<< भागवत पुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय – 10
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स्वायम्भुव-मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करनेके लिये समझाना
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! ऋषियोंका ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुवने आचमन कर श्रीनारायणके बनाये हुए नारायणास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया।।१।।
उस बाणके चढ़ाते ही यक्षोंद्वारा रची हुई नाना प्रकारकी माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञानका उदय होनेपर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं।।२।।
ऋषिवर नारायणके द्वारा आविष्कृत उस अस्त्रको धनुषपर चढ़ाते ही उससे राजहंसके-से पक्ष और सोनेके फलवाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वनमें घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक साँय-साँय शब्द करते हुए वे शत्रुकी सेनामें घुस गये।।३।।
उन तीखी धारवाले बाणोंने शत्रुओंको बेचैन कर दिया। तब उस रणांगणमें अनेकों यक्षोंने अत्यन्त कुपित होकर अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़के छेड़नेसे बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधरसे ध्रुवजीपर टूट पड़े।।४।।
उन्हें सामने आते देख ध्रुवजीने अपने बाणोंद्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे और उदर आदि अंग-प्रत्यंगोंको छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक)-में भेज दिया, जिसमें ऊर्ध्वरेता मुनिगण सूर्यमण्डलका भेदन करके जाते हैं।।५।।
अब उनके पितामह स्वायम्भुव मनुने देखा कि विचित्र रथपर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षोंको मार रहे हैं, तो उन्हें उनपर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियोंको साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुवको समझाने लगे।।६।।
मनुजीने कहा—बेटा! बस, बस! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरकका द्वार है। इसीके वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षोंका वध किया है।।७।।
तात! तुम जो निर्दोष यक्षोंके संहारपर उतर रहे हो, यह हमारे कुलके योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं।।८।।
बेटा! तुम्हारा अपने भाईपर बड़ा अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वधसे सन्तप्त होकर तुमने एक यक्षके अपराध करनेपर प्रसंगवश कितनोंकी हत्या कर डाली।।९।।
इस जड शरीरको ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओंकी भाँति प्राणियोंकी हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनोंका मार्ग नहीं है।।१०।।
प्रभुकी आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपनमें ही सम्पूर्ण भूतोंके आश्रय-स्थान श्रीहरिकी सर्वभूतात्मभावसे आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है।।११।।
तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं। तुम साधुजनोंके पथप्रदर्शक हो; फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया?।।१२।।
सर्वात्मा श्रीहरि तो अपनेसे बड़े पुरुषोंके प्रति सहनशीलता, छोटोंके प्रति दया, बराबरवालोंके साथ मित्रता और समस्त जीवोंके साथ समताका बर्ताव करनेसे ही प्रसन्न होते हैं।।१३।।
और प्रभुके प्रसन्न हो जानेपर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिंगशरीरसे छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है।।१४।।
बेटा ध्रुव! देहादिके रूपमें परिणत हुए पंचभूतोंसे स्त्री-पुरुषका आविर्भाव होता है और फिर उनके पारस्परिक समागमसे दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं।।१५।।
ध्रुव! इस प्रकार भगवान् की मायासे सत्त्वादि गुणोंमें न्यूनाधिकभाव होनेसे ही जैसे भूतोंद्वारा शरीरोंकी रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं।।१६।।
पुरुषश्रेष्ठ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रयसे यह कार्यकारणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बकके आश्रयसे लोहा।।१७।।
काल-शक्तिके द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणोंमें क्षोभ होनेसे लीलामय भगवान् की शक्ति भी सृष्टि आदिके रूपमें विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करनेवाले न होकर भी इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभुकी लीला सर्वथा अचिन्तनीय है।।१८।।
ध्रुव! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत् का अन्त करनेवाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीवसे दूसरे जीवको उत्पन्न कर संसारकी सृष्टि करते हैं तथा मृत्युके द्वारा मारनेवालेको भी मरवाकर उसका संहार करते हैं।।१९।।
वे कालभगवान् सम्पूर्ण सृष्टिमें समानरूपसे अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्रपक्ष है और न शत्रुपक्ष। जैसे वायुके चलनेपर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मोंके अधीन होकर कालकी गतिका अनुसरण करते हैं—अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं।।२०।।
सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी आयुकी वृद्धि और क्षयका विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनोंसे रहित और अपने स्वरूपमें स्थित हैं।।२१।।
राजन्! इन परमात्माको ही मीमांसकलोग कर्म, चार्वाक स्वभाव, वैशेषिकमतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं।।२२।।
वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाणके विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हींसे प्रकट हुई हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बातको भी संसारमें कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभुको तो जान ही कौन सकता है।।२३।।
बेटा! ये कुबेरके अनुचर तुम्हारे भाईको मारनेवाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यके जन्म-मरणका वास्तविक कारण तो ईश्वर है।।२४।।
एकमात्र वही संसारको रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होनेके कारण इसके गुण और कर्मोंसे वह सदा निर्लेप रहता है।।२५।।
वे सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करनेवाले प्रभु ही अपनी मायाशक्तिसे युक्त होकर समस्त जीवोंका सृजन, पालन और संहार करते हैं।।२६।।
जिस प्रकार नाकमें नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिकका बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करनेवाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरीसे बँधे हुए उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं। वे अभक्तोंके लिये मृत्युरूप और भक्तोंके लिये अमृतरूप हैं तथा संसारके एकमात्र आश्रय हैं। तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्माकी शरण लो।।२७।।
तुम पाँच वर्षकी ही अवस्थामें अपनी सौतेली माताके वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर माँकी गोद छोड़कर वनको चले गये थे। वहाँ तपस्याद्वारा जिन हृषीकेश भगवान् की आराधना करके तुमने त्रिलोकीसे ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदयमें वात्सल्यवश विशेषरूपसे विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्माको अध्यात्मदृष्टिसे अपने अन्तःकरणमें ढूँढ़ो। उनमें यह भेदभावमय प्रपंच न होनेपर भी प्रतीत हो रहा है।।२८-२९।।
ऐसा करनेसे सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्तमें तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभावसे तुम मैं-मेरेपनके रूपमें दृढ़ हुई अविद्याकी गाँठको काट डालोगे।।३०।।
राजन्! जिस प्रकार ओषधिसे रोग शान्त किया जाता है—उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उसपर विचार करके अपने क्रोधको शान्त करो। क्रोध कल्याणमार्गका बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें।।३१।।
क्रोधके वशीभूत हुए पुरुषसे सभी लोगोंको बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणीको भय न हो और मुझे भी किसीसे भय न हो, उसे क्रोधके वशमें कभी न होना चाहिये।।३२।।
तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाईके मारनेवाले हैं, इतने यक्षोंका संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकरके सखा कुबेरजीका बड़ा अपराध हुआ है।।३३।।
इसलिये बेटा! जबतक कि महापुरुषोंका तेज हमारे कुलको आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनयके द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो।।३४।।
इस प्रकार स्वायम्भुव मनुने अपने पौत्र ध्रुवको शिक्षा दी। तब ध्रुवजीने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियोंके सहित अपने लोकको चले गये।।३५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे एकादशोऽध्यायः।।११।।
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भागवत पुराण – चतुर्थ स्कन्ध – अध्याय – 12
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