृदयमें मानकर
मेरे वचनोको सुनकर विकलताको तज दो (छोड़ दो)॥

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दोहा – 15

भगवान् राम के बाणों से राक्षसों का संहार हो जायेगा

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

हे माता! रामचन्द्रजीके बानरूप अग्निके आगे
इस राक्षस समूहको आप पतंगके समान जानो और
इन सब राक्षसोको जले हुए जानकर मनमे धीरज धरो ॥15॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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अंधकार जैसे राक्षस और सूर्य जैसे श्री राम के बाण

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
रामबान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की॥1॥

हे माता ! जो रामचन्द्रजीको आपकी खबर मिल जाती
तो प्रभु कदापि विलम्ब नहीं करते॥

क्योंकि रामचन्द्रजी के बानरूप सूर्यके उदय होनेपर
राक्षसो की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥

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हनुमानजी भगवान् राम की आज्ञा के बारें में कहते है

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

हनुमानजी कहते है की हे माता!
मै आपको अभी ले जाऊं, परंतु करूं क्या?
रामचन्द्रजीकी आपको ले आनेकी आज्ञा नहीं है।
इसलिए मै कुछ कर नहीं सकता।
यह बात मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ॥

इसलिए हे माता! आप कुछ दिन धीरज धरो।
रामचन्द्रजी वानरोंकें साथ यहाँ आयेंगे ॥

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हनुमानजी का विशाल स्वरुप

हनुमानजी का छोटा रूप देखकर माता सीता को वानर सेना पर शंका

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

और राक्षसोंको मारकर आपको ले जाएँगे।
तब रामचन्द्रजीका यह सुयश तीनो लोकोमें नारदादि मुनि गाएँगे॥

हनुमानजी की यह बात सुनकर सीताजी ने कहा की हे पुत्र!
सभी वानर तो तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे से) होगे और
राक्षस बड़े योद्धा और बलवान है।
फिर यह बात कैसे बनेगी? ॥

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हनुमानजी सीताजी को अपना विशाल स्वरुप दिखाते है

मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥

इसका मेरे मनमे बड़ा संदेह है।
(कि तुम जैसे बंदर राक्षसो को कैसे जीतेंगे!)।

सीताजीका यह वचन सुनकर हनुमानजीने अपना शरीर प्रकट किया॥

हनुमानजी का वह विराट शरीर
सुवर्ण के पर्वत के समान विशाल ,
युद्धके बीच बड़ा विकराल,
रणके बीच बड़ा धीरजवाला,
युद्ध मे शत्रुओ के हृदय मे भय उत्पन्न करने वाला,
अत्यंत बलवान् और वीर था ॥

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बजरंगबली का विशाल रूप देखकर सीताजी को वानर सेना पर विश्वास

सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

हनुमानजीके उस शरीरको देखकर
सीताजीके मनमें पक्का भरोसा आ गया।
तब हनुमानजी ने अपना छोटा स्वरूप धर लिया॥

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दोहा – 16

प्रभु राम की कृपा से सब कुछ संभव

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥

हनुमानजीने कहा कि हे माता! सुनो,
वानरोंमे कोई विशाल बुद्धि का बल नहीं है।
परंतु प्रभुका प्रताप ऐसा है की उसके बलसे
छोटासा सांप गरूडको खा जाता है
(अत्यंत निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)॥16॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माता सीता का हनुमानजी को आशीर्वाद

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥1॥

भक्ति, प्रताप, तेज और बलसे मिली हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर
सीताजीके मनमें बड़ा संतोष हुआ॥

फिर सीताजीने हनुमान को
श्री राम का प्रिय जानकर आशीर्वाद दिया कि
हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥

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हनुमानजी – अजर, अमर और गुणों के भण्डार

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

हे पुत्र! तुम अजर (जरारहित – बुढ़ापे से रहित),
अमर (मरणरहित) और गुणोंका भण्डार हो और
रामचन्द्रजी तुमपर सदा कृपा करें॥

प्रभु रामचन्द्रजी कृपा करेंगे, ऐसे वचन सुनकर
हनुमानजी प्रेमानन्दमें अत्यंत मग्न हुए॥

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हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है

बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

और हनुमानजी ने वारंवार सीताजीके चरणोंमें शीश नवाकर,
हाथ जोड़कर, यह वचन बोले॥

हे माता! अब मै कृतार्थ हुआ हूँ,
क्योंकि आपका आशीर्वाद सफल ही होता है,
यह बात जगत् प्रसिद्ध है॥

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अशोकवन के फल और राक्षसों का संहार

हनुमानजी अशोकवन में लगे फलों को देखते है

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥

हे माता! सुनो, वृक्षोंके सुन्दर फल लगे देखकर मुझे अत्यंत भूख लग गयी है,
सो मुझे आज्ञा दो॥

तब सीताजीने कहा कि हे पुत्र! सुनो,
इस वनकी बड़े बड़े भारी योद्धा राक्षस रक्षा करते है॥

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हनुमानजी सीताजी से आज्ञा मांगते है

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥

तब हनुमानजी ने कहा कि हे माता !
जो आप मनमे सुख माने (प्रसन्न होकर आज्ञा दें),
तो मुझको उनका कुछ भय नहीं है॥

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दोहा – 17

प्रभु श्री राम के चरणों में मन रखकर कार्य करें

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥

तुलसीदासजी कहते है कि
हनुमानजीका विलक्षण बुद्धिबल देखकर
सीताजीने कहा कि हे पुत्र !
जाओ, रामचन्द्रजी के चरणों को हृदयमे रख कर मधुर मधुर फल खाओ ॥17॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी फल खाते है और कुछ राक्षसों का संहार करते है

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥

सीताजी के वचन सुनकर उनको प्रणाम करके
हनुमानजी बाग के अन्दर घुस गए।
फल फल तो सब खा गए और वृक्षोंको तोड़ मरोड़ दिया॥

जो वहां रक्षाके के लिए राक्षस रहते थे
उनमे से कुछ को मार डाला और
कुछ ने जाकर रावण से पुकार की
(रावण के पास गए और कहा)॥

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राक्षस रावण को हनुमानजी के बारे में बताते है

नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥

कि हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है ।
उसने तमाम अशोकवनका सत्यानाश कर दिया है॥

उसने फल फल तो सारे खा लिए है, और वृक्षोंको उखड दिया है।
और रखवारे राक्षसोंको पटक पटक कर मार गिराया है,
उनको मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया है॥

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रावण और राक्षसों को भेजता है

सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥

यह बात सुनकर रावण ने बहुत से राक्षस योद्धा भेजे।
उनको देखकर युद्धके उत्साहसे हनुमानजीने भारी गर्जना की॥

हनुमानजीने उन तमाम राक्षसोंको मार डाला।
जो कुछ अधमरे रह गए थे,
वे वहा से पुकारते हुए भागकर गए॥

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अक्षयकुमार का प्रसंग

रावण अक्षय कुमार को भेजता है

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥

फिर रावण ने मंदोदरिके पुत्र अक्षय कुमार को भेजा।
वह भी असंख्य योद्धाओं को संग लेकर गया॥

उसे आते देखतेही हनुमानजीने हाथमें वृक्ष लेकर उसपर प्रहार किया और
उसे मारकर फिर बड़े भारी शब्दसे (महाध्वनि से, जोर से) गर्जना की॥

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दोहा – 18

हनुमानजी अक्षय कुमार का संहार करते है

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥

हनुमानजीने कुछ राक्षसोंको मारा और कुछ को कुचल डाला और
कुछ को धूल में मिला दिया।

और जो बच गए थे वे जाकर रावण के आगे पुकारे कि
हे नाथ! वानर बड़ा बलवान है।
उसने अक्षयकुमारको मारकर सारे राक्षसोंका संहार कर डाला ॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मेघनाद और ब्रह्मास्त्र का प्रसंग

रावण मेघनाद को भेजता है

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥

रावण राक्षसोंके मुखसे अपने पुत्रका वध सुनकर बड़ा गुस्सा हुआ और
महाबली मेघनादको भेजा॥

और मेघनादसे कहा कि हे पुत्र!
उसे मारना मत किंतु बांधकर पकड़ लें आना,
क्योंकि मैं भी उसे देखूं तो सही वह वानर कहाँ का है॥

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मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाने के लिए आता है

चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥

इन्द्रजीत (इंद्र को जीतनेवाला) योद्धा मेघनाद
असंख्य योद्धाओ को संग लेकर चला।
भाई के वध का समाचार सुनकर उसे बड़ा गुस्सा आया॥

हनुमानजी ने उसे देखकर
यह कोई दारुण भट (भयानक योद्धा) आता है
ऐसे जानकार कटकटाके महाघोर गर्जना की और दौड़े॥

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हनुमानजी ने मेघनाद के रथ को नष्ट किया

अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥

एक बड़ा भारी वृक्ष उखाड़ कर
उससे लंकेश्र्वर रावण के पुत्र मेघनाद को
विरथ अर्थात रथहीन, बिना रथ का कर दिया॥

उसके साथ जो बड़े बड़े महाबली योद्धा थे,
उन सबको पकड़ पकड़कर हनुमानजी ने अपने शरीर से मसल डाला॥

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हनुमानजी ने मेघनाद को घूंसा मारा

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥

ऐसे उन राक्षसोंको मारकर हनुमानजी मेघनादके पास पहुँचे।
फिर वे दोनों ऐसे भिड़े कि मानो दो गजराज आपस में भीड़ रहे है॥

हनुमानजी मेघनादको एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े और
मेघनादको उस प्रहार से एक क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गयी।

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मेघनाद हनुमानजी से जीत नहीं पाया

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

फिर मेघनादने सचेत होकर बहुत माया रची, अनेक मायाये फैलायी
पर वह हनुमानजीसे किसी प्रकार जीत नहीं पाया॥

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दोहा – 19

मेघनादने ब्रम्हास्त्र चलाया

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19॥

मेघनाद अनेक अस्त्र चलाकर थक गया,
तब उसने ब्रम्हास्त्र चलाया।
उसे देखकर हनुमानजी ने मनमे विचार किया कि
इससे बंध जाना ही ठीक है।

क्योंकि जो मै इस ब्रम्हास्त्रको नहीं मानूंगा
तो इस अस्त्रकी अपार और अद्भुत महिमा घट जायेगी ॥19॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले जाता है

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥

मेघनादने हनुमानजीपर ब्रम्हास्त्र चलाया,
उस ब्रम्हास्त्रसे हनुमानजी गिरने लगे
तो गिरते समय भी उन्होंने अपने शरीरसे बहुतसे राक्षसोंका संहार कर डाला॥

जब मेघनादने जान लिया कि हनुमानजी अचेत हो गए है,
तब वह उन्हें नागपाशसे बांधकर लंकामे ले गया॥

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हनुमानजी ने अपने आप को क्यों ब्रह्मास्त्र में बँधा लिया?

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! सुनो,
जिनके नामका जप करनेसे ज्ञानी लोग भवबंधन को काट देते है

  • (जिनका नाम जपकर ज्ञानी और विवेकी मनुष्य संसार अर्थात जन्म-मरण के बंधन को काट डालते है)॥

उस प्रभुका दूत (हनुमानजी) भला बंधन में कैसे आ सकता है?
परंतु अपने प्रभुके कार्यके लिए हनुमान् जी ने स्वयं अपनेको बँधा लिया॥

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हनुमानजी रावण की सभा देखते है

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥

हनुमानजी को बंधा हुआ सुनकर सब राक्षस देखनेको दौड़े और
कौतुकके लिए सब सभामे आये॥

हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी,
तो उसकी प्रभुता और ऐश्वर्य किसी कदर कही जाय ऐसी नहीं थी॥

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रावण की सभा का वर्णन

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

तमाम देवता और दिक्पाल बड़े विनय के साथ हाथ जोड़े सामने खड़े
उसकी भ्रूकुटीकी ओर भयसहित देख रहे है॥

यद्यपि हनुमानजी ने उसका ऐसा प्रताप देखा,
परंतु उनके मन में ज़रा भी डर नहीं था।
हनुमानजी उस सभामें राक्षसोंके बीच ऐसे निडर खड़े थे कि
जैसे गरुड़ सर्पोके बीच निडर रहा करता है॥

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दोहा – 20

रावण हनुमानजी की ओर देखकर हँसता है

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20॥

रावण हनुमानजी की और देखकर हँसा और
कुछ दुर्वचन भी कहे,
परंतु फिर उसे पुत्रका मरण याद आजानेसे
उसके हृदयमे बड़ा संताप पैदा हुआ॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी और रावण का संवाद

रावण हनुमानजीसे उनके बारे में पूछता है?

चौपाई

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥

रावण ने हनुमानजी से कहा कि हे वानर!
तू कौन है और कहांसे आया है?
और तूने किसके बल से मेरे वनका विध्वंस कर दिया है॥

मैं तुझे अत्यंत निडर देख रहा हूँ।
क्या तूने कभी मेरा नाम अपने कानों से नहीं सुना है?॥

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हनुमानजी श्री राम के बारे में बताते है

मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥

तुझको हम नहीं मारेंगे, परन्तु सच कह दे कि
तूने हमारे राक्षसोंको किस अपराध के लिए मारा है?

रावणके ये वचन सुनकर
हनुमानजीने रावण से कहा कि हे रावण! सुन,
यह माया (प्रकृति) जिस परमात्माके बल (चैतन्यशक्ति) को पाकर
अनेक ब्रम्हांडसमूह रचती है॥

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श्री राम का बल और सामर्थ्य

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥

जिसके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश
ये तीनो देव जगतको रचते है,
पालते है और संहार करते है॥

और जिनकी सामर्थ्यसे शेषजी अपने सिर पर
वन और पर्वतोंसहित इस सारे ब्रम्हांडको धारण करते है॥

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भगवान राम के अवतार का कारण

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

और जो देवताओके रक्षा के लिए और
तुम्हारे जैसे दुष्टोको दंड देनेके लिए
अनेक शरीर (अवतार) धारण करते है॥

जिसने महादेवजीके अति कठिन धनुषको तोड़कर
तेरे साथ तमाम राजसमूहोके मदको भंजन किया (गर्व चूर्ण कर दिया) है॥

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खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥

और जिन्होने खर, दूषण, त्रिशिरा और
बालि ऐसे बड़े बलवाले योद्धओको मारा है॥

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दोहा – 21

रावण का साम्राज्य, भगवान् राम के बल के थोड़े से अंश के बराबर

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21॥

और हे रावण! सुन,
जिसके बलके लवलेश अर्थात किन्चित्मात्र, थोडेसे अंश से
तूने तमाम चराचर जगत को जीता है,
उस परमात्मा का मै दूत हूँ।
जिनकी प्यारी सीता को तू हर ले आया है ॥21॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावण का सहस्रबाहु और बालि से युद्ध

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥

हे रावण! तुम्हारी प्रभुता तो मैंने तभी से जान ली है कि
जब तुम्हे सहस्रबाहुके साथ युद्ध करनेका काम पड़ा था॥

और मुझको यह बातभी याद है कि
तुमने बालिसे लड़ कर जो यश प्राप्त किया था।

हनुमानजी के ये वचन सुनकर रावण ने हँसी में ही उड़ा दिए॥

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हनुमानजी ने अशोकवन क्यों उजाड़ा?

