भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 38


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अक्रूरजीकी व्रजयात्रा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरीमें बिताकर प्रातःकाल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये।।१।।

परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी परम प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये।

वे इस प्रकार सोचने लगे – ।।२।।

‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा।।३।।

मैं बड़ा विषयी हूँ।

ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते – उन भगवान् के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्रकुलके बालकके लिये वेदोंका कीर्तन।।४।।

परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होंगे ही।

क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है।।५।।

अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये।

आज मेरा जन्म सफल हो गया।

क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं।।६।।

अहो! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है।

उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं भगवान् के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा।

जिनके नखमण्डलकी कान्तिका ध्यान करके पहले युगोंके ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार-राशिको पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान् तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं।।७।।

ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्न रहते हैं – भगवान् के वे ही चरणकमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं।

वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्षः-स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं,।।८।।

मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा।

मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से कोमल रतनारे लोचन और कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं।

मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा।

क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओरसे निकल रहे हैं।।९।।

भगवान् विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं।

सौन्दर्यकी मूर्तिमान् निधि हैं।

आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा! अवश्य होगा! आज मुझे सहजमें ही आँखोंका फल मिल जायगा।।१०।।

भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत् के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है।

उनकी चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता है।

वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलासमात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावनकी कुंजोंमें तथा गोपियोंके घरोंमें तरह-तरहकी लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं।।११।।

जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणीसे उनके गुण, लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समान – व्यर्थ है।।१२।।

जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं।

किसलिये? अपनी ही बनायी मर्यादाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओंका कल्याण करनेके लिये।

वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज व्रजमें निवास कर रहे हैं और वहींसे अपने यशका विस्तार कर रहे हैं उनका यश कितना पवित्र है! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मंगलमय यशका गान करते रहते हैं।।१३।।

इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा।

वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय हैं।

सबके परम गुरु हैं।

और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला है।

जो नेत्रवाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा है।

इसीसे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्यकी अधीश्वरी हैं, उन्हें पानेके लिये ललकती रहती हैं।

हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा।

क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं।।१४।।

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पड़ूँगा।

उनके चरण पकड़ लूँगा।

ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर।

उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना करूँगा।।१५।।

मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं।।१६।।

इन्द्र तथा दैत्यराज बलिने भगवान् के उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके तीनों लोकोंका प्रभुत्व – इन्द्रपद प्राप्त कर लिया।

भगवान् के उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय व्रजयुवतियोंकी सारी थकान मिटा दी थी।।१७।।

मैं कंसका दूत हूँ।

उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ।

कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते।

क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्तके बाहर भी हैं और भीतर भी।

वे क्षेत्रज्ञरूपसे स्थित होकर अन्तःकरणकी एक-एक चेष्टाको अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टिके द्वारा देखते रहते हैं।।१८।।

तब मेरी शंका व्यर्थ है।

अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर विनीतभावसे खड़ा हो जाऊँगा।

वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे।

उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्न हो जाऊँगा।।१९।।

मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ।

उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है।

ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे।

अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय – उनका आलिंगन प्राप्त होते ही – मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट जायँगे।।२०।।

जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे! क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं।

तब मेरा जीवन सफल हो जायगा।

भगवान् श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया – उसके उस जन्मको, जीवनको धिक्कार है।।२१।।

न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय।

न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु।

उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है।

फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैं – वे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं।।२२।।

मैं उनके सामने विनीत भावसे सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदयसे लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घरके भीतर ले जायँगे।

वहाँ सब प्रकारसे मेरा सत्कार करेंगे।

इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालोंके साथ कैसा व्यवहार करता है?’।।२३।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! श्वफल्क-नन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तनमें डूबे-डूबे रथसे नन्द-गाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये।।२४।।

जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये।

कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी।।२५।।

उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये।

प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे।

वे रथसे कूद-कर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे – ‘अहो! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है’।।२६।।

परीक्षित्! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है।

इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान् की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें।।२७।।

व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा।

श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर।

उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे।।२८।।

उन्होंने अभी किशोर-अवस्थामें प्रवेश ही किया था।

वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे।

घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी।।२९।।

उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमलके चिह्न थे।

जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी।

उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो।

वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे।।३०।।

उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी।

गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे।

उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अंगराग तथा चन्दनका लेप किया था।।३१।।

परीक्षित्! अक्रूरने देखा कि जगत् के आदिकारण, जगत् के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसारकी रक्षाके लिये अपने सम्पूर्ण अंशोंसे बलरामजी और श्रीकृष्णके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी अंगकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे हैं।

वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोनेसे मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदीके पर्वत जगमगा रहे हों।।३२-३३।।

उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टांग लोट गये।।३४।।

परीक्षित्! भगवान् के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये।

सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी।

उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके।।३५।।

शरणागतवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये।

उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्रांकित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया।।३६।।

इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने।

दोनों भाई उन्हें घर ले गये।।३७।।

घर ले जाकर भगवान् ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया।

कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की।।३८।।

इसके बाद भगवान् ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया।।३९।।

जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया।।४०।।

इस प्रकार सत्कार हो चुकनेपर नन्दरायजीने उनके पास आकर पूछा – ‘अक्रूरजी! आपलोग निर्दयी कंसके जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं? अरे! उसके रहते आपलोगोंकी वही दशा है जो कसाईद्वारा पाली हुई भेड़ोंकी होती है।।४१।।

जिस इन्द्रियाराम पापीने अपनी बिलखती हुई बहनके नन्हे-नन्हे बच्चोंको मार डाला।

आपलोग उसकी प्रजा हैं।

फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं?।।४२।।

अक्रूरजीने नन्दबाबासे पहले ही कुशल-मंगल पूछ लिया था।

जब इस प्रकार नन्दबाबाने मधुर वाणीसे अक्रूरजीसे कुशल-मंगल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजीके शरीरमें रास्ता चलनेकी जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी।।४३।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरागमनं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः।।३८।।


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