भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 12


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अघासुरका उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वनमें ही कलेवा करनेके विचारसे बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजेकी मधुर मनोहर ध्वनिसे अपने साथी ग्वालबालोंको मनकी बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ोंको आगे करके वे व्रज-मण्डलसे निकल पड़े।।१।।

श्रीकृष्णके साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहस्रों बछड़ोंको आगे करके बड़ी प्रसन्नतासे अपने-अपने घरोंसे चल पड़े।।२।।

उन्होंने श्रीकृष्णके अगणित बछड़ोंमें अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थानपर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे।।३।।

यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्णके गहने पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावनके लाल-पीले-हरे फलोंसे, नयी-नयी कोंपलोंसे, गुच्छोंसे, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखोंसे तथा गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको सजा लिया।।४।।

कोई किसीका छीका चुरा लेता, तो कोई किसीकी बेंत या बाँसुरी।

जब उन वस्तुओंके स्वामीको पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरेके पास दूर फेंक देता, दूसरा तीसरेके और तीसरा और भी दूर चौथेके पास।

फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते।।५।।

यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वनकी शोभा देखनेके लिये कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’ – इस प्रकार आपसमें होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते।।६।।

कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है।

कोई-कोई भौंरोंके साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलोंके स्वरमें स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं।।७।।

एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसोंकी चालकी नकल करते हुए उनके साथ सुन्दर गतिसे चल रहे हैं।

कोई बगुलेके पास उसीके समान आँखें मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरोंको नाचते देख उन्हींकी तरह नाच रहे हैं।।८।।

कोई-कोई बंदरोंकी पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़से उस पेड़पर चढ़ रहे हैं।

कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डालसे दूसरी डालपर छलाँग मार रहे हैं।।९।।

बहुत-से ग्वालबाल तो नदीके कछारमें छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेढकोंके साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं।

कोई पानीमें अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे अपने शब्दकी प्रतिध्वनिको ही बुरा-भला कह रहे हैं।।१०।।

भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी संतोंके लिये स्वयं ब्रह्मानन्दके मूर्तिमान् अनुभव हैं।

दास्यभावसे युक्त भक्तोंके लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं।

और माया-मोहित विषयान्धोंके लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं।

उन्हीं भगवान् के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरहके खेल खेल रहे हैं।।११।।

बहुत जन्मोंतक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरणको वशमें कर लिया है, उन योगियोंके लिये भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी रज अप्राप्य है।

वही भगवान् स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालोंकी आँखोंके सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्यकी महिमा इससे अधिक क्या कही जाय।।१२।।

परीक्षित्! इसी समय अघासुर नामका महान् दैत्य आ धमका।

उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालोंकी सुखमयी क्रीडा देखी न गयी।

उसके हृदयमें जलन होने लगी।

वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवनकी रक्षा करनेके लिये चिन्तित रहा करते थे और इस बातकी बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकारसे इसकी मृत्युका अवसर आ जाय।।१३।।

अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका भेजा हुआ था।

वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालोंको देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिनको मारनेवाला है।

इसलिये आज मैं इन ग्वालबालाकें साथ इसे मार डालूँगा।।१४।।

जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनोंके मृततर्पणकी तिलांजलि बन जायँगे, तब व्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे।

सन्तान ही प्राणियोंके प्राण हैं।

जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्युसे व्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’।।१५।।

ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका रूप धारण कर मार्गमें लेट गया।

उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वतके समान विशाल एवं मोटा था।

वह बहुत ही अद् भुत था।

उसकी नीयत सब बालकोंको निगल जानेकी थी, इसलिये उसने गुफाके समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था।।१६।।

उसका नीचेका होठ पृथ्वीसे और ऊपरका होठ बादलोंसे लग रहा था।

उसके जबड़े कन्दराओंके समान थे और दाढ़ें पर्वतके शिखर-सी जान पड़ती थीं।

मुँहके भीतर घोर अन्धकार था।

जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी।

साँस आँधीके समान थी और आँखें दावानलके समान दहक रही थीं।।१७।।

अघासुरका ऐसा रूप देखकर बालकोंने समझा कि यह भी वृन्दावनकी कोई शोभा है।

वे कौतुकवश खेल-ही-खेलमें उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगरका खुला हुआ मुँह है।।१८।।

कोई कहता – ‘मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलनेके लिये खुले हुए किसी अजगरके मुँह-जैसा नहीं है?’।।१९।।

दूसरेने कहा – ‘सचमुच सूर्यकी किरणें पड़नेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो।

और उन्हीं बादलोंकी परछाईंसे यह जो नीचेकी भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है’।।२०।।

तीसरे ग्वालबालने कहा – ‘हाँ, सच तो है।

देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओरकी गिरि-कन्दराएँ अजगरके जबड़ोंकी होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफ-साफ इसकी दाढ़ें मालूम पड़ती हैं’।।२१।।

चौथेने कहा – ‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगरकी जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशृंगोंके बीचका अन्धकार तो उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है’।।२२।।

किसी दूसरे ग्वालबालने कहा – ‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगलमें आग लगी है।

इसीसे यह गरम और तीखी हवा आ रही है।

परन्तु अजगरकी साँसके साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है।

और उसी आगसे जले हुए प्राणियोंकी दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटमें मरे हुए जीवोंके मांसकी ही दुर्गन्ध हो’।।२३।।

तब उन्हींमेंसे एकने कहा – ‘यदि हमलोग इसके मुँहमें घुस जायँ, तो क्या यह हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा।

