भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 8


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नामकरण-संस्कार और बाललीला

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! यदुवंशियोंके कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी।

वे बड़े तपस्वी थे।

वसुदेवजीकी प्रेरणासे वे एक दिन नन्दबाबाके गोकुलमें आये।।१।।

उन्हें देखकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई।

वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए।

उनके चरणोंमें प्रणाम किया।

इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान् ही हैं’ – इस भावसे उनकी पूजा की।।२।।

जब गर्गाचार्यजी आरामसे बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबाने बड़ी ही मधुर वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और कहा – ‘भगवन्! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ?।।३।।

आप-जैसे महात्माओंका हमारे-जैसे गृहस्थोंके घर आ जाना ही हमारे परम कल्याणका कारण है।

हम तो घरोंमें इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचोंमें हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रमतक जा भी नहीं सकते।

हमारे कल्याणके सिवा आपके आगमनका और कोई हेतु नहीं है।।४।।

प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियोंकी पहुँचके बाहर है अथवा भूत और भविष्यके गर्भमें निहित है, वह भी ज्यौतिष-शास्त्रके द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है।

आपने उसी ज्यौतिष-शास्त्रकी रचना की है।।५।।

आप ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं।

इसलिये मेरे इन दोनों बालकोंके नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्मसे ही मनुष्यमात्रका गुरु है’।।६।।

गर्गाचार्यजीने कहा – नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियोंके आचार्यके रूपमें प्रसिद्ध हूँ।

यदि मैं तुम्हारे पुत्रके संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकीका पुत्र है।।७।।

कंसकी बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है।

वसुदेवजीके साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है।

जबसे देवकीकी कन्यासे उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकीके आठवें गर्भसे कन्याका जन्म नहीं होना चाहिये।

यदि मैं तुम्हारे पुत्रका संस्कार कर दूँ और वह इस बालकको वसुदेवजीका लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा।।८-९।।

नन्दबाबाने कहा – आचार्यजी! आप चुपचाप इस एकान्त गोशालामें केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालकका द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र कर दीजिये।

औरोंकी कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बातको न जानने पावें।।१०।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – गर्गाचार्यजी तो संस्कार करना चाहते ही थे।

जब नन्दबाबाने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्तमें छिपकर गुप्तरूपसे दोनों बालकोंका नामकरण-संस्कार कर दिया।।११।।

गर्गाचार्यजीने कहा – ‘यह रोहिणीका पुत्र है।

इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय।

यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रोंको अपने गुणोंसे अत्यन्त आनन्दित करेगा।

इसलिये इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’।

इसके बलकी कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी है।

यह यादवोंमें और तुमलोगोंमें कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगोंमें फूट पड़नेपर मेल करावेगा, इसलिये इसका एक नाम ‘संकर्षण’ भी है।।१२।।

और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है।

पिछले युगोंमें इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत – ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे।

अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है।

इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा।।१३।।

नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजीके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग इसे ‘श्रीमान् वासुदेव’ भी कहते हैं।।१४।।

तुम्हारे पुत्रके और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं।

इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं।

मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परन्तु संसारके साधारण लोग नहीं जानते।।१५।।

यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा।

समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा।

इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे।।१६।।

व्रजराज! पहले युगकी बात है।

एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था।

डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी।

तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की।।१७।।

जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशुसे प्रेम करते हैं।

वे बड़े भाग्यवान् हैं।

जैसे विष्णुभगवान् के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतर या बाहर किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते।।१८।।

नन्दजी! चाहे जिस दृष्टिसे देखें – गुणमें, सम्पत्ति और सौन्दर्यमें, कीर्ति और प्रभावमें तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान् नारायणके समान है।

तुम बड़ी सावधानी और तत्परतासे इसकी रक्षा करो’।।१९।।

इस प्रकार नन्दबाबाको भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्यजी अपने आश्रमको लौट गये।

जनकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ा ही आनन्द हुआ।

उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ।।२०।।

परीक्षित्! कुछ ही दिनोंमें राम और श्याम घुटनों और हाथोंके बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुलमें खेलने लगे।।२१।।

दोनों भाई अपने नन्हे-नन्हे पाँवोंको गोकुलकी कीचड़में घसीटते हुए चलते।

उस समय उनके पाँव और कमरके घुँघरू रुनझुन बजने लगते।

वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता।

वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते।

कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्तिके पीछे हो लेते।

फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओं – रोहिणीजी और यशोदाजीके पास लौट आते।।२२।।

माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेहसे भर जातीं।

उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगती थी।

जब उनके दोनों नन्हे-नन्हे-से शिशु अपने शरीरमें कीचड़का अंगराग लगाकर लौटते, तब जनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी।

माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथोंसे गोदमें लेकर हृदयसे लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीचमें मुसकरा-मुसकराकर अपनी माताओंकी ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दँतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्दके समुद्रमें डूबने-उतराने लगतीं।।२३।।

जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब व्रजमें घरके बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं।

जब वे किसी बैठे हुए बछड़ेकी पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी जोरसे पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगते।

गोपियाँ अपने घरका काम-धंधा छोड़कर यही सब देखती रहतीं और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आनन्दमें मग्न हो जातीं।।२४।।

कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चंचल और बड़े खिलाड़ी थे।

वे कहीं हरिन, गाय आदि सींगवाले पशुओंके पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आगसे खेलनेके लिये कूद पड़ते।

कभी दाँतसे काटनेवाले कुत्तोंके पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते।

कभी कूएँ या गड्ढेके पास जलमें गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियोंके निकट चले जाते और कभी काँटोंकी ओर बढ़ जाते थे।

माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु उनकी एक न चलती।

ऐसी स्थितिमें वे घरका काम-धंधा भी नहीं सँभाल पातीं।

उनका चित्त बच्चोंको भयकी वस्तुओंसे बचानेकी चिन्तासे अत्यन्त चंचल रहता था।।२५।।

राजर्षे! कुछ ही दिनोंमें यशोदा और रोहिणीके लाड़ले लाल घुटनोंका सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुलमें चलने-फिरने लगे*।।२६।।

ये व्रजवासियोंके कन्हैया स्वयं भगवान् हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्रके ग्वालबालोंको अपने साथ लेकर खेलनेके लिये व्रजमें निकल पड़ते और व्रजकी भाग्यवती गोपियोंको निहाल करते हुए तरह-तरहके खेल खेलते।।२७।।

उनके बचपनकी चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं।

गोपियोंको तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं।

एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्द-बाबाके घर आयीं और यशोदा माताको सुना-सुनाकर कन्हैयाके करतूत कहने लगीं।।२८।।

‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है।

गाय दुहनेका समय न होनेपर भी यह बछड़ोंको खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है।

यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है।

केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरोंको बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जानेपर नहीं खा पाते, तब यह हमारे माटोंको ही फोड़ डालता है।

यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालोंपर बहुत खीझता है और हमारे बच्चोंको रुलाकर भाग जाता है।।२९।।

जब हम दही-दूधको छीकोंपर रख देती हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँतक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है।

कहीं दो-चार पीढ़ोंको एकके ऊपर एक रख देता है।

कहीं ऊखलपर चढ़ जाता है तो कहीं ऊखलपर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो अपने किसी साथीके कंधेपर ही चढ़ जाता है।) जब इतनेपर भी काम नहीं चलता, तब यह नीचेसे ही उन बर्तनोंमें छेद कर देता है।

इसे इस बातकी पक्की पहचान रहती है कि किस छीकेपर किस बर्तनमें क्या रखा है।

और ऐसे ढंगसे छेद करना जानता है कि किसीको पतातक न चले।

जब हम अपनी वस्तुओंको बहुत अँधेरेमें छिपा देती हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत-से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाशसे अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है।

इसके शरीरमें भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है।

यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घरके काम-धंधोंमें उलझी रहती हैं, तब यह अपना काम बना लेता है।।३०।।

ऐसा करके भी ढिठाईकी बातें करता है – उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घरका मालिक बन जाता है।

इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरोंमें मूत्र आदि भी कर देता है।

तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहती जातीं और श्रीकृष्णके भीत-चकित नेत्रोंसे युक्त मुखकमलको देखती जातीं।

उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मनका भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदयमें स्नेह और आनन्दकी बाढ़ आ जाती।

वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैयाको इस बातका उलाहना भी न दे पातीं, डाँटनेकी बाततक नहीं सोच पातीं*।।३१।।

एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्णके साथ खेल रहे थे।

उन लोगोंने मा यशोदाके पास आकर कहा – ‘मा! कन्हैयाने मिट्टी खायी है’*।।३२।।

हितैषिणी यशोदाने श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया†।

उस समय श्रीकृष्णकी आँखें डरके मारे नाच रही थीं‡।

यशोदा मैयाने डाँटकर कहा – ।।३३।।

‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है।

तूने अकेलेमें छिपकर मिट्टी क्यों खायी? देख तो तेरे दलके तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हींकी ओरसे गवाही दे रहे हैं’।।३४।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – ‘मा! मैंने मिट्टी नहीं खायी।

ये सब झूठ बक रहे हैं।

यदि तुम इन्हींकी बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखोंसे देख लो।।३५।।

यशोदाजीने कहा – ‘अच्छी बात।

यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माताके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपना मुँह खोल दिया*।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका ऐश्वर्य अनन्त है।

