<< भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 56
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स्यमन्तक-हरण, शतधन्वाका उद्धार और अक्रूरजीको फिरसे द्वारका बुलाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णको इस बातका पता था कि लाक्षागृहकी आगसे पाण्डवोंका बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समयका कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजीके साथ हस्तिनापुर गये।।१।।
वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदना – सहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे – ‘हाय-हाय! यह तो बड़े ही दुःखकी बात हुई’।।२।।
भगवान् श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्माको अवसर मिल गया।
उन लोगोंने शतधन्वासे आकर कहा – ‘तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते?।।३।।
सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामाका विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगोंका तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है।
अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय?’।।४।।
शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी।
अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित् को मार डाला।।५।।
इस समय स्त्रियाँ अनाथके समान रोने-चिल्लाने लगीं; परन्तु शतधन्वाने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओंकी हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँसे चम्पत हो गया।।६।।
सत्यभामाजीको यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’ – इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं।
बीच-बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं।।७।।
इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शवको तेलके कड़ाहेमें रखवा दिया और आप हस्तिनापुरको गयीं।
उन्होंने बड़े दुःखसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनाया – यद्यपि इन बातोंको भगवान् श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे।।८।।
परीक्षित्! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी!’।।९।।
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे।।१०।।
जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी।
तब कृतवर्माने कहा – ।।११।।
‘भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्व-शक्तिमान् ईश्वर हैं।
मैं उनका सामना नहीं कर सकता।
भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोकमें सकुशल रह सके?।।१२।।
तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मीको खो बैठा और अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया।
जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदानमें हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था’।।१३।।
जब कृतवर्माने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की।
उन्होंने कहा – ‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान् का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने।
जो भगवान् खेल-खेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं – इस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामें – जब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ।
उनके कर्म अद् भुत हैं।
वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं।
मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’।।१४-१७।।
जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने स्यमन्तक-मणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा।।१८।।
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे।
अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वाका पीछा किया।।१९।।
मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वाका घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा।
वह अत्यन्त भयभीत हो गया था।
भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े।।२०।।
शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान् ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा।।२१।।
परन्तु जब मणि मिली नहीं तब भगवान् श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा – ‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा।
क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’।।२२।।
बलरामजीने कहा – ‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है।
अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ।।२३।।
मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित्! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये।।२४।।
जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया।
उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की।।२५।।
इसके बाद भगवान् बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे।
महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा।
इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की।।२६।।
अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली।।२७।।
इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित् की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है।।२८।।
अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित् के वधके लिये उत्तेजित किया था।
इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए।।२९।।
परीक्षित्! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर द्वारकावासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा।
दैविक और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा।
परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको भूल जाते हैं।
भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान् श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय।।३०-३१।।
उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा – ‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था।
तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी।
तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई।
अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है।
इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित्! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान् ने सोचा कि ‘इस उपद्रवका यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवान् ने दूत भेजकर अक्रूरजीको ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की।।३२-३४।।
भगवान् ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया।
परीक्षित्! भगवान् सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं।
इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा – ।।३५।।
‘चाचाजी! आप दान-धर्मके पालक हैं।
हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है।।३६।।
आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है।
इसलिये उनकी लड़कीके लड़के – उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे।।३७।।
इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे।
क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है।
परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते।।३८।।
इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्र – बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका संचार कीजिये।
हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं’।।३९।।
परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्णको दे दी।।४०।।
भगवान् श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुनः अक्रूरजीको लौटा दिया।।४१।।
सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकोंका मार्जन करनेवाला तथा परम मंगलमय है।
जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकारकी अपकीर्ति और पापोंसे छूटकर शान्तिका अनुभव करता है।।४२।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५७।।
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भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 58
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