भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 23


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यज्ञपत्नियोंपर कृपा

ग्वालबालोंने कहा – नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो।

हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टोंका संहार किया है।

उन्हीं दुष्टोंके समान यह भूख भी हमें सता रही है।

अतः तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो।।१।।

श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित्! जब ग्वालबालोंने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिये यह बात कही – ।।२।।

‘मेरे प्यारे मित्रो! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे आंगिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं।

तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ।।३।।

ग्वालबालो! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात – भोजनकी सामग्री माँग लाओ’।।४।।

जब भगवान् ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवान् की आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा।

पहले उन्होंने पृथ्वीपर गिरकर दण्डवत् प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा – ।।५।।

‘पृथ्वीके मूर्तिमान् देवता ब्राह्मणो! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास आये हैं।

आप हमारी बात सुनें।।६।।

भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोड़े ही दूरपर आये हुए हैं।

उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोड़ा-सा भात दे दें।

ब्राह्मणो! आप धर्मका मर्म जानते हैं।

यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियोंके लिये कुछ भात दे दीजिये।।७।।

सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये।

इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है।।८।।

परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया।

वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मोंमें उलझे हुए थे।

सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परन्तु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।।९।।

परीक्षित्! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मच, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म – इन सब रूपोंमें एकामत्र भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं।।१०।।

वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं।

परन्तु इन मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान् को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया।।११।।

परीक्षित्! जब उन ब्राह्मणोंने ‘हाँ’ या ‘ना’ – कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी।।१२।।

उनकी बात सुनकर सारे जगत् के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे।

उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि ‘संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।’ फिर उनसे कहा – ।।१३।।

‘मेरे प्यारे ग्वालबालो! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियोंके पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं।

तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी।

वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं।

उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है’।।१४।।

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशालामें गये।

वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनोंसे सज-धजकर बैठी हैं।

उन्होंने द्विजपत्नियोंको प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यह बात कही – ।।१५।।

‘आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं।

आप कृपा करके हमारी बात सुनें।

भगवान् श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है।।१६।।

वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं।

इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है।

आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें’।।१७।।

परीक्षित्! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान् की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं।

उनका मन उनमें लग चुका था।

वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ।

श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं।।१८।।

उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य – चारों प्रकारकी भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ीं – ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये।

क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था।।१९-२०।।

ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं।।२१।।

उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है।

गलेमें वनमाला लटक रही है।

मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है।

अंग-अंगमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है।

नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है।

एक हाथ अपने सखा ग्वाल-बालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं।

कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है।।२२।।

परीक्षित्! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था।

अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त की – ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भावसे जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है।।२३।।

प्रिय परीक्षित्! भगवान् सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं।

उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा।

उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं।।२४।।

भगवान् ने कहा – ‘महाभाग्यवती देवियो! तुम्हारा स्वागत है।

आओ, बैठो।

कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है।।२५।।

इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतमके समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहती – जिसमें किसी प्रकारका व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता।।२६।।

प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधिसे प्रिय लगती हैं – उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है।।२७।।

इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है।

मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ।

परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं।

अब अपनी यज्ञशालामें लौट जाओ।

तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं।

वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे’।।२८।।

ब्राह्मणपत्नियोंने कहा – अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरतासे पूर्ण है।

आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।

श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान् को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसारमें नहीं लौटना पड़ता।

आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये।

हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके आपके चरणोंमें इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसीकी माला अपने केशोंमें धारण करें।।२९।।

स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है।

वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणोंमें आ पड़ी हैं।

हमें और किसीका सहारा नहीं है।

इसलिये अब हमें दूसरोंकी शरणमें न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये।।३०।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा – देवियो! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु – कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे।

उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा।

इसका कारण है।

अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो।

देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं।।३१।।

देवियो! इस संसारमें मेरा अंग-संग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है।

इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो।

तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी।।३२।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब भगवान् ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं।

उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की।

उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया।।३३।।

उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था।

इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान् के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था।

जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान् का आलिंगन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छेड़ दिया – (शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीरसे उसने भगवान् की सन्निधि प्राप्त कर ली)।।३४।।

इधर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वाल-बालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया।।३५।।

परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए।।३६।।

परीक्षित्! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ।

वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञाका उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है।

वे तो मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं।।३७।।

जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान् का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे।।३८।।

वे कहने लगे – हाय! हम भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं।

बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस कामका? धिक्कार है! धिक्कार है!! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए।

हमारी इस बहुज्ञताको धिक्कार है! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्डमें निपुण होना किसी काम न आया।

इन्हें बार-बार धिक्कार है।।३९।।

निश्चय ही, भगवान् की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है।

तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं।।४०।।

कितने आश्चर्यकी बात है! देखो तो सही – यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद् गुरु भगवान् श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती।।४१।।

इनके न तो द्विजातिके योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुलमें ही निवास किया है।

न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्माके सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है।

उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही।।४२।।

फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है।

और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान् के चरणोंमें हमारा प्रेम नहीं है।।४३।।

सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थीके काम-धंधोंमें मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराईको बिलकुल भूल गये थे।

अहो, भगवान् की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालोंको भेजकर उनके वचनोंसे हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी।।४४।।

भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं।

यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया।

अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी?।।४५।।

स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं।

वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है?।।४६।।

देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन-उन कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म – सब भगवान् के ही स्वरूप हैं।।४७।।

वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ हैं कि उन्हें पहचान न सके।।४८।।

यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं।

तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं।

उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्णके अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है।।४९।।

प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है।

आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़ेमें भटक रहे हैं।

हम आपको नमस्कार करते हैं।।५०।।

वे आदि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें।

क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं।।५१।।

परीक्षित्! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था।

अतः उन्हें अपने अपराधकी स्मृतिसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके।।५२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे यज्ञपत्न्युद्धरणं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः।।२३।।

१. कृष्णक्रीडायां यमुनागमनं नाम द्वाविंशतितमो।

१. प्राचीन प्रतिमें ‘स्वागतं वो……’ इत्यादि श्लोकके पहले ‘श्रीभगवानुवाच’ इतना अधिक पाठ है।

२. याभ्येता।

१. र्निरोद्धुमभिलंघ्य।

२. न ह्यभ्य०।

१. नूनं।

१. प्राचीन प्रतिमें ‘अहो वयं..’ से लेकर………..‘निश्चला हरौ’ तकका पाठ नहीं है।

२. स्तस्मै।


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