बाल काण्ड – सत्पुरुषों को प्रणाम क्यों करे?


बालकाण्ड के पिछले पेज में हमने देखा की
तुलसीदासजी रामचरितमानस लिखने से पहले
अर्थात बालकाण्ड में पहले कौन कौन से देवताओं को प्रणाम करते है?

<<<< बाल कांड के शुरुआत में कौन कौन से देवताओं को प्रणाम करें?

अब आगे, तुलसीदासजी बताते है की
सत्पुरुषों को क्यों प्रणाम करना चाहिए और
उनकी संगती क्यों करना चाहिए और
सत्संगति से क्या क्या लाभ होता है?


7

मैं प्रथम ब्राह्मणोंके चरणारविंदोंको प्रणाम करता हूं कि
जो मोहजनित सकल संदेहोंको त्वरित दूर कर देते हैं ॥ ३ ॥


फिर सर्वगुणों की खान श्रीसत्पुरुषोंकी समाजको
प्रीतिके साथ सुंदर वाणिसे स्तुति करके
प्रणाम करता हूं ॥ ४ ॥


सत्पुरुषोंका चरित्र सर्वोत्तम और कपासके सदृश है,
क्योंकि जैसे कपासका फल
रसरहित, उज्ज्वल और गुणमय यानी तंतुमय है,

ऐसे सत्पुरुषोंका चरित्र भी
निरस कहे शुद्ध वैराग्ययुक्त व
विशद कहे शुद्धज्ञानवान् और
गुणमय कहे सर्वगुणसंपन्न है ॥ ५ ॥


जैसे कपास
कातना, तानना, आदि अनेक प्रकारके दुःख सहकर
दूसरोंके छिद्र यानी इंद्रियोंकी निर्लजताको ढँकता है,

ऐसे संत लोग भी
अनेक प्रकारके दुःख सहकर
दूसरोंके छिद्र यानी अवगुण छिपाते हैं और
इसीसे जिन्होंने जगत् में सर्वोत्तम यश पाया है
उन्हें मैं वंदन करता हूं ॥ ६ ॥


8

सत्पुरुषोंका समाज परमआनंदमय और मंगलरूप है;

फिर कैसा है कि मानों जगत्
चलता फिरता दूसरा तीर्थराज यानी प्रयागही है ॥ ७ ॥


जैसे प्रयाग में त्रिवेणी बहती हैं,
ऐसे यहां श्रीरामचंद्रजीकी भक्ति है
सो तो श्रीगंगाजीकी धारा है, और

ब्रह्मविचारका प्रचार है
सो श्रीसरस्वतीजीका प्रवाह है ॥ ८ ॥


विधिनिषेधमय कर्मकांडकी कथा है
सो ही उसमें कलिकालके मलको मिटानेवाली
श्रीयमुनारूपसे वर्णन की जाती है ॥ ९ ॥


जिसमें दो तीन चार नदियां और मिल जायँ
उसे वेणी कहते हैं,
सो प्रयागमें जो प्रवाह है उसकी त्रिवेणी संज्ञा है.

सन्तसमाजमें वेणी क्या है
सो कहते हैं कि
हार और हरकी जो कथा है
सो ही यहां वेणी विराजमान है कि
जिसके सुननेसे सर्व प्रकारके मंगल और आनंद प्राप्त हो जाते हैं ॥ १० ॥


यहां अपने धर्ममें जो दृढ विश्वास है,
सो ही अक्षय वट है.

यह सुंदरकर्म करनेवाला संतसमाजरूप तीर्थराज तो
सबको, सब दिन, सब देशों में अतिसुलभ है. ॥ ११ ॥

और प्रयागराजका प्राप्त होना तौ बडा कठिन है.
बिना भाग्य प्राप्त नहीं होता.

जैसे प्रयागराजके सेवनसे सर्व क्लेश कट जाते हैं
ऐसे आदरके साथ सेवन करनेसे
यह सर्व क्लेशोंको मिटा देता है ॥ १२ ॥


अतएव संतसमाजरूप तीर्थराज
एक अकथनीय और अलौकिक तीर्थ है.

जो इसके निकट जाता है
उसको यह उसी क्षण फल देता है;
इसकी यह महिमा प्रसिद्ध ही है ॥ १३ ॥


जो लोग प्रसन्नचित्त होकर
बडे अनुरागके साथ प्रयागराजमें जाकर स्नान करते हैं,
वे मरनेके अनन्तर मोक्षको पाते हैं.