कहीं ऐसा करनेकी ढिठार्इ की तो एक क्षणमें यह भी बकासुरके समान नष्ट हो जायगा।

हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुरको मारनेवाले श्रीकृष्णका सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुरके मुँहमें घुस गये।।२४।।

उन अनजान बच्चोंकी आपसमें की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है।

भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं।

अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालोंको उसके मुँहमें जानेसे बचा लें।।२५।।

भगवान् इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ोंके साथ उस असुरके पेटमें चले गये।

परन्तु अघासुरने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतनाके वधकी याद करके इस बातकी बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँहमें आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।।२६।।

भगवान् श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं।

जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल – जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ – मेरे हाथसे निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आगमें गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुरकी जठराग्निके ग्रास बन गये, तब दैवकी इस विचित्र लीलापर भगवान् को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया।।२७।।

वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्टकी मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकोंकी हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं?’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान – सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं।

उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था।

वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँहमें घुस गये।।२८।।

उस समय बादलोंमें छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुरके हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे।।२९।।

अघासुर बछड़ों और ग्वालबालोंके सहित भगवान् श्रीकृष्णको अपनी डाढ़ोंसे चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था।

परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्णने देवताओंकी ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गलेमें अपने शरीरको बड़ी फुर्तीसे बढ़ा लिया।।३०।।

इसके बाद भगवान् ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही रुँध गया।

आँखें उलट गयीं।

वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा।

साँस रुककर सारे शरीरमें भर गयी और अन्तमें उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये।।३१।।

उसी मार्गसे प्राणोंके साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीरसे बाहर हो गयीं।

उसी समय भगवान् मुकुन्दने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालोंको जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुरके मुँहसे बाहर निकल आये।।३२।।

उस अजगरके स्थूल शरीरसे एक अत्यन्त अद् भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योतिके प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं।

वह थोड़ी देरतक तो आकाशमें स्थित होकर भगवान् के निकलनेकी प्रतीक्षा करती रही।

जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओंके देखते-देखते उन्हींमें समा गयी।।३३।।

उस समय देवताओंने फूल बरसाकर, अप्सराओंने नाचकर, गन्धर्वोंने गाकर, विद्याधरोंने बाजे बजाकर, ब्राह्मणोंने स्तुति-पाठकर और पार्षदोंने जय-जय-कारके नारे लगाकर बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णका अभिनन्दन किया।

क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णने अघासुरको मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था।।३४।।

उन अद् भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवोंकी मंगलध्वनि ब्रह्म-लोकके पास पहुँच गयी।

जब ब्रह्माजीने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहनपर चढ़कर वहाँ आये और भगवान् श्रीकृष्णकी यह महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गये।।३५।।

परीक्षित्! जब वृन्दावनमें अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियोंके लिये बहुत दिनोंतक खेलनेकी एक अद् भुत गुफा-सी बना रहा।।३६।।

यह जो भगवान् ने अपने ग्वालबालोंको मृत्युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान् ने अपनी कुमार अवस्थामें अर्थात् पाँचवें वर्षमें ही की थी।

ग्वालबालोंने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्षमें अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रजमें उसका वर्णन किया।।३७।।

अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था।

भगवान् के स्पर्शमात्रसे उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्तिकी प्राप्ति हुई, जो पापियोंको कभी मिल नहीं सकती।

परन्तु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।

क्योंकि मनुष्य-बालककी-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारणरूप समस्त जगत् के एकमात्र विधाता हैं।।३८।।

भगवान् श्रीकृष्णके किसी एक अंगकी भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यानके द्वारा एक बार भी हृदयमें बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती है, जो भगवान् के बड़े-बड़े भक्तोंको मिलती है।

भगवान् आत्मानन्दके नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं।

माया उनके पासतक नहीं फटक पाती।

वे ही स्वयं अघासुरके शरीरमें प्रवेश कर गये।

क्या अब भी उसकी सद् गतिके विषयमें कोई सन्देह है?।।३९।।

सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियो! यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने ही राजा परीक्षित् को जीवन दान दिया था।

उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवनसर्वस्वका यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराजसे उन्हींकी पवित्र लीलाके सम्बन्धमें प्रश्न किया।

इसका कारण यह था कि भगवान् की अमृतमयी लीलाने परीक्षित् के चित्तको अपने वशमें कर रखा था।।४०।।

राजा परीक्षित् ने पूछा – भगवन्! आपने कहा था कि ग्वालबालोंने भगवान् की की हुई पाँचवें वर्षकी लीला व्रजमें छठे वर्षमें जाकर कही।

अब इस विषयमें आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समयकी लीला दूसरे समयमें वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है?।।४१।।

महायोगी गुरुदेव! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्यको जाननेके लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है।

आप कृपा करके बतलाइये।

अवश्य ही इसमें भगवान् श्रीकृष्णकी विचित्र घटनाओंको घटित करनेवाली मायाका कुछ-न-कुछ काम होगा।

क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता।।४२।।

गुरुदेव! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मणसेवासे विमुख होनेके कारण मैं अपराधी नाममात्रका क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्दसे निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृतका बार-बार पान कर रहे हैं।।४३।।

सूतजी कहते हैं – भगवान् के परम प्रेमी भक्तोंमें श्रेष्ठ शौनकजी! जब राजा परीक्षित् ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेवजीको भगवान् की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण विवश होकर भगवान् की नित्यलीलामें खिंच गये।

कुछ समयके बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्टसे उन्हें बाह्यज्ञान हुआ।

तब वे परीक्षित् से भगवान् की लीलाका वर्णन करने लगे।।४४।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः।।१२।।


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