<< भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 3
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महर्षि व्यासका असन्तोष
व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्रमें सम्मिलित हुए मुनियोंमें विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजीने सूतजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा।।१।।
शौनकजी बोले—सूतजी! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान् श्रीशुकदेवजीने कही थी, वही भगवान् की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये।।२।।
वह कथा किस युगमें, किस स्थानपर और किस कारणसे हुई थी? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायनने किसकी प्रेरणासे इस परमहंसोंकी संहिताका निर्माण किया था?।।३।।
उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभावरहित, संसारनिद्रासे जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मामें ही स्थिर रहते हैं।
वे छिपे रहनेके कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं।।४।।
व्यासजी जब संन्यासके लिये वनकी ओर जाते हुए अपने पुत्रका पीछा कर रहे थे, उस समय जलमें स्नान करनेवाली स्त्रियोंने नंगे शुकदेवको देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यासजीको देखकर लज्जासे कपड़े पहन लिये थे।
इस आश्चर्यको देखकर जब व्यासजीने उन स्त्रियोंसे इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टिमें तो अभी स्त्री-पुरुषका भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्रकी शुद्ध दृष्टिमें यह भेद नहीं है’।।५।।
कुरुजांगल देशमें पहुँचकर हस्तिनापुरमें वे पागल, गूँगे तथा जडके समान विचरते होंगे।
नगरवासियोंने उन्हें कैसे पहचाना?।।६।।
पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित् का इन मौनी शुकदेवजीके साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी?।।७।।
महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थोंके घरोंको तीर्थस्वरूप बना देनेके लिये उतनी ही देर उनके दरवाजेपर रहते हैं, जितनी देरमें एक गाय दुही जाती है।।८।।
सूतजी! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित् भगवान् के बड़े प्रेमी भक्त थे।
उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मोंका भी वर्णन कीजिये।।९।।
वे तो पाण्डव-वंशके गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे।
वे भला, किस कारणसे साम्राज्यलक्ष्मीका परित्याग करके गंगातटपर मृत्युपर्यन्त अनशनका व्रत लेकर बैठे थे?।।१०।।
शत्रुगण अपने भलेके लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखनेकी चौकीको नमस्कार करते थे।
वे एक वीर युवक थे।
उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मीको, अपने प्राणोंके साथ भला, क्यों त्याग देनेकी इच्छा की।।११।।
जिन लोगोंका जीवन भगवान् के आश्रित है, वे तो संसारके परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धिके लिये ही जीवन धारण करते हैं।
उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता।
उनका शरीर तो दूसरोंके हितके लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया।।१२।।
वेदवाणीको छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रोंके आप पारदर्शी विद्वान् हैं।
सूतजी! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हमें कहिये।।१३।।
सूतजीने कहा—इस वर्तमान चतुर्युगीके तीसरे युग द्वापरमें महर्षि पराशरके द्वारा वसुकन्या सत्यवतीके गर्भसे भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजीका जन्म हुआ।।१४।।
एक दिन वे सूर्योदयके समय सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए थे।।१५।।
महर्षि भूत और भविष्यको जानते थे।
उनकी दृष्टि अचूक थी।
उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समयके फेरसे प्रत्येक युगमें धर्मसंकरता और उसके प्रभावसे भौतिक वस्तुओंकी भी शक्तिका ह्रास होता रहता है।
संसारके लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं।
उनकी बुद्धि कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है।
लोगोंकी इस भाग्यहीनताको देखकर उन मुनीश्वरने अपनी दिव्यदृष्टिसे समस्त वर्णों और आश्रमोंका हित कैसे हो, इसपर विचार किया।।१६-१८।।
उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र* कर्म लोगोंका हृदय शुद्ध करनेवाला है।
इस दृष्टिसे यज्ञोंका विस्तार करनेके लिये उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग कर दिये।।१९।।
व्यासजीके द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व—इन चार वेदोंका उद्धार (पृथक्करण) हुआ।
इतिहास और पुराणोंको पाँचवाँ वेद कहा जाता है।।२०।।
उनमेंसे ऋग्वेदके पैल, सामगानके विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेदके एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए।।२१।।
अथर्ववेदमें प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि।
इतिहास और पुराणोंके स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे।।२२।।
इन पूर्वोक्त ऋषियोंने अपनी-अपनी शाखाको और भी अनेक भागोंमें विभक्त कर दिया।
इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्योंद्वारा वेदोंकी बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं।।२३।।
कम समझवाले पुरुषोंपर कृपा करके भगवान् वेदव्यासने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगोंको स्मरणशक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदोंको धारण कर सकें।।२४।।
स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवणके अधिकारी नहीं हैं।
इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मोंके आचरणमें भूल कर बैठते हैं।
अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजीने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहासकी रचना की।।२५।।
शौनकादि ऋषियो! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्तिसे सदा-सर्वदा प्राणियोंके कल्याणमें ही लगे रहे, तथापि उनके हृदयको सन्तोष नहीं हुआ।।२६।।
उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया।
सरस्वती नदीके पवित्र तटपर एकान्तमें बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—।।२७।।
‘मैंने निष्कपटभावसे ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियोंका सम्मान किया है और उनकी आज्ञाका पालन किया है।।२८।।
महाभारतकी रचनाके बहाने मैंने वेदके अर्थको खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्मका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।।२९।।
यद्यपि मैं ब्रह्मतेजसे सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है।।३०।।
अवश्य ही अबतक मैंने भगवान् को प्राप्त करानेवाले धर्मोंका प्रायः निरूपण नहीं किया है।
वे ही धर्म परमहंसोंको प्रिय हैं और वे ही भगवान् को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णताका यही कारण है)’।।३१।।
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपनेको अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रमपर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे।।३२।।
उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये।
उन्होंने देवताओंके द्वारा सम्मानित देवर्षि नारदकी विधिपूर्वक पूजा की।।३३।।
इति श्रीमद् भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः१ ।।४।।
* होता, अध्वर्यु, उद् गाता और ब्रह्मा—ये चार होता हैं।
इनके द्वारा सम्पादित होनेवाले अग्निष्टोमादि यज्ञको चातुर्होत्र कहते हैं।
१.-यहाँ प्राचीन प्रतिमें ‘नारदागमनं’ इतना पाठ अधिक है।
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भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 5
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