और जो इस सन्तसमाजरूप प्रयागमें जाकर
सुनते हैं समझते हैं
कहे मनन करते हैं
वे मुदित मन कहे निदिध्यासन करते हैं
तथा अतिअनुराग कहे साक्षात् होकर मज्जहिं कहे मग्न होजाते हैं,

वे इसी शरीरके विद्यमान रहते
इसी शरीरसे चारों फल
यानी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष
या (अर्थ निचे दिए गए है) – सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य व सारूप्य
चतुर्विध मोक्षको प्राप्त हो जाते हैं ॥ २ ॥

सालोक्य – भगवानके साथ एक लोकमे रहना
सार्ष्टि – भगवान् के सदृश ऐश्वर्य पाना
सामीप्य – भगवानके निकट रहना
सारूप्य – भगवान् के सामान चतुर्भुज रूप पाना


9

संतसमाजमें
सज्जन यानी मग्न होनेका फल तुरंत देख लीजिये ।

कौआ कोकिला हो जाता है, और
बगुला हंस हो जाता है ॥ १ ॥

इस बातको सुनकर
किसी आदमीको आश्चर्य नहीं करना चाहिये;

क्योंकि सत्संगतिकी महिमा कहीं छिपी हुई नहीं है ॥ २॥


देखो श्रीवाल्मीकिजी कौन थे और
किस पदवीको पहुँचे,

श्रीनारदजी कौन थे और कैसे हुए,

अगस्त्यमुनि कौन थे और कैसे प्रबल हुए;

सो इन लोगोंने अपनी अपनी होनी अपने अपने मुखसे कही है.


श्रीवाल्मीकि मुनिने अपनी होनी
श्रीरामचन्द्रजीसे कही कि
हम पहले बहलिया थे.

मुशाफिरोंको लूटपाट कर
कुटुम्बका भरण पोषण करते थे;

एक दिन सप्तर्षि आ निकले।

उनको मारने चले तो उन्होंने कहा कि
तू अपने घर जाकर यह तो पूंछ आ
कि मैं तुम्हारे वास्ते तो पाप करता हूं
सो तुम पापमें मेरे साझी होवोगे या नहीं.

घरवालोंने जबाब दिया कि
पापमे साझी कौन होवे ?

तब तुरंत हमने आकर ऋषियोंको प्रणाम किया और कहा कि –
महाराज! मुझको इस पापसे बचाओ.

तब ऋषियोंने हमको श्रीराममन्त्रका उपदेश किया;

परंतु मुझ जड़बुद्धिको वैसा स्मरण न रहा,
जिससे “मरा मरा” ऐसा उलटा मन्त्र जपने लगा,

उसीके प्रभावसे मैं आजदिन प्राचेतस हुआ हूं
और मेरे घर साक्षात् परब्रह्म पधारे हैं.

जगतमे जो जड़ और चेतन
नानाप्रकारके जलचर, स्थलचर और आकाशचारी जीव हैं ॥ ४ ॥

और जिसने जब जहां जिस उपायसे
जो बुद्धि, कीर्ति, अच्छी गति, संपदा और भलाई पायी है ॥ ५ ॥
वह सत्संगका प्रताप जानो,
क्योंकि लोक और वेदमें इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ ६ ॥

सत्संगके बिना ज्ञान नहीं होता और
प्रभुकी कृपाविना
वह सत्संगति एकाएक मिल नहीं सकती ॥ ७ ॥


सत्संगति
सब मंगल और आनंदरूप वृक्षका मूल यानी जड़ है.

सिधि यानी सत्पुरुषोंका जो सिद्धान्त है,
सोही इसका फल है; और
जो मोक्षके साधन हैं सो ही फूल हैं ॥ ८ ॥


जैसे लोहा पारससे, सुन्दर धातु यानी कंचन होजाता है;
वैसेही सत्संगति पाकर शठ पुरुष सुधर जाते हैं ॥ ९ ॥

कदाचित् दैवयोगसे सुजन पुरुष कभी कुसंगतिमें जा भी पड़ते हैं;
परंतु वे तो वहां भी सर्पकी मणिके समान अपने गुणकोही धारण करते हैं.
जैसे सर्पमें विष रहनेपर भी मणि विषको नहीं लेती
ऐसेही सुजन पुरुष दुष्टाके अवगुण धारण नहीं करते ॥ १० ॥


10

सत्पुरुषोंकी महिमा ऐसी अपार है कि
ब्रह्मा, विष्णु, महेश और कवि वाल्मीकि,
बृहस्पति और सरस्वती भी उसको कहते सकुचते हैं ॥ ११ ॥

वह महिमा मैं किसी कदर कह नहीं सकता
जैसे साग बेचनेवाला बनिया
रत्नके गुण नहीं कह सकता ॥ १२ ॥

सबमें सम दृष्टि रखनेवाले सत्पुरुषोंको मैं प्रणाम करता हूं कि,
जिनके हित और अनहित यानी भला बुरा कुछभी नहीं है.

जैसे अंजलिमें रहे हुए सुगंधित पुष्प
दोनों हाथोंको बराबर सुगंधित करते हैं,
एकको ज्यादा और एकको कम नहीं करते,
ऐसेही सत्पुरुष सबको एकसा देखते हैं ॥ ३ ॥

श्रीतुलसीदासजी प्रार्थना करते हैं कि
हे सत्पुरुषो !
मैं आपको सरलस्वभाव,
जगतके हितकारी, और
स्वाभाविक स्नेह रखनेवाले जान कर,
विनय करता हूं

सो मुझ अज्ञके विनयको सुनकर
मुझपर कृपा करो और
मुझे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रीति देओ ॥ ४ ॥


आगेतुलसीदासजी दुष्टजनों को भी क्यों प्रणाम करते है?