<< भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 9
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देवताओंद्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र-निर्माण और वृत्रासुरकी सेनापर आक्रमण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! विश्वके जीवनदाता श्रीहरि इन्द्रको इस प्रकार आदेश देकर देवताओंके सामने वहीं-के-वहीं अन्तर्धान हो गये।।१।।
अब देवताओंने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषिके पास जाकर भगवान् के आज्ञानुसार याचना की।
देवताओंकी याचना सुनकर दधीचि ऋषिको बड़ा आनन्द हुआ।
उन्होंने हँसकर देवताओंसे कहा – ।।२।।
‘देवताओ! आपलोगोंको सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियोंको बड़ा कष्ट होता है।
उन्हें जबतक चेत रहता है, बड़ी असह्य पीड़ा सहनी पड़ती है और अन्तमें वे मूर्च्छित हो जाते हैं।।३।।
जो जीव जगत् में जीवित रहना चाहते हैं, उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम एवं अभीष्ट वस्तु है।
ऐसी स्थितिमें स्वयं विष्णुभगवान् भी यदि जीवसे उसका शरीर माँगें तो कौन उसे देनेका साहस करेगा।।४।।
देवताओंने कहा – ब्रह्मन्! आप-जैसे उदार और प्राणियोंपर दया करनेवाले महापुरुष, जिनके कर्मोंकी बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियोंकी भलाईके लिये कौन-सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते।।५।।
भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि माँगनेवाले लोग स्वार्थी होते हैं।
उनमें देनेवालोंकी कठिनाईका विचार करनेकी बुद्धि नहीं होती।
यदि उनमें इतनी समझ होती तो वे माँगते ही क्यों।
इसी प्रकार दाता भी माँगनेवालेकी विपत्ति नहीं जानता।
अन्यथा उसके मुँहसे कदापि नाहीं न निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये।)।।६।।
दधीचि ऋषिने कहा – देवताओ! मैंने आपलोगोंके मुँहसे धर्मकी बात सुननेके लिये ही आपकी माँगके प्रति उपेक्षा दिखलायी थी।
यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीरको आप लोगोंके लिये अभी छोड़े देता हूँ।
क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़नेवाला है।।७।।
देवशिरोमणियो! जो मनुष्य इस विनाशी शरीरसे दुःखी प्राणियोंपर दया करके मुख्यतः धर्म और गौणतः यशका सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधोंसे भी गया-बीता है।।८।।
बड़े-बड़े महात्माओंने इस अविनाशी धर्मकी उपासना की है।
उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणीके दुःखमें दुःखका अनुभव करे और सुखमें सुखका।।९।।
जगत् के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षणभंगुर हैं।
ये अपने किसी काम नहीं आते, अन्तमें दूसरोंके ही काम आयेंगे।
ओह! यह कैसी कृपणता है, कितने दुःखकी बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरोंका उपकार नहीं कर लेता।।१०।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! अथर्ववेदी महर्षि दधीचिने ऐसा निश्चय करके अपनेको परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् में लीन करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया।।११।।
उनके इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि संयत थे, दृष्टि तत्त्वमयी थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे।
अतः जब वे भगवान् से अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बातका पता ही न चला कि मेरा शरीर छूट गया।।१२।।
भगवान् की शक्ति पाकर इन्द्रका बल-पौरुष उन्नतिकी सीमापर पहुँच गया।
अब विश्वकर्माजीने दधीचि ऋषिकी हड्डियोंसे वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथमें लेकर ऐरावत हाथीपर सवार हुए।
उनके साथ-साथ सभी देवतालोग तैयार हो गये।
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि देवराज इन्द्रकी स्तुति करने लगे।
अब उन्होंने त्रिलोकीको हर्षित करते हुए वृत्रासुरका वध करनेके लिये उसपर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल दिया – ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं कालपर ही आक्रमण कर रहे हों।
परीक्षित्! वृत्रासुर भी दैत्य-सेनापतियोंकी बहुत बड़ी सेनाके साथ मोर्चेपर डटा हुआ था।।१३-१५।।
जो वैवस्वत मन्वन्तर इस समय चल रहा है, इसकी पहली चतुर्युगीका त्रेतायुग अभी आरम्भ ही हुआ था।
उसी समय नर्मदातटपर देवताओंका दैत्योंके साथ यह भयंकर संग्राम हुआ।।१६।।
उस समय देवराज इन्द्र हाथमें वज्र लेकर रुद्र, वसु, आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण, अग्नि, मरुद् गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव आदिके साथ अपनी कान्तिसे शोभायमान हो रहे थे।
वृत्रासुर आदि दैत्य उनको अपने सामने आया देख और भी चिढ़ गये।।१७-१८।।
तब नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शंकुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति, उत्कल, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्य-दानव एवं यक्ष-राक्षस स्वर्णके साज-सामानसे सुसज्जित होकर देवराज इन्द्रकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोकने लगे।
परीक्षित! उस समय देवताओंकी सेना स्वयं मृत्युके लिये भी अजेय थी।।१९-२१।।
वे घमंडी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानीसे देवसेनापर प्रहार करने लगे।
उन लोगोंने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद् गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी बौछारसे देवताओंको सब ओरसे ढक दिया।।२२-२३।।
एक-पर-एक इतने बाण चारों ओरसे आ रहे थे कि उनसे ढक जानेके कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे – जैसे बादलोंसे ढक जानेपर आकाशके तारे नहीं दिखायी देते।।२४।।
परीक्षित्! वह शस्त्रों और अस्त्रोंकी वर्षा देवसैनिकोंको छूतक न सकी।
उन्होंने अपने हस्तलाघवसे आकाशमें ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये।।२५।।
जब असुरोंके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओंकी सेनापर पर्वतोंके शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे।
परन्तु देवताओंने उन्हें पहलेकी ही भाँति काट गिराया।।२६।।
परीक्षित्! जब वृत्रासुरके अनुयायी असुरोंने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देव-सेनाका कुछ न बिगाड़ सके – यहाँतक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ोंके बड़े-बड़े शिखरोंसे भी उनके शरीरपर खरोंचतक नहीं आयी, सब-के-सब सकुशल हैं – तब तो वे बहुत डर गये! दैत्यलोग देवताओंको पराजित करनेके लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब-के-सब निष्फल हो जाते – ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित भक्तोंपर क्षुद्र मनुष्योंके कठोर और अमंगलमय दुर्वचनोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।।२७-२८।।
भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये।
उनका वीरताका घमंड जाता रहा।
अब वे अपने सरदार वृत्रासुरको युद्धभूमिमें ही छोड़कर भाग खड़े हुए; क्योंकि देवताओंने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था।।२९।।
जब धीर-वीर वृत्रासुरने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस-नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा।।३०।।
वीरशिरोमणि वृत्रासुरने समयानुसार वीरोचित वाणीसे विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा – ‘असुरो! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो।।३१।।
इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा।
इस जगत् में विधाताने मृत्युसे बचनेका कोई उपाय नहीं बताया है।
ऐसी स्थितिमें यदि मृत्युके द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उस उत्तम मृत्युको न अपनायेगा।।३२।।
संसारमें दो प्रकारकी मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है – एक तो योगी पुरुषका अपने प्राणोंको वशमें करके ब्रह्मचिन्तनके द्वारा शरीरका परित्याग और दूसरा युद्धभूमिमें सेनाके आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुमलोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो)’।।३३।।
इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे इन्द्रवृत्रासुरयुद्धवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः।।१०।।
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भागवत पुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय – 11
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