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

तब फिर हनुमानजी ने कहा कि हे रावण!
मुझको भूख लग गयी थी
इसलिए तो मैंने आपके बाग़ के फल खाए है और
जो वृक्षोको तोडा है सो तो केवल मैंने अपने वानर स्वाभावकी चपलतासे तोड़ डाले है॥

और जो मैंने आपके राक्षसोंको मारा
उसका कारण तो यह है की हे रावण!
अपना देह तो सबको बहुत प्यारा लगता है,
सो वे खोटे रास्ते चलने वाले राक्षस मुझको मारने लगे॥

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हनुमानजी ने राक्षसों को क्यों मारा?

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

तब मैंने अपने प्यारे शरीरकी रक्षा करनेके लिए
जिन्होंने मुझको मारा था उनको मैंने भी मारा।
इसपर आपके पुत्र ने मुझको बाँध लिया है॥

हनुमानजी कहते है कि मुझको बंध जाने से कुछ भी लज्जा नहीं आती
क्योंकि मै अपने स्वामीका कार्य करना चाहता हूँ॥

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हनुमानजी रावण को समझाते है

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

हे रावण! मै हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ।
सो अभिमान छोड़कर मेरी शिक्षा सुनो॥

और अपने मनमे विचार करके
तुम अपने आप खूब अच्छी तरह देख लो और
सोचनेके बाद भ्रम छोड़कर
भक्तजनोंके भय मिटानेवाले प्रभुकी सेवा करो॥

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ईश्वर से कभी बैर नहीं करना चाहिए

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

हे रावण! जो देवता, दैत्य और सारे चराचरको खा जाता है,
वह काल भी जिसके सामने अत्यंत भयभीत रहता है॥

उस परमात्मासे कभी बैर नहीं करना चाहिये।
इसलिए जो तू मेरा कहना माने
तो सीताजीको रामचन्द्रजीको दे दो॥

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दोहा – 22

हनुमानजी रावण को भगवान् की शरण में जाने के लिए कहते है

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22॥

हे रावण! खर को मारनेवाले रघुवंशमणि रामचन्द्रजी
भक्तपालक और करुणाके सागर है।

इसलिए यदि तू उनकी शरण चला जाएगा,
तो वे प्रभु तेरे अपराधको माफ़ करके
तुम्हे अपनी शरण मे रख लेंगे॥22॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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श्रीराम को मन में धारण करके कार्य करें

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

इसलिए तू रामचन्द्रजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारण कर और
उनकी कृपासे लंकामें अविचल राज कर॥

महामुनि पुलस्त्यजीका यश निर्मल चन्द्रमाके समान परम उज्वल है,
इसलिए तू उस कुलके बीचमें कलंक के समान मत हो॥

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राम नाम बिना वाणी कैसी लगती है

राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥

हे रावण! तू अपने मनमें विचार करके
मद और मोहको त्यागकर, अच्छी तरह जांचले कि
रामके नाम बिना वाणी कभी शोभा नहीं देती॥

हे रावण! चाहे स्त्री सब अलंकारोसे अलंकृत और सुन्दर क्यों न होवे
परंतु वस्त्रके बिना वह कभी शोभायमान नहीं होती।
ऐसेही रामनाम बिना वाणी शोभायमान नहीं होती॥

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राम नाम भूलने का क्या परिणाम होता है

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

हे रावण! जो पुरुष रामचन्द्रजीसे विमुख है
उसकी संपदा और प्रभुता पानेपर भी न पानेके बराबर है।
क्योंकि वह स्थिर नहीं रहती किन्तु तुरंत चली जाती है॥

श्री राम से विमुख पुरूष की संपत्ति और प्रभुता
रही हुई भी चली जाती है और
उसकी पाना न पाने के समान है।

देखो, जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है,
(अर्थात् जिन्हे केवल बरसात ही आसरा है),
वहां बरसात हो जाने के बाद
फिर सब जल सुख ही जाता है, कही नहीं रहता॥

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भगवान् राम से भूलने वाले की क्या गति होती है

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

हे रावण! सुन, मै प्रतिज्ञा कर कहता हूँ कि
रामचन्द्रजीसे विमुख पुरुषका रखवारा कोई नहीं है॥

हे रावण! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी
रामचन्द्रजीसे द्रोह करनेवाले को बचा नहीं सकते॥

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दोहा – 23

अभिमान और अहंकार त्याग कर भगवान् की शरण में

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23॥

हे रावण! मोह्का मूल कारण और
अत्यंत दुःख देनेवाली अभिमानकी बुद्धिको छोड़कर
कृपाके सागर भगवान् श्री रघुवीरकुलनायक रामचन्द्रजीकी सेवा कर ॥23॥
(मोह ही जिनका मूल है ऐसे बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो)


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी के सच्चे वचन अहंकारी रावण की समझ में नहीं आते है

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

यद्यपि हनुमानजी रावणको अति हितकारी और भक्ति, ज्ञान,
धर्म और नीतिसे भरी वाणी कही,
परंतु उस अभिमानी अधमके उसके कुछ भी असर नहीं हुआ॥

इससे हँसकर बोला कि हे वानर!
आज तो हमको तु बडा ज्ञानी गुरु मिला॥

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रावण हनुमानजी को डराता है

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

हे नीच! तू मुझको शिक्षा देने लगा है.
सो हे दुष्ट! कहीं तेरी मौत तो निकट नहीं आ गयी है?॥

रावणके ये वचन सुन हनुमान्‌ने कहा कि
इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नही)।
हे रावण! अब मैंने तेरा बुद्धिभ्रम (मतिभ्रम) स्पष्ट रीतिसे जान लिया है॥

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रावण हनुमानजी को मारने का हुक्म देता है

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

हनुमान्‌के वचन सुनकर रावणको बड़ा कोध आया,
जिससे रावणने राक्षसोंको कहा कि हे राक्षसो!
इस मूर्खके प्राण जल्दी ले लो अर्थात इसे तुरंत मार डालो॥

इस प्रकार रावण के वचन सुनतेही राक्षस मारनेको दौड़ें
तब अपने मंत्रियोंके साथ विभीषण वहां आ पहुँचे॥

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विभीषण रावणको दुसरा दंड देने के लिए समझाता है

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

बड़े विनयके साथ रावणको प्रणाम करके
बिभीषणने कहा कि यह दूत है।
इसलिए इसे मारना नही चाहिये;
क्योंकि यह बात नीतिसे विरुद्ध है॥

हे स्वामी! इसे आप कोई दूसरा दंड दे दीजिये पर मारें मत।
बिभीषणकी यह बात सुनकर सब राक्षसोंने कहा कि
हे भाइयो! यह सलाह तो अच्छी है॥

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रावण हनुमानजी को दुसरा दंड देने का सोचता है

सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

रावण इस बातको सुनकर बोला कि
जो इसको मारना ठीक नहीं है,
तो इस बंदरका कोई अंग भंग करके इसे भेज दो॥

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दोहा – 24

राक्षस हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का सुझाव देते है

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24॥

सब लोगोने सोच कर रावणसे कहा कि
वानरका ममत्व पूंछ पर बहुत होता है।
इसलिए इसकी पूंछमें तेलसे भीगेहुए कपडे लपेटकर
आग लगा दो ॥24॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम




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हनुमानजी की पूँछ में राक्षसों द्वारा आग लगाने का प्रसंग

रावण हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने का हुक्म देता है

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई।
देखेउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥

जब यह वानर पूंछहीन होकर (बिना पूँछ का होकर)
अपने मालिकके पास जायेगा,
तब अपने स्वामीको यह ले आएगा॥

इस वानरने जिसकी अतुलित बढाई की है,
भला उसकी प्रभुताको मैं देखूं तो सही कि वह कैसा है?॥

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राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगाने की तैयारी करते है

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥

रावनके ये वचन सुनकर हनुमानजी मनमें मुस्कुराए और
मनमें सोचने लगे कि मैंने जान लिया है
कि इस समय सरस्वती सहाय हुई है।

  • क्योंकि इसके मुंहसे रामचन्द्रजीके आनेका समाचार स्वयं निकल गया॥

तुलसीदासजी कहते है कि
वे राक्षसलोग रावणके वचन सुनकर
वही तैयारी करने लगे
अर्थात तेलसे भिगो भिगोकर कपडे
उनकी पूंछमें लपेटने लगे॥

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हनुमानजी पूँछ लम्बी बढ़ा देते है

रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥

उस समय हनुमानजीने ऐसा खेल किया कि
अपनी पूंछ इतनी लंबी बढ़ा दी कि
जिसको लपेटने के लिये नगरीमें कपडा, घी व तेल कुछ भी बाकी न रहा॥

नगरके जो लोग तमाशा देखनेको वहां आये थे,
वे सब बहुत हँसते हैं॥

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राक्षस हनुमानजी की पूँछ में आग लगा देते है

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघु रुप तुरंता॥4॥

अनेक ढोल बज रहे हे, सबलोग ताली दे रहे हैं,
इस तरह हनुमानजीको नगरीमें सर्वत्र फिराकर
फिर उनकी पूंछमें आग लगा दी॥

हनुमानजीने जब पूंछमें आग जलती देखी
तब उन्होने तुरंत बहुत छोटा स्वरूप धारण कर लिया॥

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हनुमानजी छोटा रूप धरकर बंधन से छूट जाते है

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भई सभीत निसाचर नारीं॥5॥

और बंधन से निकलकर पीछे सोनेकी अटारियोंपर चढ़ गए,
जिसको देखतेही तमाम राक्षसोंकी स्त्रीयां भयभीत हो गयी॥

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दोहा – 25

हनुमानजी का विशाल रूप और गर्जना

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्ज कपि बढ़ि लाग अकास॥25॥

उस समय भगवानकी प्रेरणासे उनचासो पवन बहने लगे और
हनुमानजीने अपना स्वरूप ऐसा बढ़ाया कि
वह आकाशमें जा लगा
फिर अट्टहास करके बड़े जोरसे गरजे ॥25॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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लंका दहन का प्रसंग

हनुमानजी एक महल से दूसरे महल पर जाते है

देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

यद्यपि हनुमानजीका शरीर बहुत बड़ा था
परंतु शरीरमें बड़ी फुर्ती थी,
जिससे वह एक घरसे दूसरे घर पर चढ़ते चले जाते थे॥

जिससे तमाम नगर जल गया।
लोग सब बेहाल हो गये और
झपट कर बहुतसे विकराल कोटपर चढ़ गये॥

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राक्षस लोग समझ जाते है की हनुमानजी देवता का रूप है

तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहि अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

और सब लोग पुकारने लगे कि हे तात! हे माता!
अब इस समयमें हमें कौन बचाएगा॥

हमने जो कहा था कि यह वानर नहीं है,
कोई देवता वानरका रूप धरकर आया है।
सो देख लीजिये यह बात ऐसी ही है॥

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लंका नगरी जल जाती है

साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

और यह नगर जो अनाथके नगरके समान जला है
सो तो साधुपुरुषोंका अपमान करनेंका फल ऐसाही हुआ करता है॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि
हनुमानजीने एक क्षणभरमें तमाम नगरको जला दिया.
केवल एक बिभीषणके घरको नहीं जलाया॥

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सिर्फ विभीषण का घर क्यों नहीं जलता है?

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥4॥

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती!
जिन्होने अग्नि को बनाया है,
उस परमेश्वरका विभीषण भक्त था,
हनुमान् जी उन्ही के दूत है,
इस कारण से उसका घर नहीं जला॥

हनुमानजी ने उलट पलट कर (एक ओर से दूसरी ओर तक)
तमाम लंकाको जला कर फिर समुद्रके अंदर कूद पडे॥

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दोहा – 26

हनुमानजी फिर से माता सीता के पास आते है

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥

अपनी पूंछको बुझाकर, श्रमको मिटाकर (थकावट दूर करके),
फिरसे छोटा स्वरूप धारण करके
हनुमानजी हाथ जोड़कर सीताजीके आगे आ खडे हुए ॥26॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माता सीता का प्रभु राम के लिए संदेशा

सीताजी हनुमानजीको पहचान का चिन्ह देती है

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥

और बोले कि हे माता!
जैसे रामचन्द्रजीने मुझको पहचानके लिये मुद्रिकाका निशान दिया था,
वैसे ही आपभी मुझको कुछ चिन्ह (पहचान) दो॥

तब सीताजीने अपने सिरसे उतार कर चूडामणि दिया।
हनुमानजीने बड़े आनंदके साथ वह ले लिया॥

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सीताजी श्री राम के लिए संदेशा देती है

कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी॥2॥

सीताजीने हनुमानजीसे कहा कि हे पुत्र!
मेरा प्रणाम कह कर प्रभुसे ऐसे कहना कि हे प्रभु!
यद्यपि आप सर्व प्रकारसे पूर्णकाम हो
(आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है)॥

हे नाथ! आप दीनदयाल हो,
दीनो (दुःखियो) पर दया करना आपका विरद है,
(और मै दीन हूँ)
अतः उस विरद को याद करके,
मेरे इस महासंकटको दूर करो॥

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माता सीता का श्रीराम को संदेशा

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥

हे पुत्र । फिर इन्द्रके पुत्र जयंतकी कथा सुनाकर
प्रभुकों बाणोंका प्रताप समझाकर याद दिलाना॥

और कहना कि हे नाथ!
जो आप एक महीनेके अन्दर नहीं पधारोगे,
तो फिर आप मुझको जीवित नहीं पाएँगे॥

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सीताजी को हनुमानजी के जाने का दुःख

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥

हे तात! कहना, अब मैं अपने प्राणोंको किस प्रकार रखूँ?
क्योंकि तुम भी अब जाने को कह रहे हो॥

तुमको देखकर मेरी छाती ठंढी हुई थी
परंतु अब तो फिर मेरे लिए वही दिन हैं और वही रातें हैं॥

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दोहा – 27

हनुमानजी माता सीता को प्रणाम करते है

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥27॥

हनुमानजीने सीताजीको (जानकी को) अनेक प्रकारसे समझाकर,
कई तरहसे धीरज दिया और
फिर उनके चरणकमलोंमें सिर नवाकर
वहांसे रामचन्द्रजीके पास रवाना हुए ॥27॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी का लंका से वापस आना

हनुमानजी लंका से वापिस आते है

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥

जाते समय हनुमानजीने ऐसी भारी गर्जना की,
कि जिसको सुनकर राक्षसियोंके गर्भ गिर गये॥