वे केवल लीलाके लिये ही मनुष्यके बालक बने हुए हैं।।३६।।

यशोदाजीने देखा कि उनके मुँहमें चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है।

आकाश (वह शून्य जिसमें किसीकी गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रोंके सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारोंके साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियोंके चलने-फिरनेका आकाश), वैकारिक अहंकारके कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्णके मुखमें दीख पड़े।।३७-३८।।

परीक्षित्! जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदिके द्वारा विभिन्न रूपोंमें दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजीने श्रीकृष्णके नन्हेसे खुले हुए मुखमें देखा।

वे बड़ी शंकामें पड़ गयीं।।३९।।

वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान् की माया? कहीं मेरी बुद्धिमें ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालकमें ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो’।।४०।।

‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणीके द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमतासे अनुमानके विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्तासे ही इसकी प्रतीति होती है, जिनका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है – उन प्रभुको मैं प्रणाम करती हूँ।।४१।।

यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराजकी समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैं – जिनकी मायासे मुझे इस प्रकारकी कुमति घेरे हुए है, वे भगवान् ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं – मैं उन्हींकी शरणमें हूँ’।।४२।।

जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्णका तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक प्रभुने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमायाका उनके हृदयमें संचार कर दिया।।४३।।

यशोदाजीको तुरंत वह घटना भूल गयी।

उन्होंने अपने दुलारे लालको गोदमें उठा लिया।

जैसे पहले उनके हृदयमें प्रेमका समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा।।४४।।

सारे वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्म्यका गीत गाते-गाते अघाते नहीं – उन्हीं भगवान् को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थीं।।४५।।

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! नन्दबाबाने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मंगलमय साधन किया था? और परमभाग्यवती यशोदाजीने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुखसे उनका स्तनपान किया।।४६।।

भगवान् श्रीकृष्णकी वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदिको छिपाकर ग्वालबालोंमें करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करनेवाले लोगोंके भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं।

त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं।

वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेवजीको तो देखनेतकको न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं।

इसका क्या कारण है?।।४७।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित्! नन्दबाबा पूर्वजन्ममें एक श्रेष्ठ वसु थे।

उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नीका नाम था धरा।

उन्होंने ब्रह्माजीके आदेशोंका पालन करनेकी इच्छासे उनसे कहा – ।।४८।।

‘भगवन्! जब हम पृथ्वीपर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो – जिस भक्तिके द्वारा संसारमें लोग अनायास ही दुर्गतियोंको पार कर जाते हैं’।।४९।।

ब्रह्माजीने कहा – ‘ऐसा ही होगा।’ वे ही परमयशस्वी भगवन्मय द्रोण व्रजमें पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द।

और वे ही धरा इस जन्ममें यशोदाके नामसे उनकी पत्नी हुईं।।५०।।

परीक्षित्! अब इस जन्ममें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले भगवान् उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियोंकी अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजीका उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ।।५१।।

ब्रह्माजीकी बात सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ व्रजमें रहकर समस्त व्रजवासियोंको अपनी बाल-लीलासे आनन्दित करने लगे।।५२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विश्वरूपदर्शनेऽष्टमोऽध्यायः।।८।।

* जब श्यामसुन्दर घुटनोंका सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घरमें अनेकों प्रकारकी कौतुकमयी लीला करने लगे – शून्ये चोरयतः स्वयं निजगृहे हैयंगवीनं मणिस्तम्भे स्वप्रतिबिम्बमीक्षितवतस्तेनैव सार्द्धं भिया।

भ्रातर्मा वद मातरं मम समो भागस्तवापीहितो भुङ् क्ष्वेत्यालपतो हरेः कलवचो मात्रा रहः श्रूयते।।

एक दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्रीकन्हैयालालजी अपने सूने घरमें स्वयं ही माखन चुरा रहे थे।

उनकी दृष्टि मणिके खम्भेमें पड़े हुए अपने प्रतिविम्बपर पड़ी।

अब तो वे डर गये।

अपने प्रतिविम्बसे बोले – ‘अरे भैया! मेरी मैयासे कहियो मत।

तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा।

खा ले, भैया!’ यशोदा माता अपने लालाकी तोतली बोली सुन रही थीं।

उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घरमें भीतर घुस आयीं।

माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी – मातः क एष नवनीतमिदं त्वदीयं लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्टः।

मद्वारणं न मनुते मयि रोषभाजि रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभः।।

‘मैया! मैया! यह कौन है? लोभवश तुम्हारा माखन चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है।

मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है।

मैया! तुम कुछ और मत सोचना।

मेरे मनमें माखनका तनिक भी लोभ नहीं है।’ अपने दुध-मुँहे शिशुकी प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेहके आनन्दमें मग्न हो गयीं।

