भागवत पुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय – 11


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द्वारकामें श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगोंकी विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया।।१।।

भगवान् के होठोंकी लालीसे लाल हुआ वह श्वेतवर्णका शंख बजते समय उनके करकमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वरसे मधुर गान कर रहा हो।।२।।

भगवान् के शंखकी वह ध्वनि संसारके भयको भयभीत करनेवाली है।

उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी।।३।।

भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभसे ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया।।४।।

सबके मुखकमल प्रेमसे खिल उठे।

वे हर्षगद् गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं।।५।।

‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रतक करते हैं, जो इस संसारमें परम कल्याण चाहनेवालोंके लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता।।६।।

विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद् गुरु और परम आराध्यदेव हैं।

आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं।

आप ही हमारा कल्याण करें।।७।।

अहा! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं।

कितना सुन्दर मुख है।

प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है।।८।।

कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लम्बा हो जाता है।

आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्यके बिना आँखोंकी।।९।।

भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रहकी वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए।।१०।।

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी)-की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान् की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसीसे भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी।।११।।

वह पुरी समस्त ऋतुओंके सम्पूर्ण वैभवसे सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओंके कुंजोंसे युक्त थी।

स्थान-स्थानपर फलोंसे पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे।

बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे।।१२।।

नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सड़कोंपर भगवान् के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं।

चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।।१३।।

उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे और भगवान् के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों ओर बिखरे हुए थे।।१४।।

घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे।।१५।।

उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद् भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये।

प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा।

वे मंगलशकुनके लिये एक गजराजको आगे करके स्वस्त्ययनपाठ करते हुए और मांगलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले।

शंख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी।

वे सब हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान् की अगवानी करने चले।।१६-१८।।

साथ ही भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पड़नेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढ़कर भगवान् की अगवानीके लिये चलीं।।१९।।

बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान् श्रीकृष्णके अद् भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले।।२०।।

भगवान् श्रीकृष्णने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकोंसे उनकी योग्यताके अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया।।२१।।

किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया।

जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया।

इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया।।२२-२३।।

शौनकजी! जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारकाकी कुल-कामिनियाँ भगवान् के दर्शनको ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियोंपर चढ़ गयीं।।२४।।

भगवान् का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मीका निवासस्थान है।

उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है।

उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं।

उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं।

उनके अंग-अंग शोभाके धाम हैं।

भगवान् की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं।।२५-२६।।

द्वारकाके राजपथपर भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर श्वेतवर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे।

इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो।।२७।।

भगवान् सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये।

वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया।

स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं।।२८-२९।।

माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये।

उसमें सोलह हजार पत्नियोंके अलग-अलग महल थे।।३०।।

अपने प्राणनाथ भगवान् श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियोंके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ।

उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं; बल्कि उन नियमोंको* भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पतिके प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था।

उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी।।३१।।

भगवान् के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था।

उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रोंके बहाने शरीरसे उनका आलिंगन किया।

शौनकजी! उस समय उनके नेत्रोंमें जो प्रेमके आँसू छलक आये थे, उन्हें संकोचवश उन्होंने बहुत रोका।

फिर भी विवशताके कारण वे ढलक ही गये।।३२।।

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण एकान्तमें सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पदपर नये-नये जान पड़ते।

भला, स्वभावसे ही चंचल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षणके लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी संनिधिसे किस स्त्रीकी तृप्ति हो सकती है।।३३।।

जैसे वायु बाँसोंके संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वीके भारभूत और शक्तिशाली राजाओंमें परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरेसे मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये।।३४।।

साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीलासे इस मनुष्यलोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने साधारण मनुष्यकी तरह क्रीडा की।।३५।।

जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया था—वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असंग भगवान् श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है।।३६-३७।।

यही तो भगवान् की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान् की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती।।३८।।

तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः।

अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा।।३९ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं।।३९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने कृष्णद्वारकाप्रवेशो नामैकादशोऽध्यायः।।११।।

* जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना चाहिये।

क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम् ।
हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका।।

जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्रीको खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवोंमें भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना—इन पाँच कामोंको त्याग देना चाहिये। (याज्ञवल्क्यस्मृति)


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