सपुद्रको लांघकर हनुमानजी समुद्रके इस पार आए।
और उस समय उन्होंने
किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सब बन्दरोंको सुनाया॥

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राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता।
धाय धाय कापी मिले तुरन्ता॥

हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे।
उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले॥

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हनुमानजी का तेज देखकर वानर हर्षित होते है

हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥

हनुमानजीको देखकर सब वानर बहुत प्रसन्न हुए और
उस समय वानरोंने अपना नया जन्म समझा॥

हनुमानजीका मुख अति प्रसन्न और
शरीर तेजसे अत्यंत दैदीप्यमान देखकर
वानरोंने जान लिया कि हनुमानजी
रामचन्द्रजीका कार्य करके आए है॥

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हनुमानजी के साथ सभी वानर श्री राम के पास जाते है

मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥

और इसीसे सब वानर परम प्रेमके साथ
हनुमानजीसे मिले और अत्यन्त प्रसन्न हुए।

वे कैसे प्रसन्न हुए सो कहते हैं कि
मानो तड़पती हुई मछलीको पानी मिल गया॥

फिर वे सब सुन्दर इतिहास (वृत्तांत) पूंछते हुए और कहते हुए
आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥

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सुग्रीव का प्रसंग

वानरों का मधुवन के फल खाना

तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥

फिर उन सबोंने मधुवनके अन्दर आकर
युवराज अंगदके साथ वहां मीठे फल खाये॥

जब वहांके पहरेदार बरजने लगे
तब उनको मुक्कोसे ऐसा मारा कि वे सब वहांसे भाग गये॥

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दोहा – 28

वन के रखवाले सुग्रीव से शिकायत करते है

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

उन सबोंने जाकर राजा सुग्रीवसे कहा कि हे राजा!
युवराज अंगदने वनका सत्यानाश कर दिया है।

यह समाचार सुनकर सुग्रीवको बड़ा आनंद आया
कि वे लोग प्रभुका काम करके आए हैं ॥28॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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सुग्रीव मन ही मन खुश होते है

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥

सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं।
सुग्रीवने मनमें विचार किया कि
जो उनको सीताजीकी खबर नहीं मिली होती,
तो वे लोग मधुवनके फल कदापि नहीं खाते॥

राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे।
इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर वहां चले आये॥

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सभी वानर सुग्रीव के पास आते है

आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥

सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया।
और आकर उन सभीने नमस्कार किया
तब बड़े प्यारके साथ सुग्रीव उन सबसे मिले॥

सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ!
आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और
जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥

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वानर सुग्रीव को हनुमानजी के कार्य के बारे में बताते है

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥

हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया है।
यह काम क्या किया है मानो सब वानरोंके इसने प्राण बचा लिये हैं॥

यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और
वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥

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वानरसेना प्रभु राम के पास जाती है

राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥

वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ
कि ये लोग काम सिद्ध करके आ गये हैं॥

राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिक मणिकी शिलापर बैठे हुए थे।
वहां जाकर सब वानर दोनों भाइयोंके चरणोंमें गिर पड़े॥

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दोहा – 29

सभी वानर भगवान् राम को प्रणाम करते है

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥

करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और
उनसे कुशल पूछा।

तब उन्होंने कहा कि हे नाथ!
आपके चरण कमलो के दर्शन पाने से
अब हम कुशल हें ॥29॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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जाम्बवान और प्रभु श्री राम का संवाद

ईश्वर की कृपा से भक्त का निरंतर कुशल

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥

उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे नाथ! सुनो,
आप जिसपर दया करते हो॥

उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें।
तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥

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भगवान् की कृपा का फल

सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥

और वही विजयी (विजय करनेवाला), विनयी (विनयवाला) और
गुणोंका समुद्र होता है और
उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है॥

यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं।
और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥

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जाम्बवान श्री राम को हनुमानजी के कार्य के बारें में बताते है

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजीने जो काम किया है,
उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता॥
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे,
तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥

हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य
जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥

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हनुमानजी और प्रभु श्री राम का संवाद

भगवान् राम हनुमानजी से माता सीता के बारें में पूछते है

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥

उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्वजीने उठकर
हनुमानजीको अपनी छातीसे लगाया॥

और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो,
सीता किस तरह रहती है?
और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥

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दोहा – 30

हनुमानजी माता सीता के बारें में बताते है

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥

हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है
कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे।

परंतु सीताजीने आपके दर्शनके लिए
प्राणोंका ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि –

रात दिन अखंड पहरा देनेके वास्ते
आपके नामको तो उसने सिपाही बना रखा है
(आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है)।

और आपके ध्यानको कपाट बनाया है
(आपका ध्यान ही किवाड़ है)।

और अपने नीचे किये हुए नेत्रोंसे
जो अपने चरणकी ओर निहारती है
वह ताला है.

भगवान् का ध्यान किस प्रकार करें

अब उनके प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥

आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है. नेत्रो को अपने चरणो मे लगाए रहती है, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस मार्ग से?॥30॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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हनुमानजी प्रभु राम को सीताजी की चूड़ामणि देते है

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥

और चलते समय मुझको यह चूड़ामणि दिया हे.
ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया।
तब रामचन्द्रजीने उस रत्नको लेकर अपनी छातीसे लगाया॥

तब हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
दोनो हाथ जोड़कर नेत्रोंमें जल भरकर
सीताजीने कुछ वचनभी कहे है सो सुनिये॥

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सीताजी का प्रभु राम के लिए संदेशा

हनुमानजी श्री राम को सीताजी का संदेशा सुनाते है

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥

सीताजीने कहा है कि
लक्ष्मणजीके साथ प्रभुके चरण धरकर
मेरी ओरसे ऐसी प्रार्थना करना कि हे नाथ!
आप तो दीनबंधु और शरणागतोके संकटको मिटानेवाले हो॥

फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखनेवाली
मुझ दासीको आपने किस अपराधसे त्याग दिया है॥

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माता सीता का संदेशा

अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥

हाँ, मेरा एक अपराध पक्का (अवश्य) हैं और
वह मैंने जान भी लिया है कि
आपसे वियोग होते ही मेरे प्राण नही निकल गये॥

परंतु हें नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है, किन्तु नेत्रोका है;
क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है,
उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं
(अर्थात् केवल आपके दर्शनके लोभसे मेरे प्राण बने रहे हैं)॥

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भगवानके दर्शन की प्यास

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥

हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है,
मेरा शरीर तूल (रुई) है और श्वास प्रबल वायु है।

अब इस सामग्रीके रहते
शरीर क्षणभरमें जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥

परंतु नेत्र अपने हितके लिए अर्थात् दर्शनके वास्ते
जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शांत करते हैं,
इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

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सीताजी की लंका में स्थिति

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥

हनुमानजी ने कहा कि हे दीनदयाल!
सीताकी विपत्ति ऐसी भारी है कि
उसको न कहना ही अच्छा है
(कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥

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दोहा – 31

सीताजी को प्रभु से विरह का दुःख

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

हे करुणानिधान! हे प्रभु! सीताजीके एक एक क्षण,
सौ सौ कल्पके समान व्यतीत होते हैं।
इसलिए जल्दी चलकर और अपने बाहुबलसे (भुजाओ के बल से)
दुष्टोंके दलको जीतकर उनको जल्दी ले आइए ॥31॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभुकी शरण में आये हुए को दुःख नहीं

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥

सुखके धाम श्रीरामचन्द्रजी,
सीताजीके दुःखके समाचार सुन अति खिन्न हुए और
उनके कमलसे दोनों नेत्रोंमें जल भर आया॥

रामचन्द्रजीने कहा कि जिसने मन, वचन व कर्मसे मेरा शरण लिया है,
क्या स्वप्नमें भी उसको विपत्ति होनी चाहिये? कदापि नहीं॥

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भगवान को भूलने पर मनुष्य को दुःख

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥

हनुमानजीने कहा कि हे प्रभु!
मनुष्यकी यह विपत्ति तो वही (तभी) है,
जब यह मनुष्य आपका भजन स्मरण नही करता॥

हे प्रभु इस राक्षसकी कितनीसी बात है।
आप शत्रुको जीतकर सीताजीको ले आइये॥

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रामभक्त वीर हनुमान की जय

प्रभु राम बजरंगबली की प्रशंसा करते है

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

रामचन्द्रजीने कहा कि हे हनुमान!
सुनो, तेरे बराबर मेरे उपकार करनेवाला देवता,
मनुष्य और मुनि कोइ भी देहधारी नहीं है॥

हे हनुमान! में तुम्हारा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं;
क्योंकि मेरा मन बदला देनेके वास्ते
सन्मुखही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता॥

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रामभक्त हनुमान के प्रभु राम ऋणी

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥

हे हनुमान! सुन, मेंने अपने मनमें विचार करके देख लिया है कि
मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता॥

देवताओ के रक्षक प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ज्यों ज्यों वारंवार हनुमानजीकी ओर देखते है;
त्यों त्यों उनके नेत्रोंमें जल भर आता है और
शरीर पुलकित हो जाता है॥

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दोहा – 32

हे प्रभु राम, हमारी रक्षा करो

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32॥

हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकर और
प्रभुके मुखकी ओर देखकर मनमें परम हर्षित हो गए॥

और बहुत व्याकुल होकर कहा
हे भगवान्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो
ऐसा कहते हुए चरणोंमे गिर पड़े ॥32॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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शिव के अंशावतार हनुमानजी की श्री राम भक्ति

बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥

यद्यपि प्रभु उनको चरणोंमेंसे बार-बार उठाना चाहते हैं,
परंतु हनुमान् प्रेममें ऐसे मग्न हो गए थे कि
वह उठना नहीं चाहते थे॥

कवि कहते है कि
रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है,
प्रभु का करकमल हनुमान् जी के सिर पर है,
इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा हो गयी
और प्रेममें मग्न हो गये;
क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥

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श्री राम ने हनुमान जी को गले से लगाया

सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥

फिर महादेव अपने मनको सावधान करके
अति मनोहर कथा कहने लगे॥

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती!
प्रभुने हनमान्‌कों उठाकर छातीसे लगाया और
हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥

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रामचन्द्रजी लंका दहन के बारें में पूछते है

कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥

और हनुमानसे कहा कि हे हनुमान! कहो,
वह रावणकी पाली हुई लंकापुरी, कि जो बड़ा बंका किला है,
उसको तुमने कैसे जलाया?॥

रामचन्द्रजीकी यह बात सुन उनको प्रसन्न जानकर
हनुमानजीने अभिमानरहित होकर यह वचन कहे कि॥

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हनुमानजी लंका दहन के बारें में बताते है

साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥

हे प्रभु! बानरका तो अत्यंत पराक्रम यही है कि
वृक्षकी एक डालसे दूसरी डालपर कूद जाय॥

परंतु जो मै समुद्रको लांघकर लंका में चला गया और
वहा जाकर मैंने लंका को जला दिया और
बहुतसे राक्षसोंको मारकर अशोक वनको उजाड़ दिया॥

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सभी कार्य ईश्वर की कृपा से

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥

हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है।
हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ नहीं है॥

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दोहा – 33

भगवान् की कृपा से सब कुछ संभव

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए
कुछ भी असाध्य (कठिन) नहीं है।

आपके प्रतापसे रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है) ॥33॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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श्री राम और हनुमानजी का संवाद

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे नाथ!
मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी), निश्चल, कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥

महादेवजीने कहा कि हे पार्वती!
हनुमानकी ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभुने कहा कि
हे हनुमान्! एवमस्तु’ (ऐसाही हो)
अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥

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उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥

हे पार्वती!
जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है,
उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर
दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥

यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद
जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है,
वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥

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सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥

प्रभुके ऐसे वचन सुनकर
तमाम वानरगणने पुकार कर कहा कि हे दयालू!
हे सुखके मूलकारण प्रभु!
आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥

उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव!
अब चलनेकी तैयारी करो॥

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अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥

अब विलम्ब क्यों किया जाता है।
अब तुम वानरोंको तुरंत आज्ञा क्यो नहीं देते हो॥

इस कौतुकको (भगवान की यह लीला) देखकर
देवताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बरसाये और
फिर वे आनंदित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥

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दोहा – 34

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥

रामचन्द्रजीकी आज्ञा होते ही
सुग्रीवने वानरोंके सेनापतियोंको बुलाया और
सुग्रीवकी आज्ञाके साथही वानर और रीछोके झुंड
कि जिनके अनके प्रकारके वर्ण हैं और
अतूलित बल हैं, वे वहां आये॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥

महाबली वानर और रीछ वहां आकर गर्जना करते हैं और
रामचन्द्रजीके चरण कमलो मे सिर नवाते है, सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं॥

तमाम वानरॉकी सेनाको देखकर
कमलनयन प्रभुने कृपा दृष्टिसे उनकी ओर देखा॥

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राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥

प्रभुकी कृपादृष्टि पड़तेही
अर्थात राम कृपा का बल पाकर
तमाम वानर ऐसे बली और बड़े हो गये कि
मानों पंखवाले बड़े पर्वत तो नहीं है?॥

उस समय रामचन्द्रजीने आनंदित होकर प्रयाण किया.
तब नाना प्रकारके अच्छे और सुन्दर शुभ शकुन हुए॥

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जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥

यह दस्तूर है कि जिसके सब मंगलमय होना होता है
(जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है)
उसके प्रयाणके समय शगुनभी अच्छे होते है॥

प्रभुने प्रयाण किया उसकी खबर सीताजीको भी हो गई;
क्योंकि जिस समय प्रभुने प्रयाण किया
उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंग फड़कने लगे
(मानो कह रह है की श्री राम आ रहे हैं)॥

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जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥

ओर जो जो शगुन सीताजीके अच्छे हुए,
वे सब रावणके बुरे शगुन हुए॥

इस प्रकार रामचन्द्रजीकी सेना रवाना हुई,
कि जिसके अन्दर असंख्यात वानर और रीछ गरज रहे है.
उस सेनाका वर्णन कौन कर सकता है?॥

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नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

नख ही जिनके शस्त्र है,
वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर
पर्वतो और वृक्षो को धारण किए
कोई आकाश मार्ग से और
कोई पृथ्वी पर चले जा रहे है।

वानर व रीछ मार्गमें जाते हुए सिंहनाद कर रहे है.
जिससे दिग्गज हाथी डगमगाते हैं और चीत्कार करते हैं॥

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छंद – Sunderkand

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥

जब रामचन्द्रजीने प्रयाण किया
तब दिग्गज चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी डगमगाने लगी,
पर्वत कांपने लगे, समुद्र खड़भड़ा गये,
सूर्य आनंदित हुआ कि हमारे वंशमें दुष्टोंको दंड देनेवाला पैदा हुआ।