एक दिन श्यामसुन्दर माताके बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे।

इतनेमें ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं – कृष्ण! क्वासि करोषि किं पितरिति श्रुत्वैव मातुर्वचः साशंकं नवनीतचौर्यविरतो विश्रभ्य तामब्रवीत्।

मातः कंकणपद्मरागमहसा पाणिर्ममातप्यते तेनायं नवनीतभाण्डविवरे विन्यस्य निर्वापितः।।

‘कन्हैया! कन्हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, क्या कर रहा है?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये।

फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले – ‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकणमें पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था।

इसीसे मैंने इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था।’ माता यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा!’ ऐसा कहकर लालाको गोदमें उठा लिया और प्यारसे चूमने लगीं।

क्षुण्णाभ्यां करकुड् मलेन विगलद्वाष्पाम्बुदृग्भ्यां रुदन् हुं हुं हूमिति रुद्धकण्ठकुहरादस्पष्टवाग्विभ्रमः।

मात्रासौ नवनीतचौर्यकुतुके प्राग्भर्त्सितः स्वांचलेनामृज्यास्य मुखं तवैतदखिलं वत्सेति कण्ठे कृतः।।

एक दिन माताने माखनचोरी करनेपर श्यामसुन्दरको धमकाया, डाँटा-फटकारा।

बस, दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी।

कर-कमलसे आँखें मलने लगे।

ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे।

गला रुँध गया।

मुँहसे बोला नहीं जाता था।

बस, माता यशोदाका धैर्य टूट गया।

अपने आँचलसे अपने लाला कन्हैयाका मुँह पोंछा और बड़े प्यारसे गले लगाकर बोलीं – ‘लाला! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है।’ एक दिनकी बात है – पूर्णचन्द्रकी चाँदनीसे मणिमय आँगन धुल गया था।

यशोदा मैयाके साथ गोपियोंकी गोष्ठी जुड़ रही थी।

वहीं खेलते-खेलते कृष्णचन्द्रकी दृष्टि चन्द्रमापर पड़ी।

उन्होंने पीछेसे आकर यशोदा मैयाका घूँघट उतार लिया।

और अपने कोमल करोंसे उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे।

‘मैं लूँगा, मैं लुँगा’ – तोतली बोलीसे इतना ही कहते।

जब मैयाकी समझमें बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहार्द्र दृष्टिसे पास बैठी ग्वालिनोंकी ओर देखा।

अब वे विनयसे, प्यारसे फुसलाकर श्रीकृष्णको अपने पास ले आयीं और बोलीं – ‘लालन! तुम क्या चाहते हो, दूध!’ श्रीकृष्ण-‘ना’।

‘क्या बढ़िया दही?’ ‘ना’।

‘क्या खुरचन?’ ‘ना’।

‘मलाई?’ ‘ना’।

‘ताजा माखन? ‘ना’ ग्वालिनोंने कहा – ‘बेटा! रूठो मत, रोओ मत।

जो माँगोगे सो देंगी।’ श्रीकृष्णने धीरेसे कहा – ‘घरकी वस्तु नहीं चाहिये’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमाकी ओर संकेत कर दिया।

गोपियाँ बोलीं – ‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखनका लौंदा थोड़े ही है? हाय! हाय! हम यह कैसे देंगी? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाशके सरोवरमें तैर रहा है।’ श्रीकृष्णने कहा – ‘मैं भी तो खेलनेके लिये इस हंसको ही माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो।

पार जानेके पूर्व ही मुझे ला दो।’ अब और भी मचल गये।

धरतीपर पाँव पीट-पीटकर और हाथोंसे गला पकड़-पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहलेसे भी अधिक रोने लगे।

दूसरी गोपियोंने कहा – ‘बेटा! राम-राम।

इन्होंने तुमको बहला दिया है।

यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाशमें ही रहनेवाला चन्द्रमा है।’ श्रीकृष्ण हठ कर बैठे – ‘मुझे तो यही दो; मेरे मनमें इसके साथ खेलनेकी बड़ी लालसा है।

अभी दो, अभी दो।

‘जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माताने गोदमें उठा लिया और प्यार करके बोलीं – ‘मेरे प्राण! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा।

है यह माखन ही, परन्तु तुमको देने योग्य नहीं है।

देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है।

इससे बढ़िया होनेपर भी इसे कोई नहीं खाता है।’ श्रीकृष्णने कहा – ‘मैया! मैया! इसमें विष कैसे लग गया।’ बात बदल गयी।

मैयाने गोदमें लेकर मधुर-मधुर स्वरसे कथा सुनाना प्रारम्भ किया।

मा-बेटेमें प्रश्नोत्तर होने लगे।

यशोदा – ‘लाला! एक क्षीरसागर है।’ श्रीकृष्ण – ‘मैया! वह कैसा है।’ यशोदा – ‘बेटा! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसीका एक समुद्र है।’ श्रीकृष्ण – ‘मैया! कितनी गायोंने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा।

