<< भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 16
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चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशामें भगवान् संकर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाशमार्गसे स्वच्छन्द विचरने लगे।।१।।
महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षोंतक सब प्रकारके संकल्पोंको पूर्ण करनेवाली सुमेरु पर्वतकी घाटियोंमें विहार करते रहे।
उनके शरीरका बल और इन्द्रियोंकी शक्ति अक्षुण्ण रही।
बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते।
उनकी प्रेरणासे विद्याधरोंकी स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान् के गुण और लीलाओंका गान करती रहतीं।।२-३।।
एक दिन चित्रकेतु भगवान् के दिये हुए तेजोमय विमानपर सवार होकर कहीं जा रहे थे।
इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शङ्कर बड़े-बड़े मुनियोंकी सभामें सिद्ध-चारणोंके बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वतीको अपनी गोदमें बैठाकर एक हाथसे उन्हें आलिंगन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमानपर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वतीको सुना-सुनाकर जोरसे हँसने और कहने लगे।।४-५।।
चित्रकेतुने कहा – अहो! ये सारे जगत् के धर्मशिक्षक और गुरुदेव हैं।
ये समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ हैं।
इनकी यह दशा है कि भरी सभामें अपनी पत्नीको शरीरसे चिपकाकर बैठे हुए हैं।।६।।
जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियोंके सभापति होकर भी साधारण पुरुषके समान निर्लज्जतासे गोदमें स्त्री लेकर बैठे हैं।।७।।
प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्तमें ही स्त्रियोंके साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभामें लिये बैठे हैं।।८।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भागवान् शंकरकी बुद्धि अगाध है।
चित्रकेतुका यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं।
उस सभामें बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे।
चित्रकेतुको भगवान् शंकरका प्रभाव नहीं मालूम था।
इसीसे वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक थे।
उन्हें इस बातका घमण्ड हो गया था कि ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ।’ पार्वतीजीने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोधसे कहा – ।।९-१०।।
पार्वतीजी बोलीं – अहो! हम-जैसे दुष्ट और निर्लज्जोंका दण्डके बलपर शासन एवं तिरस्कार करनेवाला प्रभु इस संसारमें यही है क्या?।।११।।
जान पड़ता है कि ब्रह्माजी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि, कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्मका रहस्य नहीं जानते।
तभी तो वे धर्ममर्यादाका उल्लंघन करनेवाले भगवान् शिवको इस कामसे नहीं रोकते।।१२।।
ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मंगलोंको मंगल बनानेवाले साक्षात् जगद् गुरु भगवान् का और उनके अनुयायी महात्माओंका इस अधम क्षत्रियने तिरस्कार किया और शासन करनेकी चेष्टा की है।
इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्डका पात्र है।।१३।।
इसे अपने बड़प्पनका घमण्ड है।
यह मूर्ख भगवान् श्रीहरिके उन चरणकमलोंमें रहनेयोग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं।।१४।।
(चित्रकेतुको सम्बोधन कर) अतः दुर्मते! तुम पापमय असुरयोनिमें जाओ।
ऐसा होनेसे बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुषका अपराध नहीं कर सकोगे।।१५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब पार्वतीजीने इस प्रकार चित्रकेतुको शाप दिया, तब वे विमानसे उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे।।१६।।
चित्रकेतुने कहा – माता पार्वतीजी! मैं बड़ी प्रसन्नतासे अपने दोनों हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ।
क्योंकि देवतालोग मनुष्योंके लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलनेवाले फलकी पूर्वसूचनामात्र होती है।।१७।।
देवि! यह जीव अज्ञानसे मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसारचक्रमें भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है।।१८।।
माताजी! सुख और दुःखको देनेवाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा।
जो अज्ञानी हैं, वे ही अपनेको अथवा दूसरेको सुख-दुःखका कर्ता माना करते हैं।।१९।।
यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणोंका स्वाभाविक प्रवाह है।
इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख।।२०।।
एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसीकी सहायताके अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाके द्वारा समस्त प्राणियोंकी तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःखकी रचना करते हैं।।२१।।
माताजी! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मलसे रहित हैं।
उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना-पराया नहीं है।
जब उनका सुखमें राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है।।२२।।
तथापि उनकी मायाशक्तिके कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियोंके सुख-दुःख, हित-अहित, बन्ध-मोक्ष, मृत्यु-जन्म और आवागमनके कारण बनते हैं।।२३।।
पतिप्राणा देवि! मैं शापसे मुक्त होनेके लिये आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ।
मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें।।२४।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शंकर और पार्वतीजीको इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमानपर सवार होकर वहाँसे चले गये।
इससे उन लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ।।२५।।
तब भगवान् शंकरने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदोंके सामने ही भगवती पार्वतीजीसे यह बात कही।।२६।।
भगवान् शंकरने कहा – सुन्दरि! दिव्यलीला-विहारी भगवान् के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासोंकी महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली।।२७।।
जो लोग भगवान् के शरणागत होते हैं, वे किसीसे भी नहीं डरते।
क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकोंमें भी एक ही वस्तुके – केवल भगवान् के ही समानभावसे दर्शन होते हैं।।२८।।
जीवोंको भगवान् की लीलासे ही देहका संयोग होनेके कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं।।२९।।
जैसे स्वप्नमें भेद-भ्रमसे सुख-दुःख आदिकी प्रतीति होती है और जाग्रत्-अवस्थामें भ्रमवश मालामें ही सर्पबुद्धि हो जाती है – वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मामें देवता, मनुष्य आदिका भेद तथा गुण-दोष आदिकी कल्पना कर लेता है।।३०।।
जिनके पास ज्ञान और वैराग्यका बल है और जो भगवान् वासुदेवके चरणोंमें भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत् में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें।।३१।।
मैं, ब्रह्माजी, सनकादि, नारद, ब्रह्माजीके पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता – कोई भी भगवान् की लीलाका रहस्य नहीं जान पाते।
ऐसी अवस्थामें जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश हैं और अपनेको उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूपको जान ही कैसे सकते हैं?।।३२।।
भगवान् को न कोई प्रिय है और न अप्रिय।
उनका न कोई अपना है और न पराया।
वे सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, इसलिये सभी प्राणियोंके प्रियतम हैं।।३३।।
प्रिये! यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हींका प्रिय अनुचर, शान्त एवं समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरिका ही प्रिय हूँ।।३४।।
इसलिये तुम्हें भगवान् के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषोंके सम्बन्धमें किसी प्रकारका आश्चर्य नहीं करना चाहिये।।३५।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् शंकरका यह भाषण सुनकर भगवती पार्वतीकी चित्तवृत्ति शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा।।३६।।
भगवान् के परमप्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वतीको बदलेमें शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया! यही साधु पुरुषका लक्षण है।।३७।।
यही विद्याधर चित्रकेतु दानवयोनिका आश्रय लेकर त्वष्टाके दक्षिणाग्निसे पैदा हुए।
वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्-स्वरूपके ज्ञान एवं भक्तिसे परिपूर्ण ही रहे।।३८।।
तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुरका दैत्ययोनिमें जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान् की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई।
उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया।।३९।।
महात्मा चित्रकेतुका यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, समस्त विष्णुभक्तोंका माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है।।४०।।
जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मौन रहकर श्रद्धाके साथ भगवान् का स्मरण करते हुए इस इतिहासका पाठ करता है, उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है।।४१।।
इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुशापो नाम सप्तदशोऽध्यायः।।१७।।
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भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 18
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