देवता, मुनि, नाग व् किन्नर ये सब मन में हर्षित हुए
कि अब हमारे दुःख टल गए।

वानर विकट रीतिसे कटकटा रहे है,
कोटयानकोट बहुतसे योद्धा इधर उधर दौड़ रहे हैं और
रामचन्द्रजीके गुणसमूहो को (गुणगणोंको) गा रहे हैं कि
हे प्रबलप्रतापवाले राम! आपकी जय हो॥

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छंद – Sunderkand

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥

उस सेनाके अपार भारको शेषजी (सर्पराज शेष) स्वयं सह नहीं सकते
जिससे वारंवार मोहित होते हें और
अपने दाँतोंसे बार-बार कमठकी (कच्छप की) कठोर पीठको पकडे रहते है।

सो वह शोभा कैसी मालूम होती है कि
मानो रामचन्द्रजीके सुन्दर प्रयाणकी प्रस्थिति (प्रस्थान यात्रा) को परमरम्य जानकर
शेषजी कमठकी पीठरूप खप्परपर अपने दांतोसे लिख रहे हैं, कि
जिससे वह प्रस्थानका पवित्र संवत् च मिती सदा स्थिर बनी रहे,

जैसे कुएं बावली मंदिर आदि बनानेवाले
उसपर पत्थरमें प्रशस्ति खुदवाकर लगा देते है,
ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपर प्रशस्तिही खोद रहे थे॥

Or

उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नही सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) है और
पुनः पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतो से पकड़ते है।ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दाँतो को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे है
मानो श्री रामचन्द्र जी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर
उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हो॥2॥

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दोहा – 35

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥

कृपाके भ्रंडार श्रीरामचन्द्रजी इस तरह जाकर समुद्रके तीरपर उतरे,
तब वीर रीछ और वानर जहां तहां वहुतसे फल खाने लगे ॥35॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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मंदोदरी और रावण का संवाद

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥

जबसे हनुमान् लंकाको जलाकर चले गए
तबसे वहां राक्षसलोग शंकासहित (भयभीत) रहने लगे॥

और अपने अपने घरमें सब विचार करने लगे कि
अब राक्षसकुल बचनेका नहीं है
(राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है)॥

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जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥

हम लोग जिसके दूतके बलको भी कह नहीं सकते
उसके आनेपर फिर पुरका भला कैसे हो सकेगा (बुरी दशा होगी)॥

जिसके दूत का बल वर्णन नही किया जा सकता,
उसके स्वयं नगर मे आने पर कौन भलाई है
(हम लोगो की बड़ी बुरी दशा होगी) ॥

नगरके लोगोंकी ऐसी अति भयसहित वाणी सुनकर
मन्दोंदरी अपने मनमें बहुत घबरायी॥

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रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

और एकान्तमें आकर हाथ जोड़कर
पातिके चरणोंमे गिरकर नितिके रससे भरे हुए ये वचन बोली॥

हे कान्त! हरि भगवानसे जो आपके वैरभाव हैं
उसे छोड़ दीजिए।
मै जो आपसे कहती हूँ वह आपको अत्यंत हितकारी है,
सो इसको अपने चित्तमें धारण कीजिए॥

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समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥

भला अब उसके दूतके कामको तो देखो कि
जिसको नाम लेनेसे राक्षसियोंके गर्भ गिर जाते हैं॥

इसलिए हे कान्त! मेरा कहना तो यह है कि
जो आप अपना भला चाहो तो,
अपने मंत्रियोंको बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥

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तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥

जैसे शीतऋतु अर्थात् शिशिर ऋतुकी रात्रि (जाड़ेकी रात्रि) आनेसे
कमलोंके बनका नाश हो जाता हे,
ऐसे तुम्हारे कुलरूप कमलबनका संहार करनेके लिये
यह सीता शिशिर ऋतुकी रात्रिके समान आयी है॥

आपके कुल रूपी कमलो के वन को,
दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान सीता आई है।

हे नाथ! सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना महादेव और ब्रह्माजी के किए भी आपका भला नही हो सकता॥

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दोहा – 36

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥

हे नाथ रामचन्द्रजीके बाण तो सर्पोके गणके (समूह) समान है और
राक्षससमूह मेंढकके झुंडके समान हैं।
सो वे इनका संहार नहीं करते
इससे पहले पहले आप यत्न करो और
जिस बातका हठ पकड़ रक्खा है
उसको छोड़कर उपाय कर लीजिए॥

जब तक वे इन्हे ग्रस नही लेते (निगल नही जाते)
तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम




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सुंदरकांड – 0४

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सुन्दरकाण्ड अर्थ सहित – 04


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अहंकारी रावण और उसके अज्ञानी मंत्री

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

कवि कहता है कि
वो शठ (मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण)
मन्दोदरीकी यह वाणी सुनकर हँसा,
क्योंकि उसके अभिमानकौ तमाम संसार जानता है॥

और बोला कि जगत्‌में जो यह बात कही जाती है कि
स्त्रीका स्वभाव डरपोक होता है सो यह बात सच्ची है।
और इसीसे तेरा मन मंगलकी बातमें अमंगल समझता है॥

मंगल मे भी भय करती हो।
तुम्हारा मन (ह्रदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है

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जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥2॥

रावण बोला, अब वानरोकी सेना यहां आवेगी
तो क्या बिचारी वह जीती रह सकेगी,
क्योंकि राक्षस उसको आते ही खा जायेंगे॥

जिसकी त्रासके मारे लोकपाल कांपते है
उसकी स्त्रीका भय होना यह तो एक बड़ी हँसीकी बात है॥

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अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥3॥

वह दुष्ट मंदोदारीको ऐसे कह,
उसको छातीमें लगाकर मनमें बड़ी ममता रखता हुआ सभामें गया॥

परन्नु मन्दोदरीने उस वक़्त समझ लिया कि
अब उसके पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए है॥

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बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

ज्यों ही वह सभा मे जाकर बैठा,
वहां ऐसी खबर आयी कि
सब सेना समुद्र के उस पार आ गयी है॥

तब रावणने सब मंत्रियोंसे पूछा कि
तुम अपना अपना जो योग्य मत हो वह कहो
(अब क्या करना चाहिए?)।

तब वे सब मंत्री हँसे और चुप लगा कर रह गए
(इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥

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जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माही॥5॥

फिर बोले की हे नाथ!
जब आपने देवता और दैत्योंको जीता उसमें भी आपको श्रम नही हुआ
तो मनुष्य और वानर तो कौन गिनती है॥

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दोहा – 37

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥

जो मंत्री, भय वा लोभसे राजाको सुहाती बात कहता है,
तो उसके राजका तुरंत नाश हो जाता है, और

जो वैद्य रोगीको सुहाती बात कहता है
तो रोगीका वेगही नाश हो जाता है, तथा

जो गुरु शिष्यके सुहाती बात कहता है,
उसके धर्मका शीघ्रही नाश हो जाता है ॥37॥

Or

मंत्री, वैद्य और गूरू –
ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से

हित की बात न कहकर,
प्रिय बोलते है, सुहाती कहने लगते है,

तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म
इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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सोइ रावन कहुँ बनि सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

सो रावणके यहां वैसीही सहाय बन गयी
अर्थात् सब मंत्री सुना सुना कर रावणकी स्तुति करने लगे॥

उस अवसरको जानकर विभीषण वहां आया और
बड़े भाईके चरणों में उसने सिर नवाया॥

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विभीषण का रावण को समझाना

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरुप कहउँ हित ताता॥2॥

फिर प्रणाम करके
वह अपने आसनपर जा बैठा॥

और रावणकी आज्ञा पाकर यह वचन बोला, हे कृपालु!
आप मुझसे जो बात पूछते हो सो हे तात!
मैं भी मेरी बुद्धिके अनुसार आपके हित की बात कहूंगा॥

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जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाई॥3॥

हे तात! जो आप अपना कल्याण, सुयश,
सुमति, शुभ-गति, और नाना प्रकारका सुख चाहते हो॥

तब तो हे स्वामी!
परस्त्रीके ललाट को चौथके चांदकी तरह त्याग दो॥

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चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

चाहो कोई एकही आदमी चौदहा लोकोंका स्वामी हो जाए,
परंतु जो प्राणीमात्रसे वैर रखता है,
वह स्थिर नहीं रहता अर्थात् तुरंत नष्ट हो जाता हैँ॥

जो आदमी गुणोंका सागर और चतुर है,
परंतु वह यदि थोड़ा भी लोभ कर जाय
तो उसे कोई भी अच्छा नहीं कहता॥

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दोहा – 38

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥

हे नाथ! ये सदग्रन्थ अर्थात् वेद आदि शास्त्र ऐसे कहते हैं कि
काम, कोध, मद और लोभ
ये सब नरक के मार्ग हैं,

इसलिए इन्हें छोड़कर
रामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा करो,

श्री राम चन्द्रजी को भजिए,
जिन्हे संत (सत्पुरूष) भजते है ॥38॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥

हे तात! राम मनुष्य और राजा नहीं हैं,
किंतु वे साक्षात समस्त लोको के स्वामी, त्रिलोकीनाथ और कालके भी काल है॥

जो साक्षात् परब्रह्म, निर्विकार, अजन्मा,
सर्वव्यापक, अजेय, आदि और अनंत ब्रह्म है॥

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गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपासिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

वे कृपासिंधु गौ, ब्राह्मण, देवता और
पृथ्वीका हित करनेके लिये,
दुष्टोके दलका संहार करनेके लिये,
वेद और धर्मकी रक्षा करनेके लिये प्रकट हुए हे॥

Or

उन कृपा के समुन्द्र भगवान् ने
पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओ का हित करने के लिए ही
मनुष्य शरीर धारण किया है।
हे भाई! सुनिए, वे सेवको को आनन्द देने वाले,
दुष्टो के समूह का नाश करने वाले वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले है॥2॥

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ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

सो शरणगतोंके संकट मिटानेवाले
उन रामचन्द्रजीको वैर छोड़कर प्रणाम करो॥

हे नाथ! रामचन्द्रजी को सीता दे दीजिए और
कामना छोडकर, स्नेह रखनेवाले रामका भजन करो॥

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सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

हे नाथ! वे शरण जानेपर ऐसे अधर्मीको भी नहीं त्यागते कि
जिसको विश्वद्रोह करनेका पाप
(संपूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप) लगा हो॥

हे रावण! आप अपने मनमें निश्चय समझो कि
जिनका नाम लेनेसे तीनों प्रकारके ताप नाश हो जाते हैं
वे ही प्रभु आज पृथ्वीपर मनुष्य रूप मे प्रकट हुए हैं॥

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दोहा – 39A

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥39 (क)॥

हे रावण! मैं आपके वारंवार पावों में पड़कर
(बार-बार आपके चरण लगता हूँ और)
विनती करता हूँ,
सो मेरी विनती सुनकर आप मान, मोह, और
मदको छोड़ श्री रामचन्द्रजी की सेवा करो ॥39(क)॥

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दोहा – 39B

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥39 (ख)॥

पुलस्त्य ऋषीने अपने शिष्यको भेजकर
यह बात कहला भेजी थी
सो अवसर पाकर यह बात हे रावण!
मैंने आपसे कही है ॥39(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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माल्यावान का रावण को समझाना

माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥

वहां माल्यावान नाम एक बुद्धिमान मंत्री बैठा हुआ था।
वह विभीषणके वचन सुनकर अतिप्रसन्न हुआ॥

और उसने रावणसे कहा कि
तात! आपका छोटा भाई बड़ा नीति जाननेवाला हैँ,
इस वास्ते बिभीषण जो बात कहता है,
उसी बातको आप अपने मनमें धारण करो॥

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रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥

माल्यवान्‌की यह बात सुनकर रावणने कहा कि
हे राक्षसो! ये दोनों नीच शत्रुकी बड़ाई करते हैं,
उनकी महिमा का बखान कर रहे है।

तुममेंसे कोई भी उनको यहां से निकाल क्यों नहीं देते,
यह क्या बात है॥

तब माल्यवान् तो उठकर अपने घरको चला गया और
बिभीषणने हाथ जोड़कर फिर कहा॥

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सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

विभीषण कहते है – हे नाथ!
वेद और पुरानोमें ऐसा कहा है कि
सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटि बुद्धि)
सबके मनमें रहती है।

जहाँ सुमति है, वहां संपदा है (सुख की स्थिति) और
जहाँ कुबुद्धि है, वहां विपत्ति (दुःख) है॥

जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती है और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम मे विपत्ति (दुःख) रहती है।

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तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥

हे रावण!
आपके हृदयमें कुबुद्धि आ बसी है,
इसीसे आप हित को अहित और
शत्रु को मित्र मान रहे है॥

जो राक्षसोंके कुलकी कालरात्रि है,
(जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि के समान है),
उस सीतापर आपकी बहुत प्रीति है,
यह कुबुद्धि नहीं तो और क्या है॥

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दोहा – 40

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥40॥

हे तात! में चरण पकडकर आपसे प्रार्थना करता हूँ,
सो मेरी प्रार्थना अंगीकार करो।

आप रामचंद्रजीको सीताजी दे दीजिए,
जिससे आपका अहित न हो,
जिससे आपका बहुत भला होगा ॥40॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण का अपमान

बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥

सयाने बिभीषणने नीतिको कहकर
वेद और पुराणके संमत वाणी कही॥

पंडितो, पुराणो और वेदो द्वारा सम्मत (अनुमोदित)
वाणी से विभीषण ने नीति बखानकर कही।

जिसको सुनकर रावण गुस्सा होकर उठ खड़ा हुआ और बोला कि
हे दुष्ट! तेरी मृत्यु अब निकट आ गयी दीखती है॥

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जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥

हे नीच! सदा तू जीविका तो मेरी पाता है
(अर्थात् मेरे ही अन्न से पल रहा है) और
शत्रुका पक्ष तुझे अच्छा लगता है॥

हे दुष्ट! तू यह नही कहता कि
जिसको हमने अपने भुजबलसे नहीं जीता
ऐसा जगत्‌में कौन है? ॥

बता न, जगत् मे ऐसा कौन है,
जिसे मैने अपनी भुजाओ के बल से न जीता हो?