यशोदा – ‘कन्हैया! वह गायका दूध नहीं है।’ श्रीकृष्ण – ‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बिना गायके दूध कैसे?’ यशोदा – ‘वत्स! जिसने गायोंमें दूध बनाया है, वह गायके बिना भी दूध बना सकता है।’ श्रीकृष्ण – ‘मैया! वह कौन है?’ यशोदा – ‘वह भगवान् हैं; परन्तु अग (उनके पास कोई जा नहीं सकता।

अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’ श्रीकृष्ण – ‘अच्छा ठीक है, आगे कहो।’ यशोदा – ‘एक बार देवता और दैत्योंमें लड़ाई हुई।

असुरोंको मोहित करनेके लिये भगवान् ने क्षीरसागरको मथा।

मंदराचलकी रई बनी।

वासुकि नागकी रस्सी।

एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव।’ श्रीकृष्ण – ‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया?’ यशोदा – ‘हाँ बेटा! उसीसे कालकूट नामका विष पैदा हुआ।’ श्रीकृष्ण – ‘मैया! विष तो साँपोंमें होता है, दूधमें कैसे निकला?’ यशोदा – ‘बेटा! जब शंकर भगवान् ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरतीपर गिर पड़ीं, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये।

सो बेटा! भगवान् की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूधमेंसे विष निकला।’ श्रीकृष्ण – ‘अच्छा मैया! यह तो ठीक है।’ यशोदा – ‘बेटा! (चन्द्रमाकी ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसीसे निकला है।

इसलिये थोड़ा-सा विष इसमें भी लग गया।

देखो, देखो, इसीको लोग कलंक कहते हैं।

सो मेरे प्राण! तुम घरका ही मक्खन खाओ।’ कथा सुनते-सुनते श्यामसुन्दरकी आँखोंमें नींद आ गयी और मैयाने उन्हें पलंगपर सुला दिया।

* भगवान् की लीलापर विचार करते समय यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान् का लीलाधाम, भगवान् के लीलापात्र, भगवान् का लीलाशरीर और उनकी लीला प्राकृत नहीं होती।

भगवान् में देह-देहीका भेद नहीं है।

महाभारतमें आया है – न भूतसंघसंस्थानो देवस्य परमात्मनः।

यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः।।

स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः।

मुखं तस्यावलोक्यापि सचैलः स्नानमाचरेत्।।

‘परमात्माका शरीर भूतसमुदायसे बना हुआ नहीं होता।

जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्माके शरीरको भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मोंसे बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्ममें अधिकार नहीं है।

यहाँतक कि उसका मुँह देखनेपर भी सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये।’ श्रीमद्भागवतमें ही ब्रह्माजीने भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कहा है – अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।

‘आपने मुझपर कृपा करनेके लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरूप प्रकट किया है, यह पांचभौतिक कदापि नहीं है।’ इससे यह स्पष्ट है कि भगवान् का सभी कुछ अप्राकृत होता है।

इसी प्रकार यह माखनचोरीकी लीला भी अप्राकृत – दिव्य ही है।

यदि भगवान् के नित्य परम धाममें अभिन्नरूपसे नित्य निवास करनेवाली नित्यसिद्धा गोपियोंकी दृष्टिसे न देखकर केवल साधनसिद्धा गोपियोंकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रेमरसमय भगवान् उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचानेके लिये माखनचोरीकी लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीरहरण करके उनका रहा-सहा व्यवधानका परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं है।

भगवान् की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियोंके अतिरिक्त बहुत-सी ऐसी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधनाके फलस्वरूप भगवान् की मुक्तजन-वांछित सेवा करनेके लिये गोपियोंके रूपमें अवतीर्ण हुई थीं।

उनमेंसे कुछ पूर्वजन्मकी देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन।

इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणोंमें मिलती हैं।

श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो ‘नेति-नेति’के द्वारा निरन्तर परमात्माका वर्णन करते रहनेपर भी उन्हें साक्षात्-रूपसे-प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियोंके साथ भगवान् के दिव्य रसमय विहारकी बात जानकर गोपियोंकी उपासना करती हैं और अन्तमें स्वयं गोपीरूपमें परिणत होकर भगवान् श्रीकृष्णको साक्षात् अपने प्रियतमरूपसे प्राप्त करती हैं।

इनमें मुख्य श्रुतियोंके नाम हैं – उद् गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपंची आदि।

भगवान् के श्रीरामावतारमें उन्हें देखकर मुग्ध होनेवाले – अपने-आपको उनके स्वरूप-सौन्दर्यपर न्योछावर कर देनेवाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करनेका वर दिया था, व्रजमें गोपीरूपसे अवतीर्ण हुए थे।

इसके अतिरिक्त मिथिलाकी गोपी, कोसलकी गोपी, अयोध्याकी गोपी – पुलिन्दगोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदिकी गोपियाँ और जालन्धरी गोपी आदि गोपियोंके अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान् से वरदान पाकर गोपीरूपमें अवतीर्ण होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

पद्मपुराणके पातालखण्डमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंका वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पोंके बाद गोपीस्वरूपको प्राप्त किया था।

उनमेंसे कुछके नाम निम्नलिखित हैं – १. एक उग्रतपा नामके ऋषि थे।

वे अग्निहोत्री और बड़े दृढ़व्रती थे।

उनकी तपस्या अद् भुत थी।

उन्होंने पंचदशाक्षर-मन्त्रका जाप और रासोन्मत्त नवकिशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका ध्यान किया था।

सौ कल्पोंके बाद वे सुनन्द नामक गोपकी कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।

२. एक सत्यतपा नामके मुनि थे।

वे सूखे पत्तोंपर रहकर दशाक्षरमन्त्रका जाप और श्रीराधाजीके दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करते थे।

दस कल्पके बाद वे सुभद्र नामक गोपकी कन्या ‘सुभद्रा’ हुए।

३. हरिधामा नामके एक ऋषि थे।

वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीजसे युक्त विंशाक्षरी मन्त्रका जाप करते थे और माधवीमण्डपमें कोमल-कोमल पत्तोंकी शय्यापर लेटे हुए युगल-सरकारका ध्यान करते थे।

तीन कल्पके पश्चात् वे सारंग नामक गोपके घर ‘रंगवेणी’ नामसे अवतीर्ण हुए।

४. जाबालि नामके एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वनमें विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी।

उस बावलीके पश्चिम तटपर बड़के नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी।

वह बड़ी सुन्दर थी।

चन्द्रमाकी शुभ्र किरणोंके समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी।

उसका बायाँ हाथ अपनी कमरपर था और दाहिने हाथसे वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी।

जाबालिके बड़ी नम्रताके साथ पूछनेपर उस तापसीने बतलाया – ब्रह्मविद्याहमतुला योगीन्द्रैर्या च मृग्यते।

साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः।।

ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधीः।

चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम्।।

तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना।।

‘मैं वह ब्रह्मविद्या हूँ, जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढ़ा करते हैं।

मैं श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी प्राप्तिके लिये इस घोर वनमें उन पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई दीर्घकालसे तपस्या कर रही हूँ।

मैं ब्रह्मानन्दसे परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्दसे परितृप्त है।

परन्तु श्रीकृष्णका प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपनेको शून्य देखती हूँ।’ ब्रह्मज्ञानी जाबालिने उसके चरणोंपर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रजवीथियोंमें विहरनेवाले भगवान् का ध्यान करते हुए वे एक पैरसे खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे।

नौ कल्पोंके बाद प्रचण्ड नामक गोपके घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूपमें प्रकट हुए।

५. कुशध्वज नामक ब्रह्मर्षिके पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्त्वज्ञ थे।

उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्रका जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्षकी उम्रके भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए घोर तपस्या की।

कल्पके बाद वे व्रजमें सुधीर नामक गोपके घर उत्पन्न हुए।

इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियोंके पूर्वजन्मकी कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभयसे उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया।

भगवान् के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगनके साथ कल्पोंतक साधना करके जिन त्यागी भगवत्प्रेमियोंने गोपियोंका तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये, उन्हें आनन्द-दान देनेके लिये यदि भगवान् उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचारकी कौन-सी बात है? रासलीलाके प्रसंगमें स्वयं भगवान् ने श्रीगोपियोंसे कहा है – न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।

या माभजन् दुर्जरगेहशृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।

(१०।३२।२२) ‘गोपियो! तुमने लोक और परलोकके सारे बन्धनोंको काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममेंसे प्रत्येकके लिये अलग-अलग अनन्त कालतक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेमका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता।

मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा।

तुम मुझे अपने साधुस्वभावसे ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो।

यही उत्तम है।’ सर्वलोकमहेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभागा गोपियोंके ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होनेसे पूर्व ही भगवान् पूर्ण कर दें – यह तो स्वाभाविक ही है।

भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरसभावितमति गोपियोंके मनकी क्या स्थिति थी।

गोपियोंका तन, मन, धन – सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्णका था।

वे संसारमें जीती थीं श्रीकृष्णके लिये, घरमें रहती थीं श्रीकृष्णके लिये और घरके सारे काम करती थीं श्रीकृष्णके लिये।