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मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

हे शठ (मुर्ख)!
मेरी नगरीमें रहकर जो तू तपस्वीसे प्रीति करता है तो हे नीच!
उससे जा मिल और उसीसे नीतिका उपदेश कर॥

ऐसे कहकर रावण ने उन्हे लात मारी,
परंतु इतने पर भी बिभीषणने तो बार-बार उसके चरण ही पकड़े॥

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उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

शिवजी कहते हैं, है पार्वती!
सत्पुरुषोंकी यही बड़ाई है कि
बुरा करनेवालों की भलाई ही सोचते है
और करते हैं॥

विभीषण ने कहा, हे रावण!
आप मेरे पिताके बराबर हो इस वास्ते
आपने जो मुझको मारा वह ठीक ही है,
परंतु आपका भला तो रामचन्द्रजीके भजन से ही होगा॥

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सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥

ऐसा कहकर बिभीषण अपने मंत्रियोंको संग लेकर
आकाश मार्ग मे गए और
जाते समय सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे॥

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दोहा – 41

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥41॥

कि हे रावण!
रामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ है,
सत्यसंकल्प एवं सर्वसमर्थ प्रभु है और
तेरी सभा कालके आधीन है।

और में अब रामचन्द्रजीके शरण जाता हूँ,
सो मुझको अपराध मत लगाना
मुझे दोष न देना॥41॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥

जिस वक़्त विभीषण ऐसे कहकर लंकासे चले
उसी समय तमाम राक्षस आयुहीन हो गये
(उनकी मृत्यु निश्र्चित हो गई)॥

महादेवजीने कहा कि हे पार्वती!
साधू पुरुषोकी अवज्ञा करनी ऐसी ही बुरी है कि
वह तुरंत तमाम कल्याणको नाश कर देती है॥

साधु का अपमान तुरन्त ही
संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है

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रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥

रावणने जिस समय बिभीषणका परित्याग किया
उसी क्षण वह अभागा, मंदभागी
वैभव अर्थात ऐश्र्वर्य से हीन हो गया॥

बिभीषण मनमें अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए
आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥

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देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥

विभीषण मनमें विचार करने लगे कि
आज जाकर मैं रघुनाथजीके चरण कमलो के दर्शन करूँगा।

कोमल और लाल वर्ण के सुन्दर चरण,
जो सेवको को सुख देने वाले है॥

कैसे हे चरणकमल कि जिनका स्पर्श पाकर
गौतम ऋषिकी पत्नी अहल्या तर गई (ऋषिके शापसे पार उतरी),
और जिनसे दंडक वन पवित्र हुआ है॥

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जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

जिनको सीताजी अपने हृदयमें सदा लगाये रहतीं है.
जो कपटी हरिण ( मारीच राक्षस) के पीछे दौड़े॥

रूप हृदयरूपी सरोवर भीतर कमलरूप हैं,
उन चरणोको जाकर मैं देखूंगा।
अहो! मेरा बड़ा भाग्य हे॥

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दोहा – 42

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥42॥

जिन चरणोकी पादुकाओमें भरतजी ने
रातदिन अपना मन लगा रखा है,
आज मैं जाकर इन्ही नेत्रोसे
उन चरणोंको देखूंगा ॥42॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण वानरसेना के पास पहुंचते है

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥

इस प्रकार प्रेमसहित अनेक प्रकारके विचार करते हुए
विभीषण तुरंत समुद्रके इस पार आए॥

वानरो ने विभीषण को आते देखा
तो जाना कि यह कोई शत्रुका दूत है॥

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ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥

वानर उनको वही रखकर सुग्रीवके पास आये और
जाकर उनके सब समाचार कह सुनाए॥

तब सुग्रीवने जाकर रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे प्रभु! रावणका भाई आपसे मिलने आया है॥

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कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥

तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुम्हारी क्या राय है (तुम क्या समझते हो)?

तब सुग्रीवने रामचन्द्रजीसे कहा कि
हे महाराज! सुनिए,॥

राक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती।
इसी वास्ते यह नहीं कह सकते कि
यह मनोवांछित रूप धरकर (इच्छानुसार रूप बदलने वाला)
यहां क्यों आया है?॥

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भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥

मेरे मनमें तो यह जँचता है कि
यह शठ हमारा भेद लेने को आया है।
इस वास्ते इसको बांधकर रख देना चाहिये॥

तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुमने यह नीति बहुत अच्छी विचारी,
परंतु मेरा प्रण शरणागतोंका भय मिटानेका है,
उनके भय को हर लेना है॥

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सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥

रामचन्द्रजीके वचन सुनकर हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ
और मन ही मन कहने लगे कि
भगवान् सच्चे शरणागतवत्सल हैं
(शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥

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दोहा – 43

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥

कहा है कि जो आदमी अपने अहितको विचार कर
(अपने अहित का अनुमान करके)
शरणागतको त्याग देते हैं,
उन मनुष्योको पामर (पागल) और पापरूप जानना चाहिये
क्योंकि उनको देखने ही से हानि होती है, पाप लगता है॥43॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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भगवान रामकी शरण में कौन जा सकता है

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

प्रभुने कहा कि चाहे कोई महापापी होवे
अर्थात् जिसको करोड़ों ब्रह्महत्याका पाप लगा हुआ हो और
वह भी यदि मेरे शरण चला आए,
तो भी मै उसको किसी कदर छोंड़ नहीं सकता,
शरण मे आने पर मै उसे भी नही त्यागता। ॥

यह जीव जब मेरे सन्मुख हो जाता है,
तब मैं उसके करोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कर देता हूं॥

जीव ज्यो ही मेरे सम्मुख होता है,
त्यो ही उसको करोड़ो जन्मो के पाप नष्ट हो जाते है।

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पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥

पापी पुरुषोंका यह सहज स्वभाव है कि
उनको किसी प्रकारसे मेरा भजन अच्छा नहीं लगता॥

हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह रावण का भाई) दुष्ट हृदय का होता
क्या वह मेरे सम्मुख आ सकेगा? कदापि नहीं॥

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निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥

हे सुग्रीव! जो आदमी निर्मल अंतःकरणवाला होगा,
वही मुझको पावेगा,
क्योंकि मुझको छल, छिद्र और कपट
कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥

कदाचित् रावणने इसको भेद लेनेके लिए भेजा होगा,
फिर भी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो कुछ भय है और
न किसी प्रकारकी हानि है॥

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जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥

क्योंकि जगत्‌में जितने राक्षस है,
उन सबोंको लक्ष्मण एक क्षणभरमें मार डालेगा॥

और उनमेंसे भयभीत होकर जो मेरे शरण आजायगा
उसको तो में अपने प्राणोंके बराबर रखूँगा॥

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दोहा – 44

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥

हँसकर कृपानिधान श्रीरामने कहा कि हे सुग्रीव!
चाहो वह शुद्ध मनसे आया हो
अथवा भेदबुद्धि विचारकर आया हो,
दोनो ही स्थितियों में उसको यहां ले आओ।

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर अंगद और हनुमान् आदि सब बानर
हे कृपालु! आपकी जय हो, ऐसे कहकर चले ॥44॥

तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीव जी
कपालु श्री राम जी की जय हो, कहते हुए चले।


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण को भगवान रामके दर्शन

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥

वे वानर आदरसहित विभीषणको अपने आगे लेकर
उस स्थानको चले कि जहां करुणानिधान
श्री रघुनाथजी विराजमान थे॥

विभीषणने नेत्रोंको आनन्द देनेवाले
उन दोनों भाइयोंको दूर ही से देखा॥

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बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥

फिर वह छविके धाम श्रीरामचन्द्रजीको देखकर
पलकोको रोककर एकटक देखते खड़े रहे॥

श्रीरघुनाथजीका स्वरूप कैसा है,
भगवान् की विशाल भुजाएँ है,
लाल कमल के समान नेत्र है,
मेघसा सधन श्याम शरीर है,
जो शरणागतोंके भयको मिटानेवाला है॥

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सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥

जिसके सिंहकेसे कंधे है,
विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) शोभायमान है,
मुख ऐसा है कि जिसकी छविको देखकर
असंख्य कामदेव मोहित हो जाते हैं॥

उस स्वरूपका दर्शन होतेही
विभीषणको नेत्रोंमें जल आ गया।
शरीर अत्यंत पुलकित हो गया,
तथापि उसने मनमें धीरज धरकर ये सुकोमल वचन कहे॥

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नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥

हे देवताओंके पालक!
मेरा राक्षसोंके वंशमें तो जन्म है और हे नाथ! मैं रावणका भाई॥

यह मेरा तामस शरीर है और
स्वभावसेही पाप मुझको प्रिय लगता है,
सो यह बात ऐसी है कि
जैसे उल्लूका अंधकारपर सदा स्नेह रहता है,
ऐसे मेरे पाप पर प्यार है॥

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दोहा – 45

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥

तथापि हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले!
मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ।

सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे,
हे दुखियो के दुःख दूर करने वाले,
हे शरणागतोंको सुख देनेवाले प्रभु!
मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥45॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥

ऐसे कहते हुए बिभीषणको दंडवत करते देखकर
प्रभु अत्यंत हर्षित होकर तुरन्त उठ खड़े हए॥

और बिभीषणके दीन वचन सुनकर प्रभुके मनमें वे बहुत भाए।
प्रभुने अपनी विशाल भुजासे उनको उठाकर अपनी छातीसे लगाया॥

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अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥

लक्ष्मण सहित प्रभुने उससे मिलकर उसको अपने पास बिठाया,
फिर भक्तोंके हित करनेवाले प्रभुने ये वचन कहे॥

कि हे लंकेश विभीषण! आपके परिवारसहित कुशल तो है?
क्योंकि आपका रहना कुमार्गियोंके बीचमें है॥

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खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥

रात दिन तुम दुष्टोंकी मंडलीके बीच रहते हो
इससे, हे सखा! आपका धर्म कैसे निभता होगा॥

मैने तुम्हारी सब गति (रीति, आचार-व्यवहार) जानता हूँ।
तुम बडे नीतिनिपुण हो और
तुम्हारा अभिप्राय अन्यायपर नहीं है (तुम्हें अनीति नहीं सुहाती)॥

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बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर विभीषणने कहा कि हे प्रभु!
चाहे नरकमें रहना अच्छा है, परंतु दुष्टकी संगति अच्छी नहीं.
इसलिये हे विधाता! कभी दुष्टकी संगति मत देना॥

हे रघुनाथजी!
आपने अपना सेवक जानकर जो मुझपर दया की,
उससे आपके दर्शन हुए।
हे प्रभु!
अब में आपके चरणोके दर्शन करनेसे कुशल हूँ॥

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दोहा – 46

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥46॥

हे प्रभु! यह मनुष्य जब तक शोकके धामरूप काम
अर्थात् लालसाको छोंड कर
श्री राम जी को नही भजता,
श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा नहीं करता,
तब तक इस जीवको स्वप्रमें भी न तो कुशल है और
न कहीं मनको विश्राम (शांति) है ॥46॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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भगवान् श्री राम की महिमा

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥

जब तक धनुष बाण धारण किये और
कमरमें तरकस कसे हुए श्रीरामचन्द्रजी
हृदयमें आकर नहीं बिराजते,
तब तक लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान
ये अनेक दुष्ट हृदयके भीतर निवास कर सकते हैं।

और जब श्री राम आकर हृदयमें विराजते है,
तब ये सारे विकार भाग जाते हैं॥

अनेको दुष्ट जैसे लोभ, मोह, मत्सर (द्वेष, ईर्ष्या, घृणा),
मद और मान आदि, तभी तक हृदय मे बसते है,
जब तक कि श्री रघुनाथ जी हृदय मे नही बसते।

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ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

जब तक जीवके हृदयमें
प्रभुका प्रताप रुपी सूर्य उदय नहीं होता,
तब तक रागद्वेषरूप उल्लुओं को सुख देनेवाली
अंधकारमय रात्रि रहा करती है॥

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अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

हे राम!
अब मैंने आपके चरणकमलोंका दर्शन कर लिया है,
इससे अब मैं कुशल हूं और मेरा
विकट भय भी निवृत्त हो गया है॥

हे प्रभु! हे दयालु!
आप जिसपर अनुकूल रहते हो
उसको तीन प्रकारके भय और दुःख
(आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप),
कभी नहीं व्यापते॥

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मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥

हे प्रभु! मैं जातिका राक्षस हूं।
मेरा स्वभाव अति अधम है।
मैंने कोईभी शुभ आचरन नहीं किया है॥

तिसपरभी प्रभुने कृपा करके आनंदसे मुझको छातीसे लगाया कि
जिस प्रभुके स्वरूपको ध्यान पाना मुनिलोगोंको कठिन है॥

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दोहा – 47

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥47॥

हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी!
आज मेरा भाग्य बड़ा अमित और अपार हैं,
मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है,
क्योकि ब्रह्माजी और महादेवजी
जिन चरणारविन्द-युगलकी (युगल चरण कमलों कि) सेवा करते हैं,
उन चरणकमलोंका मैंने अपने नेत्रोंसे दर्शन किया ॥47॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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प्रभु श्री रामचंद्रजी की महिमा

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥

बिभीषणकी भक्ति देखकर रामचन्द्रजीने कहा कि
हे सखा! सुनो, मै तुम्हे अपना स्वभाव कहता हूँ,
जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती है।

प्रभु कहते हैं कि
जो मनुष्य चराचरसे (जड़-चेतन) द्रोह रखता हो,
(कोई मनुष्य संपूर्ण ज़ड़ –चेतन जगत् का द्रोही हो),
और वह भयभीत होकर मेरे शरण आ जाए तो॥

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तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

मद, मोह, कपट और नानाप्रकारके छलको त्याग दे, तो हे सखा!
मैं उसको साधु पुरुषके समान कर देता हूँ॥

देखो, माता, पिता, बंधू, पुत्र, स्त्री,
शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार

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सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

इन सबके ममतारूप तागोंको इकट्ठा करके
एक सुन्दर डोरी बट (डोरी बनाकर) और
उससे अपने मनको मेरे चरणोंमें बांध दे।

अर्थात् सबमेंसे ममता छोड़कर केवल मुझमें ममता रखें,
जैसे, त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधूश्चा सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव॥

जो भक्त समदर्शी है और जिसके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं हे तथा
जिसके मनमें हर्ष, शोक, और भय नहीं है॥

Or

इस सबको ममत्व रूपी तागो में बटोरकर और
उन सबकी एक डोरी बनाकर
उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणो मे बाँध देता है।
(सारे सांसारिक संबंधो का केन्द्र मुझे बना लेता है),
जो समद्रशी है, जिसे कुछ इच्छा नही है और
जिसके मन मे हर्ष, शोक और भय नही है।

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अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

ऐसे सत्पुरुष मेरे हृदयमें कैसे रहते है
कि जैसे लोभी आदमीके मन में धन सदा बसा रहता है ॥

हे बिभीषण! तुम्हारे जैसे जो प्यारे सन्त भक्त हैं
उन्हीके लिए मैं देह धारण करता हूं और
दूसरा मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है॥

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दोहा – 48

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥48॥

जो लोग सगुण उपासना करते हैं, बड़े हितकारी हैं,
नीतिमें निरत है, नियममें दृढ़ है और
जिनकी ब्राह्मणोंके चरणकमलों में प्रीति है,
वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान प्यारे लगते हें ॥48॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम




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सुंदरकांड – 0५

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Sunderkand – 05

सुन्दरकाण्ड अर्थ सहित – 05


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विभीषण की भगवान् रामसे प्रार्थना

चौपाई

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥

हे लंकेश (लंकापति)! सुनो, आपमें सब गुण है और
इसीसे आप मुझको अत्यंत ही प्रिय हो॥

रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि
हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो,
कृपा के समूह, श्री राम जी की जय हो ॥

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सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥

ओर विभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ
उसको कर्णामृतरूप जानकर तृप्त नहीं होता था॥

और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर
ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥

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सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

विभीषणजी ने कहा –
हे देव!
चराचरसहित संसारके स्वामी (चराचर जगतके स्वामी)!
हे शरणागतोंके पालक (शरणागत के रक्षक)!
हे हृदयके अंतर्यामी (सबके हृदय के भीतर की जानने वाले)!
सुनिए॥

पहले मेरे जो कुछ वासना थी
वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥

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अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

हे कृपालू! अब आप दया करके
मुझको आपकी वह पावन करनहारी भक्ति दीजिए
कि जिसको महादेवजी सदा धारण करते हैं॥

रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर
तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥

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जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

और कहा कि हे सखा!
यद्यपि तेरे किसी बातकी इच्छा नहीं है
पर जगत् मे मेरा दर्शन अमोघ है, वह निष्फल नही जाता॥

ऐसे कहकर प्रभुने बिभीषणके राजतिलक कर दिया.
उस समय आकाशमेंसे अपार पुष्पोंकी वर्षा हुई॥

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दोहा – 49 A – B

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥

रावणका क्रोध तो अग्निके समान है और
उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है।
उससे जलते हुए विभीषणको बचाकर
प्रभुने उसको अखंड राज्य दिया ॥49(क)॥

महादेवने दश माथे देनेपर रावणको जो संपदा दी थी
(शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसो सिरो की बलि देने पर दी थी)
वह संपदा कम समझकर
रामचन्द्रजीने बिभीषणको सकुचते हुए दी ॥49(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥

ऐसे परम कृपालु प्रभुको छोड़कर
जो आदमी दूसरेको भजते हैं,
वे मनुष्य बिना सींग पूंछके पशु हैं॥

प्रभुने बिभीषणको अपना भक्त जानकर जो अपनाया,
यह प्रभुका स्वभाव सब वानरोंको अच्छा लगा॥

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पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥

प्रभु तो सदा सर्वत्र,
सबके घटमें रहनेवाले (सबके हृदय में बसनेवाले),
सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट),
सबसे रहित और सदा उदासीन ही हैं॥

राक्षसकुलके संहार करनेवाले, नीतिको पालनेवाले,
मायासे मनुष्यमूर्ति (कारण से भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए),
श्रीरामचन्द्रजीने सब मंत्रियोंसे कहा॥

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सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥

कि हे लंकेश (लंकापति विभीषण)! हे वानरराज! हे वीर पुरुषो सुनो,
अब इस गंभीर समुद्रको पार कैसे उतरें? वह युक्ति निकालो॥

क्योंकि यह समुद्र सर्प, मगर और
अनेक जातिकी मछलियोंसे व्याप्त हो रहा है,
बड़ा अथाह है,
इसीसे सब प्रकारसे मुझको तो कठिन मालूम होता है॥

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कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥

उस वक्त लंकेश अर्थात् विभीषणने कहा कि हे रघुनाथ! सुनो,
आपके बाण ऐसे हैं कि जिनसे करोडो समुद्र सूख जाए,
तब इस समुद्रका क्या भार है॥

तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि
पहले साम वचनोंसे काम लेना चाहिये,
इस वास्ते समुद्रके पास पधार कर आप विनती करो॥

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दोहा – 50

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥

बिभीषण कहता है कि हे प्रभु!
यह समुद्र आपका कुलगुरु है।
सो विचार कर अवश्य उपाय कहेगा और
तब रीछ और वानरो की सारी सेना
बिना परिश्रम के समुन्द्र के पार उतर जाएगी॥50॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

बिभीषणकी यह बात सुनकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा!
तुमने यह उपाय तो बहुत अच्छा बतलाया और
हम इस उपायको करेंगे भी,
परंतु यदि दैव सहाय होगा तो सफल होगा॥

यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लगी,
अतएव रामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणने बड़ा दुख पाया॥

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नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥

और लक्ष्मणने कहा कि हे नाथ!
दैवका क्या भरोसा है?
आप तो मनमें क्रोध लाकर समुद्रको सुखा दीजिये॥

दैवपर भरोसा रखना यह तो कायर पुरुषोंके मनका एक आधार है;
क्योंकि वेही आलसी लोग दैव करेगा सो होगा
ऐसा विचार कर दैव दैव करके पुकारते रहते हैं॥

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सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥

लक्ष्मणके ये वचन सुनकर प्रभुने हँसकर कहा कि
हे भाई! मैं ऐसे ही करूंगा पर तू मनमे कुछ धीरज धर॥

प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके समीप गए॥

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प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥

और प्रथमही प्रभुने जाकर समुद्रको प्रणाम किया और
फिर कुश बिछा कर उसके तटपर विराजे॥

जब बिभीषण रामचन्द्रजीके पास चला आया
तब पीछेसे रावणने अपना दूत भेजा॥

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दोहा – 51

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥

उस दूतने कपटसे वानरका रूप धरकर
वहांका तमाम हाल देखा.
और प्रभुका शरणागतोंपर अतिशय स्नेह देखकर
उसने अपने मनमें प्रभुके गुणोंकी बड़ी सराहना की ॥51॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का आना

चौपाई

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥

और देखते देखते प्रेम ऐसा बढ़ गया कि
वह (रावणदूत शुक) छिपाना भूल कर
रामचन्द्रजीके स्वभावकी प्रकटमें प्रशंसा करने लगा॥

जब वानरोने जाना कि यह शत्रुका दूत है
तब उसे बांधकर सुग्रीवके पास लाये॥

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कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥

सुग्रीवने देखकर कहा कि हे वानरो, सुनो,
इस राक्षस दुष्टको अंग-भंग करके भेज दो॥

सुग्रीवके ये वचन सुनकर सब वानर दौड़े,
फिर उसको बांध कर कटक (सेना) में चारों ओर घुमाया॥

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बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥

वानर उसको अनेक प्रकारसे मारने लगे और
वह अनेक प्रकारसे दीनकी भांति पुकारने लगा,
फिर भी वानरोंने उसको नहीं छोड़ा॥

तब उसने पुकार कर कहा कि
जो हमारी नाक कान काटते है
उनको श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ है॥

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सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥

सेनामें खरभर सुनकर लक्ष्मणने उसको अपने पास बुलाया और
दया आ जानेसे हँसकर लक्ष्मणने उसको छुड़ा दिया॥

एक पत्री लिख कर लक्ष्मणने उसको दी
और कहा कि यह पत्री रावणको देना और
उस कुलघातीकों कहना कि
ये लक्ष्मणके हित वचन (संदेसे को) पढ़ो॥

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दोहा – 52

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥52॥

और उस मूर्खसे मेरा बड़ा अपार सन्देशा
(उदार, कृपा से भरा हुआ) संदेश)
मुहँ सें भी कह देना कि
या तो तू सीताजीको देदे और
हमारे शरण आजा,
नही तो तेरा काल आया समझ ॥52॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना

चौपाई

तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥

लक्ष्मणके ये वचन सुन दूत तुरंत लक्ष्मणके चरणोंमें शिर झुका कर
रामचन्द्रजीके गुणोंकी प्रशंसा करता हुआ वह वहांसे चला॥

रामचन्द्रजीके यशकों गाता हुआ लंकामें आया.
रावणके पास जाकर उसने रावणके चरणोंमें प्रणाम किया॥

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बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥

उस समय रावणने हँसकर उससे पूंछा कि
हे शुक! अपनी कुशलताकी बात कहो॥

और फिर विभीषणकी कुशल कहो
कि जिसकी मृत्यु बहुत निकट आ गयी है॥

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करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥

उस शठने लंकाको राज करते करते छोड़ दिया
सो अब उस अभागेकी जौके घुनके (कीड़ा) समान दशा होगी,
अर्थात् जैसे जव पीसनेके साथ उसमेंका घुनभी पीस जाता है,
वैसे ही नर वानरो के साथ वह भी मारा जाएगा॥

फिर कहो कि रीछ और वानरोंकी सेना का हाल कह,
वह सेना कैसी और कितनी है,
कि जो कठिन कालकी प्रेरणासे यहाँ चली आई है॥

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जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥

हे शुक! अभी उनके जीवकी रक्षा करनेवाला
बिचारा कोमलहृदय समुद्र हुआ है।
(अर्थात उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता
तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते)।

और फिर उन तपस्वियोकी बात कहो,
जिनके ह्रदयमें मेरी बड़ी त्रास बैठ रही है (मेरा बड़ा डर है)॥

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दोहा – 53

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

हे शुक! क्या तेरी उनसे भेंट हुई?
क्या वे कानोंसे मेरी सुख्याति (सुयश) सुनकर पीछे लौट गए?

हे शुक! शत्रुके दलका तेज आर बल क्यों नहीं कहता?
तेरा चित्त चकित-सा (भौंचक्का-सा) कैसे हो रहा है? ॥53॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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दूत का रावण को समझाना

चौपाई

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥

रावणके ये वचन सुनकर शुकने कहा कि हे नाथ!
जैसे आप कृपा करके पूंछते हो
ऐसे ही क्रोधको त्यागकर जो वचन में कहूं उसको मानो॥
(क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए, मेरी बात पर विश्र्वास कीजिए)।

हे नाथ! जिस समय आपका भाई रामसे जाकर मिला
उसी क्षण रामने उसके राजतिलक कर दिया है॥

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रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥

मै वानरका रूप धरकर सेनाके भीतर घुसा,
सो फिरते फिरते वानरोंने जब मुझको आपका दूत जान लिया,
तब उन्होंने मुझको बांधकर अनेक प्रकारका दुःख दिया॥

और मेरी नाक कान काटने लगे,
तब मैंने उनको रामकी शपथ दी
तब उन्होंने मुझको छोड़ दिया॥

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पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥

हे नाथ! आप मुझको वानरोंकी सेनाके समाचार पूँछते हो
सो वे सौ करोड़ मुखोंसे तो कही नहीं जा सकती
(वर्णन नही की जा सकती)॥

हे रावण! रीछ और वानर अनेक रंग धारण किये
बड़े डरावने दीखते हैं, बड़े विकट उनके मुख हैं और
बड़े विशाल उनके शरीर हैं॥

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जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥

हे रावण! जिसने इस लंकाको जलाया था और
आपके पुत्र अक्षयकुमारको मारा था,
उस वानरका बल तो सब वानरों में थोड़ा है॥

उनके बीच कई नामी योद्धा है,
कि जो बड़े भयानक और बड़े कठोर हैं,
उनमे असंख्य हाथियो का बल है,
और जिनके विशाल व तेजस्वी शरीर हैं॥

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दोहा – 54

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥54॥

उनमें जो बड़े बड़े योद्धा हैं उनमेंसे कुछ नाम कहता हूँ सो सुनो –
द्विविद, मयन्द, नील, नल, अंगद, विकटास्य,
दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और
बलका पुंज जाम्बवान ॥54॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥

ए कपि सब सुग्रीव समाना – ये सब वानर बल मे सुग्रीव के समान है और इनके जैसे (एक-दो नही) करोड़ो है,

इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना – उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है।

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं – श्री राम जी की कृपा से उनमे अतुलनीय बल है।

तृन समान त्रेलोकहि गनहीं – वे तीनो लोको को तृण के समान तुच्छ समझते है॥1॥

भावार्थः- ये सब वानर सुग्रीवके समान बलवान हैं। इनके बराबर दूसरे करोड़ों वानर हैं, कौन गिन सकता है? ॥
रामचन्द्रजीकी कृपासे उनके बलकी कुछ तुलना नहीं है। वे उनके प्रभावसे त्रिलोकीको तृन (घास) के समान समझते हैं

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अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर – हे दसग्रीव! मैने कानो से ऐसा सुना है कि

पदुम अठारह जूथप बंदर – अठारह पद्द तो अकेले वानरो के सेनापति है।

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं – हे नाथ! उस सेना मे ऐसा कोई वानर नही है,

जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं – जो आपको रण मे न जीत सके॥2॥

भावार्थः- हे रावण! वहां मैं गिन तो नहीं सका परंनु कानोंसे ऐसा सुना था कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं॥
हे नाथ! उस कटकमें (सेना) ऐसा वानर एकभी नहीं है कि जो रणमें आपको जीत न सके॥

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परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा – सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते है।

आयसु पै न देहिं रघुनाथा – पर श्री रघुनाथ जी उन्हे आज्ञा नही देते।

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला – हम मछलियो और साँपो सहित समुन्द्र को सोख लेंगे।

पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला – नही तो बड़े-बड़े पर्वतो से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

भावार्थः- सब वानर बड़ा कोध करके हाथ मीजते हैं; परंतु बिचारे करें क्या? रामचन्द्रजी उनको आज्ञा नहीं देते॥ वे ऐसे बली है कि मछलियां और सर्पोंके साथ समुद्रको सुखा सकते हैं और नखोंसे विशाल पर्वतको चीर सकते है॥

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मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा – और रावण को मसलकर धूल मे मिला देंगे।

ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा – सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे है।

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका – सब सहज ही निडर है, इस प्रकार गरजते और डपटते है

मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका – मानो लंका को निगल ही जाना चाहते है॥4॥

भावार्थः- और सब वानर ऐसे वचन कहते हैं कि हम जाकर रावणको मार कर उसी क्षण धूल में मिला देंगे॥
वे स्वभावसेही निशंक है, सो बेधड़क गरजते है और तर्जते है. मानों वे अभी लंकाको ग्रसना (निगलना) चाहते है॥

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दोहा – 55

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥55॥

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम – सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर है फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्र्वर) श्री राम जी है।

रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम – हे रावण! वे संग्राम मे करोड़ो कालो को जीत सकते है॥55॥

भावार्थः- हे रावण! वे रीछ और वानर अव्वल तो स्वभावहीसे शूर-बीर हैं और तिसपर फिर श्रीरामचन्द्रजी सिर पर है। इसलिए हे रावण! वे करोड़ों कालों को भी संग्राममें जीत सकते हैं ॥55॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥

राम तेज बल बुधि बिपुलाई – श्री राम चन्द्र जी के तेज, बल और बुद्धि की अधिकता को

सेष सहस सत सकहिं न गाई – लाखो शेष भी नही गा सकते।

सक सर एक सोषि सत सागर – वे एक ही बाण से सैकड़ो समुद्रो को सोख सकते है,

तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर – परन्तु नीति निपुण श्री राम जी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

भावार्थः- रामचन्द्रजीके तेज, बल, और बुद्धिकी बढ़ाईको करोड़ों शेषजी भी गा नहीं सकते तब औरकी तो बातही कौन?॥ यद्यपि वे एक बाणसे सौ समुद्रकों सुखा सकते है परंतु आपका भाई बिभीषण नीतिमें परम निपुण है इसलिए श्री राम ने समुद्रका पार उतरनेके लिये आपके भाई विभीषणसे पूछा॥

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तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं – उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री राम जी) समुन्द्र से राह माँग रहे है,

मागत पंथ कृपा मन माहीं – उनके मन मे कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नही)

सुनत बचन बिहसा दससीसा – दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला –)

जौं असि मति सहाय कृत कीसा – जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरो को सहायक बनाया है॥2॥

भावार्थः- तब उसने सलाह दी कि पहले तो नरमीसे काम निकालना चाहिये और जो नरमीसे काम नहीं निकले तो पीछे तेजी करनी चाहिये॥ बिभीपणके ये वचन सुनकर श्री राम मनमें दया रखकर समुद्रके पास मार्ग मांगते है॥ दूतके ये वचन सुनकर रावण हँसा और बोला कि जिसकी ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरोंको तो सहाय बनाया है॥

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सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई – स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके

सागर सन ठानी मचलाई – उन्होने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है।

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई – अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है?

रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई – बस, मैने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

भावार्थः- और स्वभावसे डरपोंकके (विभीषण के) वचनोंपर दृढ़ता बांधी है तथा समुद्रसे अबोध बालककी तरह मचलना (बालहठ) ठाना है॥ हे मूर्ख! उसकी झूठी बड़ाई तू क्यों करता है? मैंने शत्रुके बल और बुद्धिकी थाह पा ली है॥

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सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें – जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मन्त्री हो,

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें – उसे जगतमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ?

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी – दुष्ट रावणके वचन सुनकर दूतको क्रोध बढ़ आया|

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी – उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली||4||

भावार्थः- जिसके डरपोंक बिभीषणसे मंत्री हैं उसके विजय और विभूति कहाँ? ॥ खल रावनके ये वचन सुनकर दूतको बड़ा क्रोध आया। इससे उसने अवसर जानकर लक्ष्मणके हाथकी पत्री निकाली॥

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रामानुज दीन्हीं यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥

रामानुज दीन्ही यह पाती – (और कहा) – श्री राम जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है।

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती – हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए।

बिहसि बाम कर लीन्ही रावन – रावण वे हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और

सचिव बोलि सठ लाग बचावन – मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बचाने लगा॥5॥

भावार्थः- और कहा कि यह पत्रिका रामके छोटे भाई लक्ष्मणने दी है। सो हे नाथ! इसको पढ़कर अपनी छातीको शीतल करो॥ रावणने हँसकर वह पत्रिका बाएं हाथमें ली और यह शठ (मूर्ख) अपने मंत्रियोंको बुलाकर पढाने लगा॥

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दोहा – 56 A

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥56(क)॥

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस – (पत्रिका मे लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातो से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-नष्ट न कर।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस – श्री राम जी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नही बचेगा॥56 क॥

भावार्थः- (पत्रिका में लिखा था -) हे शट (अरे मूर्ख)! तू बातोंसे मनको भले रिझा ले, हे कुलांतक! अपने कुलका नाश मत कर, रामचन्द्रजीसे विरोध करके विष्णु, ब्रह्मा और महेशके शरण जाने पर भी तू बच नही सकेगा॥56(क)॥

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दोहा – 56 B

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥56(ख)॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग – या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलो का भ्रमर बन जा।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग – अथवा रे दुष्ट! श्री राम जी के बाण रूपी अग्नि मे परिवान सहित पतिंगा हो जा (दोनो मे से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 ख॥

भावार्थः- तू अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाईके जैसे प्रभुके चरणकमलोंका भ्रमर होजा। अर्थात् रामचन्द्रजीके चरणोंका चेरा होजा। अरे खल! रामचन्द्रजीके बाणरूप आगमें तू कुलसहित पतंग मत हो, जैसे पतंग आगमें पड़कर जल जाता है ऐसे तू रामचन्द्रजीके बाणसे मृत्यु को मत प्राप्त हो ॥56(ख)॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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चौपाई

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई – पत्रिका सुनते ही रावण मन मे भयभीत हो गया, परन्तु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ

कहत दसानन सबहि सुनाई – वह सबको सुनाकर कहने लगा –

भूमि परा कर गहत अकासा – जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता है,

लघु तापस कर बाग बिलासा – वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

भावार्थः- ये अक्षर सुनकर रावण मनमें तो कुछ डरा, परंतु ऊपरसे हँसकर सबको सुनाके रावणने कहा॥
कि इस छोटे तपस्वीकी वाणीका विलास तो ऐसा है कि मानों पृथ्वीपर पड़ा हुआ आकाशको हाथसे पकड़े लेता है॥

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कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी – शुक (दूत) ने कहा – हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर

समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी – (इस पत्र मे लिखी) सब बातो को सत्य समझिए।

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा – क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए।

नाथ राम सन तजहु बिरोधा – हे नाथ! श्री राम जी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

भावार्थः- उस समय शुकने (दूत) कहा कि हे नाथ! यह वाणी सब सत्य है, सो आप स्वाभाविक अभिमानको छोड़कर समझ लों॥
हे नाथ! आप क्रोध तजकर मेरे वचन सुनो, और राम से जो विरोध बांध रक्खा है उसे छोड़ दो॥

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अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ – यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोको के स्वामी है,

जद्यपि अखिल लोक कर राऊ – पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है।

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही – मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और

उर अपराध न एकउ धरिही – आपका एक भी अपराध वे हृदय मे नही रखेंगे॥3॥

भावार्थः- यद्यपि वे राम सब लोकोंके स्वामी हैं तोभी उनका स्वभाव बड़ा ही कोमल है॥ आप जाकर उनसे मिलोगे तो मिलते ही वे आप पर कृपा करेंगे, आपके एकभी अपराधको वे दिलमें नही रक्खेंगे॥

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जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे – जानकी जी श्री रघुनाथ जी को दे दीजिए।

एतना कहा मोर प्रभु कीजे – हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए।

जब तेहिं कहा देन बैदेही – जब उस (दूत) ने जानकी जी को देने के लिए कहा,

चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही – तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

भावार्थः- हे प्रभु । एक इतना कहना तो मेरा भी मानो कि सीताको आप रामचन्द्रजीको दे दो॥
(शुकने कई बातें कहीं परंतु रावण कुछ नहीं बोला परंतु) जिस समय सीताको देनेकी बात कही उसी क्षण उस दुष्टने शुकको (दूतको) लात मारी॥

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नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ – वह भी (विभीषण की भाँति) चरणो मे सिर नवाकर नही चला,

कृपासिंधु रघुनायक जहाँ – जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथ जी थे।

करि प्रनामु निज कथा सुनाई – प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और

राम कृपाँ आपनि गति पाई – श्री राम जी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

भावार्थः- तब वह भी (विभीषण की भाँति) रावणके चरणोंमें शिर नमाकर वहां को चला कि जहां कृपाके सिंधु श्री रामचन्द्रजी विराजे थे॥
रामचन्द्रजी को प्रणाम करके उसने वहां की सब बात कही। तदनंतर वह राक्षस रामचन्द्रजीकी कृपासे अपनी गति अर्थात् मुनिशरीरको प्राप्त हुआ॥

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रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी – (शिवाजी कहते है) – हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था,

राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी – अगस्त्य ऋषि के शाप के राक्षस हो गया था।

बंदि राम पद बारहिं बारा – बार-बार श्री राम जी के चरणो की वंदना करके

मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा – वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

भावार्थः- महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वती! यह पूर्वजन्ममें बड़ा ज्ञानी मुनि था, सो अगस्त्य ऋषिके शापसे राक्षस हुआ था॥
यहां रामचन्द्रजीके चरणोको वारंवार नमस्कार करके फिर अपने आश्रमको गया॥

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

दोहा – 57

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥57॥

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति – इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड़ समुन्द्र विनय नही मानता।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति – तब श्री राम जी क्रोध सहित बोले – बिना भय के प्रीति नही होती!॥57॥

भावार्थः- जब जड़ समुद्रने विनयसे नहीं माना अर्थात् रामचन्द्रजीको दर्भासनपर बैठे तीन दिन बीत गये तब रामचन्द्रजीने क्रोध करके कहा कि भय बिना प्रीति नहीं होती ॥57॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

चौपाई

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥

लछिमन बान सरासन आनू – हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ,

सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू – मै अग्निबाण से समुन्द्र को सोख डालूँ।

सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती – मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति,

सहज कृपन सन सुंदर नीती – स्वाभाविक ही कंजूस से सुन्दर नीति (उदारता का उपदेश)॥1॥

भावार्थः- हे लक्ष्मण! धनुष बाण लाओ। क्योंकि अब इस समुद्रको बाणकी आगसे सुखाना होगा॥ देखो, इतनी बातें सब निष्फल जाती हैं। शठके पास विनय करना, कुटिल आदमीसे प्रीति रखना, स्वाभाविक कंजूस आदमीके पास सुन्दर नीतिका कहना॥

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ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥

ममता रत सन ग्यान कहानी – ममता मे फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा,

अति लोभी सन बिरति बखानी – अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन,

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा – क्रोधी से शम (शांति) की बात और कामी से भगवान् की कथा,

ऊसर बीज बएँ फल जथा – इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर मे बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर मे बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

भावार्थः- ममतासे भरे हुए जनके पास ज्ञानकी बात कहना, अतिलोभीके पास वैराग्यका प्रसंग चलाना॥ क्रोधीके पास समताका उपदेश करना, कामी (लंपट) के पास भगवानकी कथाका प्रसंग चलाना और ऊसर भूमिमें बीज बोना ये सब बराबर है॥

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अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा – ऐसा कहकर श्री रघुनाथ जी ने धनुष चढ़ाया।

यह मत लछिमन के मन भावा – यह मत लक्ष्मण जी के मन को बहुत अच्छा लगा।

संघानेउ प्रभु बिसिख कराला – प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया,

उठी उदधि उर अंतर ज्वाला – जिससे समुन्द्र के हृदय के अंदर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

भावार्थः- ऐसे कहकर रामचन्द्रजीने अपना धनुष चढ़ाया। यह रामचन्द्रजीका मत लक्ष्मणके मनको बहुत अच्छा लगा॥ प्रभुने इधर तो धनुषमें विकराल बाणका सन्धान किया और उधर समुद्रके हृदयके बीच संतापकी ज्वाला उठी॥

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मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

मकर उरग झष गन अकुलाने – मगर, साँप तथा मछलियो के समूह व्याकुल हो गए।

जरत जंतु जलनिधि जब जाने – जब समुन्द्र ने जीवो को जलते जाना,

कनक थार भरि मनि गन नाना – तब सोने के थाल मे अनेक मणियो (रत्नो) को भरकर

बिप्र रूप आयउ तजि माना – अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप मे आया॥4॥

भावार्थः- मगर, सांप, और मछलियां घबरायीं और समुद्रने जाना कि अब तो जलजन्तु जलने है॥ तब वह मानको तज, ब्राह्मणका स्वरूप धर, हाथमें अनेक मणियोंसे भरा हुआ कंचनका थार ले बाहर आया॥

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दोहा – 58

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच – (काकभुशुण्डि जी कहते है –) हे गुरूड़ जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ो उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है।

बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच – नीच विनय से नही मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

भावार्थः- काकभुशुंडिने कहा कि हे गरुड़! देखा, केला काटनेसेही फलता है। चाहो दूसरे करोडों उपाय करलो और ख़ूब सींच लो, परंतु बिना काटे नहीं फलता। ऐसेही नीच आदमी विनय करनेसे नहीं मानता किंतु डाटने से ही नमता है ॥58॥

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समुद्र की श्री राम से विनती

चौपाई

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे – समुन्द्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा –

छमहु नाथ सब अवगुन मेरे – हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए।

गगन समीर अनल जल धरनी – हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी –

इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी – इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है॥1॥

भावार्थः- समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़े और प्रभुसे प्रार्थना की कि हे प्रभु मेरे सब अपराध क्षमा करो॥
हे नाथ! आकाश, पवन, अग्रि, जल, और पृथ्वी इनकी करणी स्वभावहीसे जड़ है॥

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तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए – आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हे सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है,

सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए – सब ग्रंथो ने यही गाया है।

प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई – जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है,

सो तेहि भाँति रहे सुख लहई – वह उसी प्रकार से रहने मे सुख पाता है॥2॥

भावार्थः- और सृष्टिके निमित्त आपकीही प्रेरणासे मायासे ये प्रकट हुए है, सो यह बात सब ग्रंथोंमें प्रसिद्ध हे॥ हे प्रभु! जिसको स्वामीकी जैसी आज्ञा होती है वह उसी तरह रहता है तो सुख पाता है॥

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प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही – प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी,

मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही – किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।

ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी – ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री –

सकल ताड़ना के अधिकारी – ये सब शिक्षा के अधिकारी है॥3॥

भावार्थः- हे प्रभु! आपने जो मुझको शिक्षा दी, यह बहुत अच्छा किया; परंतु मर्यादा तो सब आपकी ही बांधी हुई है॥

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प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई – प्रभु के प्रताप से मै सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी,

उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई – इसमे मेरी बड़ाई नही है (मेरी मर्यादा नही रहेगी)।

प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई – तथापि प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नही हो सकता) ऐसा वेद गाते है।

करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई – अब आपको जो अच्छा लगे, मै तुरन्त वही करूँ॥4॥

भावार्थः- हे प्रभु! मैं आपके प्रतापसे सूख जाऊंगा और उससे कटक भी पार उतर जाएगा। परंतु इसमें मेरी महिमा घट जायगी॥
और प्रभुकी आज्ञा अपेल (अर्थात अनुल्लंघनीय – आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) है। सो यह बात वेदमें गायी है। अब जो आपको जचे वही आज्ञा देवें सो मै उसके अनुसार शीघ्र करूं॥

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दोहा – 59

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ – समुन्द्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री राम जी ने मुस्कुराकर कहा –

जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ – हे तात! जिस प्रकार वानरो की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥

भावार्थः- समुद्रके ऐसे अतिविनीत वचन सुनकर, मुस्कुरा कर, प्रभुने कहा कि हे तात! जैसे यह हमारा वानरका कटक पार उतर जाय वैसा उपाय करो ॥59॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम

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चौपाई

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई – (समुन्द्र ने कहा –) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई है।

लरिकाई रिषि आसिष पाई – उन्होने लड़कपन मे ऋषि से आशीर्वाद पाया था।

तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे – उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी

तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे – आपके प्रताप से समुन्द्र पर तैर जाएँगे॥1॥

भावार्थः- रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर समुद्रने कहा कि हे नाथ! नील और नल ये दोनों भाई है। नलको बचपनमें ऋषियोंसे आशीर्वाद मिला हुआ है॥ इस कारण हे प्रभु! नलका छुआ हुआ भारी पर्वत भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जाएगा॥ (नील और नल दोनो बचपनमें खेला करते थे। सो ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर जिस समय मुनिलोग शालग्रामजीकी पूजा कर आख मूंद ध्यानमें बैठते थे, तब ये शालग्रामजीको लेकर समुद्रमें फेंक देते थे। इससे ऋषियोंने शाप दिया कि नलका डाला हूआ पत्थर नहीं डुबेंगा। सो वही शाप इसके वास्ते आशीर्वादात्मक हुआ।)

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मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥

मैं पुनि उर धरि प्रभुताई – मै भी प्रभु की प्रभुता को हृदय मे धारण कर

करिहउँ बल अनुमान सहाई – अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा।

एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ – हे नाथ! इस प्रकार समुन्द्र को बँधाइए,

जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ – जिससे तीनो लोको मे आपका सुन्दर यश गाया जाए॥2॥

भावार्थः- हे प्रभु! मुझसे जो कुछ बन सकेगा वह अपने बलके अनुसार आपकी प्रभुताकों हदयमें रखकर मै भी सहाय करूंगा॥ हे नाथ! इस तरह आप समुद्रमें सेतु बांध दीजिये कि जिसको विद्यमान देखकर त्रिलोकीमें लोग आपके सुयशको गाते रहेंगे॥

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एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥

एहि सर मम उत्तर तट बासी – इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले

हतहु नाथ खल नर अघ रासी – पाप के राशि दुष्ट मनुष्यो का वध कीजिए।

सुनि कृपाल सागर मन पीरा – कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुन्द्र के मन की पीड़ा सुनकर

तुरतहिं हरी राम रनधीरा – उसे तुरन्त ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टो का बध कर दिया)॥3॥

भावार्थः- हे नाथ! इसी बाणसे आप मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके पुंज दुष्टोंका संहार करो॥ ऐसे दयालु रणधीर श्रीरामचन्द्रजीने सागरके मनकी पीड़ा को जानकर उसको तुरंत हर लिया॥

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देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥

देखि राम बल पौरुष भारी – श्री रामजी का भारी बल और पौरूष देखकर

हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी – समुन्द्र हर्षित होकर सुखी हो गया।

सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा – उसने उन दुष्टो का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया।

चरन बंदि पाथोधि सिधावा – फिर चरणो की वंदना करके समुन्द्र चला गया॥4॥

भावार्थः- समुद्र रामचन्द्रजीके अपरिमित (अपार) बलको देखकर आनंदपूर्वक सुखी हुआ॥ समुद्रने सारा हाल रामचन्द्रजीको कह सुनाया, फिर चरणोंको प्रणाम कर अपने धामको सिधारा॥

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छन्द

छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ – समुन्द्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथ जी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा।

यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ – यह चरित्र कलियुग के पापो को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।॥1॥

सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना – श्री रघुनाथ जी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले है।

तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना – अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हे गा और सुन।॥2॥

भावार्थः- समुद्र तो ऐसे प्रार्थना करके अपने घरको गया। रामचन्द्रजीके भी मनमें यह समुद्रकी सलाह भा गयी। तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग के पापों को हरनेवाला यह रामचन्द्रजीका चरित मेरी जैसी बुद्धि है वैसा मैंने गाया है; क्योंकि रामचन्द्रजीके गुणगाण (गुणसमूह) ऐसे हैं कि वे सुखके तो धाम हैं, संशयके मिटानेवाले है और विषाद (रंज) को शांत करनेवाले है सो जिनका मन पवित्र है और जो सज्जन पुरुष है, वे उन चरित्रोंको सब आशा और सब भरोसोंको छोड़ कर गाते हैं और सुनते हैं॥

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दोहा – 60

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥60॥

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान – श्री रघुनाथ जी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलो का देने वाला है।

सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान – जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

भावार्थः- सर्व प्रकारके सुमंगल देनेवाले रामचन्द्रजीके गुणोंका जो मनुष्य गान करते है और आदरसहित सुनते हैं वे लोग संसारसमुद्रको बिना नाव पार उतर जाते हें ॥60॥


श्री राम, जय राम, जय जय राम


इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः – कलियुग के समस्त पापो का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।



सुंदरकांड पाठ – सुंदरकांड चौपाई


Sunderkand Path – Sunderkand Chaupai

सुंदरकांड के इस पेज में, सुंदरकांड पाठ के लिए सिर्फ चौपाइयां दी गयी हैं।

सुन्दरकांड में 526 चौपाइयाँ, 60 दोहे, 6 छंद और 3 श्लोक है। सुन्दरकांड में 5 से 7 चौपाइयों के बाद 1 दोहा आता है।

सुन्दरकाण्ड की चौपाइयों को अर्थ सहित पढ़ने के लिए, सुंदरकांड सरल अर्थ सहित पेज देखें – लिंक को क्लिक करें –

सुंदरकांड सरल अर्थ सहित


सुंदरकांड पाठ

चौपाई

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई॥


जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥


सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी॥


जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥


जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥

दोहा – 1

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीकी सुरसा से भेंट

चौपाई

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥


आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥


तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥


जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥


जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥


बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥


दोहा – 2

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंट

चौपाई

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥


गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥


ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥


हनुमानजी लंका पहुंचे

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥


उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥


अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा॥


लंका का वर्णन

छंद – Sunderkand Lyrics

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥


बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥


करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥


दोहा – 3

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की लंकिनी से भेंट

चौपाई

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥


जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥


पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥


बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥


दोहा – 4

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का लंका में प्रवेश

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥


गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥


हनुमानजी की लंका में सीताजी की खोज

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥


सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥


दोहा – 5

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥5॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की विभीषण से भेंट

चौपाई

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥


राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥


बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रणाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥


की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥


दोहा – 6

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥6॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥


तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥


जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥


कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥


दोहा – 7

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥


पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥


जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥


देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रणामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥


दोहा – 8

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥


बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥


तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥


सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥


सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥


दोहा – 9

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी॥


स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥


चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा॥


सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥


मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥


दोहा – 10

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥10॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

त्रिजटा का स्वप्न

चौपाई

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना॥


सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥


एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥


यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं॥


दोहा – 11

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सीताजी और त्रिजटा का संवाद

चौपाई

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥


आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥


सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥


कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥


पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका॥


नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता॥


दोहा – 12

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥12॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान सीताजी से मिले

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥


जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥


रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥


श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥


राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥


नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥


दोहा – 13

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥


अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥


सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥


बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥


मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥


दोहा – 14

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

चौपाई

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥


कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥


कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥


सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥


कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥


दोहा – 15

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम


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सुंदरकांड पाठ – सुंदरकांड चौपाई – 2

सुंदरकांड सरल अर्थ सहित


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Sunderkand Path – Sunderkand Chaupai – 2

Sunderkand in Hindi

सुंदरकांड पाठ – सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड


Sunderkand Path – Sampoorna Sunderkand

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सुन्दरकांड में 526 चौपाइयाँ, 60 दोहे, 6 छंद और 3 श्लोक है। सुन्दरकांड में 5 से 7 चौपाइयों के बाद 1 दोहा आता है।

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सुंदरकांड सरल अर्थ सहित


सुंदरकांड पाठ

चौपाई

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥

दोहा – 1

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीकी सुरसा से भेंट

चौपाई

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥

तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥

दोहा – 2

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंट

चौपाई

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा॥

लंका का वर्णन

छंद

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥

दोहा – 3

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की लंकिनी से भेंट

चौपाई

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥

दोहा – 4

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का लंका में प्रवेश

चौपाई

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥

हनुमानजी की लंका में सीताजी की खोज

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥

सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥

दोहा – 5

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥5॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की विभीषण से भेंट

चौपाई

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रणाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥

दोहा – 6

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥6॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

दोहा – 7

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रणामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥

दोहा – 8

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

दोहा – 9

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी॥

स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥

चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा॥

सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥

मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥

दोहा – 10

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥10॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

त्रिजटा का स्वप्न

चौपाई

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना॥

सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥

यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

दोहा – 11

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सीताजी और त्रिजटा का संवाद

चौपाई

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥

आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥

पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

दोहा – 12

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥12॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान सीताजी से मिले

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥

दोहा – 13

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया

चौपाई

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

दोहा – 14

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

चौपाई

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

दोहा – 15

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सीताजीके मन में संदेह

चौपाई

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरुथ कहँ जातुधान की॥

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥

मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥

सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

दोहा – 16

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥16॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सिताजीने हनुमानको आशीर्वाद दिया

चौपाई

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥

बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥

दोहा – 17

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥17॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका विध्वंस और अक्षय कुमार का वध

चौपाई

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥

दोहा – 18

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥18॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का मेघनाद से युद्ध

चौपाई

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥

चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥

अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

दोहा – 19

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले गया

चौपाई

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥

जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

दोहा – 20

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥

दोहा

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

दोहा

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

दोहा

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण ने हनुमानजी की पूँछ जलाने का हुक्म दिया

चौपाई

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

दोहा

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

राक्षसोंने हनुमानजी की पूँछ में आग लगा दी

चौपाई

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥

रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरूप तुरंता॥

निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥

दोहा

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥25॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी ने लंका जलाई

चौपाई

देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥

तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥

साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥

दोहा

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥26॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी लंकासे लौटने से पहले सीताजी से मिले

चौपाई

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ सम संकट भारी॥

तात सक्रसुत कथा सनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥

दोहा

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥27॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना

चौपाई

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥

(राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता। धाय धाय कापी मिले तुरन्ता।।
हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे। उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले।।)

हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥

मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥

तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥

दोहा

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी सुग्रीव से मिले

चौपाई

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥

आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥

दोहा

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले

चौपाई

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥

सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी।।)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥

दोहा

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने रामचन्द्रजी को सीताजी का सन्देश दिया

चौपाई

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥

अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥

दोहा

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रामचन्द्रजी और हनुमान का संवाद

चौपाई

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥

दोहा

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम और हनुमानजी का संवाद

चौपाई

बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥

सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥

कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥

साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥

दोहा

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम और हनुमानजी का संवाद

चौपाई

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥

अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥

दोहा

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना

चौपाई

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥

राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥

जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥

नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥

छंद

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥

छंद

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥

दोहा

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मंदोदरी और रावण का संवाद

चौपाई

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥

जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥

रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥

समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥

दोहा

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण और मंदोदरी का संवाद

चौपाई

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥

जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं॥

दोहा

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥37॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का रावण को समझाना

चौपाई

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥

जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥

चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

दोहा

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥38॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का रावण को समझाना

चौपाई

तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥

दोहा

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥39(क)॥

दोहा

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥39(ख)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण और माल्यावान का रावण को समझाना

चौपाई

माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥

दोहा

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥40॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का अपमान

चौपाई

बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥

दोहा

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥41॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

चौपाई

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥

जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥

दोहा

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥42॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

चौपाई

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥

कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥

भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥

दोहा

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥

जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥

दोहा

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥

सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥

दोहा

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥

खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥

बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥

दोहा

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥46॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

भगवान् श्री राम की महिमा

चौपाई

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥

ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥

दोहा

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥47॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

प्रभु श्री रामचंद्रजी की महिमा

चौपाई

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥

तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

दोहा

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥48॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण की भगवान् श्रो रामसे प्रार्थना

चौपाई

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

दोहा

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥

दोहा

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥

सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥

कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥

दोहा

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई

सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥

नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावणदूत शुक का आना

दोहा

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावणदूत शुक का आना

चौपाई

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥

दोहा

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥52॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना

चौपाई

तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥

बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥

करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥

दोहा

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दूत का रावण को समझाना

चौपाई

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥

रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥

पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥

दोहा

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥54॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥

दोहा

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥55॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥

रामानुज दीन्हीं यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥

दोहा

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥56(क)॥

दोहा

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥56(ख)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

चौपाई

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥

कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥

जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

दोहा

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥57॥

चौपाई

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥

ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥

मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥

दोहा

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र की श्री राम से विनती

चौपाई

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥

तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥

दोहा

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥

चौपाई

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥

एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥

देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥

दोहा

छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥

दोहा

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥60॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।

श्री राम, जय राम, जय जय राम



सुंदरकांड सरल अर्थ सहित

Sunderkand in Hindi

Sunderkand Path – Sunderkand Chaupai – 02


Sunderkand Path – Sunderkand Chaupai – 02

सुंदरकांड के इस पेज में, सुंदरकांड पाठ के लिए सिर्फ चौपाइयां दी गयी हैं।

सुन्दरकाण्ड की चौपाइयों को अर्थ सहित पढ़ने के लिए, सुंदरकांड सरल अर्थ सहित पेज देखें – लिंक को क्लिक करें –

सुंदरकांड सरल अर्थ सहित


सुंदरकांड पाठ – 02 (दोहा 15 से आगे)

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सीताजीके मन में संदेह

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरुथ कहँ जातुधान की॥


अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥


निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥


मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥


सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥16॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सिताजीने हनुमानको आशीर्वाद दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥


अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥


बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥


सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥


तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥17॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका विध्वंस और अक्षय कुमार का वध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥


नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥


सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥


पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥18॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का मेघनाद से युद्ध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥


चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥


अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥


तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥


उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

दोहा (Doha – Sunderkand)

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले गया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥


जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥


कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥


कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥


मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥


जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥


धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥


खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥


खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥


जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥


बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥


जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥


राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥


राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥


सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण ने हनुमानजी की पूँछ जलाने का हुक्म दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥


मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥


सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥


नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥


सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

राक्षसोंने हनुमानजी की पूँछ में आग लगा दी

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥


बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥


रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥


बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरूप तुरंता॥


निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥25॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी ने लंका जलाई

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥


तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥


साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥


ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥26॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी लंकासे लौटने से पहले सीताजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥


कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ सम संकट भारी॥


तात सक्रसुत कथा सनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥


कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥27॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥


(राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता। धाय धाय कापी मिले तुरन्ता।।
हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे। उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले।।)


हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥


मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥


तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी सुग्रीव से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥


आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥


नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥


राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥


सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥


नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी।।)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥


सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम


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