उनकी निर्मल और योगीन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धिमें श्रीकृष्णके सिवा अपना कुछ था ही नहीं।

श्रीकृष्णके लिये ही, श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये ही, श्रीकृष्णकी निज सामग्रीसे ही श्रीकृष्णको पूजकर – श्रीकृष्णको सुखी देखकर वे सुखी होती थीं।

प्रातःकाल निद्रा टूटनेके समयसे लेकर रातको सोनेतक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये ही करती थीं।

यहाँतक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्णमें ही होती थी।

स्वप्न और सुषुप्ति दोनोंमें ही वे श्रीकृष्णकी मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं।

रातको दही जमाते समय श्यामसुन्दरकी माधुरी छबिका ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्णके लिये उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीकेपर रखूँ, जितनेपर श्रीकृष्णके हाथ आसानीसे पहुँच सकें।

फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओंको साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घरमें पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बंदरोंको लुटायें, आनन्दमें मत्त होकर मेरे आँगनमें नाचें और मैं किसी कोनेमें छिपकर इस लीलाको अपनी आँखोंसे देखकर जीवनको सफल करूँ और फिर अचानक ही पकड़कर हृदयसे लगा लूँ।

सूरदासजीने गाया है – मैया री, मोहि माखन भावै।

जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै।।

ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्यामकी बात।

मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात।।

बैठैं जाइ मथनियाँकें ढिग, मैं तब रहौं छपानी।

सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी।।

एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, ‘मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवानके लिये कहती है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं।’ वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दरकी बात सुन रही थी।

उसने मन-ही-मन कामना की – ‘मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानीके पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी?’ प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपीके मनकी जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया – ‘गये स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर।

’ उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी।

सूरदासजी गाते हैं – फूली फिरति ग्वालि मनमें री।

पूछति सखी परस्पर बातैं पायो पर् यौ कछू कहुँ तैं री?।।

पुलकित रोम-रोम, गदगद मुख बानी कहत न आवै।

ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यों न सुनावै।।

तन न्यारा, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप।

सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप।।

वह खुशीसे छककर फूली-फूली फिरने लगी।

आनन्द उसके हृदयमें समा नहीं रहा था।

सहेलियोंने पूछा – ‘अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या?’ वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी।

उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद् गद हो गयी, मुँहसे बोली नहीं निकली।

सखियोंने कहा – ‘सखि! ऐसी क्या बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है – हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं।

भला, हमसे छिपानेकी कौन सी बात है?’ तब उसके मुँहसे इतना ही निकला – ‘मैंने आज अनूप रूप देखा है।’ बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेमके आँसू बहने लगे! सभी गोपियोंकी यही दशा थी।

ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात।

दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात।।

ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं।

माखन खात अचानक पावैं, भुज भरि उरहिं छुपावैं।।

मनहीं मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान।

सूरदास प्रभु कौं घरमें लै, दैहों माखन खान।।

चली ब्रज घर-घरनि यह बात।

नंद-सुत, सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात।।

कोउ कहति, मेरे भवन भीतर, अबहिं पैठे धाइ।

कोउ कहति मोहिं देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ।।

कोउ कहति, किहिं भाँति हरिकौं, देखौं अपने धाम।

हेरि माखन देउँ आछौ, खाइ जितनौ स्याम।।

कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवार।

कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवार।।

सूर प्रभुके मिलन कारन, करति बिबिध बिचार।

जोरि कर बिधि कौं मनावति पुरुष नंदकुमार।।

रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होनेकी बाट देखतीं।

उनका मन श्रीकृष्णमें लगा रहता।

प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीकेपर रखतीं; कहीं प्राणधन आकर लौट न जायँ, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दरकी प्रतीक्षामें व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं – ‘हा! आज प्राणप्रियतम क्यों नहीं आये? इतनी देर क्यों हो गयी? क्या आज इस दासीका घर पवित्र न करेंगे? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखनका भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे? कहीं यशोदा मैयाने तो उन्हें नहीं रोक लिया? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं।

माखनकी क्या कमी है।

मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!’ इन्हीं विचारोंमें आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षणमें दौड़कर दरवाजेपर जाती, लाज छोड़कर रास्तेकी ओर देखती, सखियोंसे पूछती।

एक-एक निमेष उसके लिये युगके समान हो जाता! ऐसी भाग्यवती गोपियोंकी मनःकामना भगवान् उनके घर पधारकर पूर्ण करते।

सूरदासजीने गाया है – प्रथम करी हरि माखन-चोरी।

ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी।।

मनमें यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ।

गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकैं माखन खाउँ।।

बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग।

सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं ये मेरे ब्रज लोग।।

अपने निजजन व्रजवासियोंको सुखी करनेके लिये ही तो भगवान् गोकुलमें पधारे थे।

माखन तो नन्दबाबाके घरपर कम न था।

लाख-लाख गौएँ थीं।

वे चाहे जितना खाते-लुटाते।

परन्तु वे तो केवल नन्दबाबाके ही नहीं; सभी व्रजवासियोंके अपने थे, सभीको सुख देना चाहते थे।

गोपियोंकी लालसा पूरी करनेके लिये ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते।

यह वास्तवमें चोरी नहीं, यह तो गोपियोंकी पूजा-पद्धतिका भगवान् के द्वारा स्वीकार था।

भक्तवत्सल भगवान् भक्तकी पूजा स्वीकार कैसे न करें? भगवान् की इस दिव्यलीला – माखनचोरीका रहस्य न जाननेके कारण ही कुछ लोग इसे आदर्शके विपरीत बतलाते हैं।

उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है।

चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरेकी कोई चीज, उसकी इच्छाके बिना, उसके अनजानमें और आगे भी वह जान न पाये – ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है।

भगवान् श्रीकृष्ण गोपियोंके घरसे माखन लेते थे उनकी इच्छासे, गोपियोंके अनजानमें नहीं – उनकी जानमें, उनके देखते-देखते और आगे जनानेकी कोई बात ही नहीं – उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे।

दूसरी बात महत्त्वकी यह है कि संसारमें या संसारके बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान् की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं।

गोपियोंका तो सर्वस्व श्रीभगवान् का था ही, सारा जगत् ही उनका है।

वे भला, किसकी चोरी कर सकते हैं? हाँ, चोर तो वास्तवमें वे लोग हैं, जो भगवान् की वस्तुको अपनी मानकर ममता-आसक्तिमें फँसे रहते हैं और दण्डके पात्र बनते हैं।

उपर्युक्त सभी दृष्टियोंसे यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान् की दिव्य लीला थी।

असलमें गोपियोंने प्रेमकी अधिकतासे ही भगवान् का प्रेमका नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही।

जो लोग भगवान् श्रीकृष्णको भगवान् नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवतमें वर्णित भगवान् की लीलापर विचार करनेका कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टिसे भी इस प्रसंगमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं है।

क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्षके बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेहके कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं।

आशा है, इससे शंका करनेवालोंको कुछ सन्तोष होगा।

– हनुमानप्रसाद पोद्दार * मृद्-भक्षणके हेतु – १ – भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्त्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं।

उसके लिये थोड़ा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।

२ – संस्कृत-साहित्यमें पृथ्वीका एक नाम ‘क्षमा’ भी है।

श्रीकृष्णने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलने हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं।

उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।

३ – संस्कृत-भाषामें पृथ्वीको ‘रसा’ भी कहते हैं।

श्रीकृष्णने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रसका आस्वादन करूँ।

४ – इस अवतारमें पृथ्वीका हित करना है।

इसलिये उसका कुछ अंश अपने मुख्य (मुखमें स्थित) द्विजों (दाँतों) को पहले दान कर लेना चाहिये।

५ – ब्राह्मण शुद्ध सात्त्विक कर्ममें लग रहे हैं, अब उन्हें असुरोंका संहार करनेके लिये कुछ राजस कर्म भी करने चाहिये।

यही सूचित करनेके लिये मानो उन्होंने अपने मुखमें स्थित द्विजोंको (दाँतोंको) रजसे युक्त किया।

६ – पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।

७ – पहले गोपियोंका मक्खन खाया था, उलाहना देनेपर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।

८ – भगवान् श्रीकृष्णके उदरमें रहनेवाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंके जीव व्रज-रज – गोपियोंके चरणोंकी रज – प्राप्त करनेके लिये व्याकुल हो रहे थे।

उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये भगवान् ने मिट्टी खायी।

९ – भगवान् स्वयं ही अपने भक्तोंकी चरण-रज मुखके द्वारा अपने हृदयमें धारण करते हैं।

१० – छोटे बालक स्वभावसे ही मिट्टी खा लिया करते हैं।

† यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथने मिट्टी खानेमें सहायता की है।

चोरका सहायक भी चोर ही है।

इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।

‡ भगवान् के नेत्रमें सूर्य और चन्द्रमाका निवास है।

वे कर्मके साक्षी हैं।

उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे।

अब हमारा कर्तव्य क्या है।

इसी भावको सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।

* १ – मा! मिट्टी खानेके सम्बन्धमें ये मुझ अकेलेका ही नाम ले रहे हैं।

मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुखमें सम्पूर्ण विश्व! २ – श्रीकृष्णने विचार किया कि उस दिन मेरे मुखमें विश्व देखकर माताने अपने नेत्र बंद कर लिये थे।

आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी।

इस विचारसे मुख खोल दिया।


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