Sunderkand – 02


<<<< Continued from Sunderkand – 1
For Sunderkand Chapters List, Click >> सुंदरकाण्ड – Index

हनुमानजी की लंकिनी से भेंट

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

हनुमानजी मच्छर के समान, छोटा-सा रूप धारण कर, प्रभु श्री रामचन्द्रजी के नाम का सुमिरन करते हुए लंका में प्रवेश करते है॥

लंका के द्वार पर हनुमानजी की भेंट लंकिनी नाम की एक राक्षसी से होती है॥ वह पूछती है कि मेरा निरादर करके कहा जा रहे हो?

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहाँ तक चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं।
महाकपि हनुमानजी उसे एक घूँसा मारते है, जिससे वह पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ती है।

श्री राम, जय राम, जय जय राम
पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥

वह राक्षसी लंकिनी अपने को सँभालकर फिर उठती है। और डर के मारे हाथ जोड़कर हनुमानजी से कहती है॥

जब ब्रह्मा ने रावण को वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने राक्षसों के विनाश की यह पहचान मुझे बता दी थी कि॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥

जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना।
हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामजी के दूत को अपनी आँखों से देख पाई।

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥

हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है ॥4॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का लंका में प्रवेश

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

अयोध्यापुरी के राजा रघुनाथ को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए।

उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है।

श्री राम, जय राम, जय जय राम
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥

और हे गरुड़! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे राम ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की लंका में सीताजी की खोज

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥

उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सयन किएँ देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥

हनुमानजी ने महल में रावण को सोया हुआ देखा। वहा भी हनुमानजी ने सीताजी की खोज की, परन्तु सीताजी उस महल में कही भी दिखाई नहीं दीं। फिर उन्हें एक सुंदर भवन दिखाई दिया। उस महल में भगवान का एक मंदिर बना हुआ था।

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥5॥

वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए॥ 5॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी की विभीषण से भेंट

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

और उन्हीने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसोंके कुलकी निवासभूमी है। यहाँ सत्पुरुषो के रहने का क्या काम॥

इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥

और जागते ही उन्होंने ‘राम! राम!’ ऐसा स्मरण किया, तो हनुमानजीने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ॥ हनुमानजीने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषोके हाथ कभी कार्यकी हानि नहीं होती॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥

फिर हनुमानजीने ब्राम्हणका रूप धरकर वचन सुनाया तो वह वचन सुनतेही विभीषण उठकर उनके पास आया॥ और प्रणाम करके कुशल पूँछा, की हे विप्र (ब्राह्मणदेव)! जो आपकी बात हो सो हमें समझाकर कहो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥

विभीषणने कहा कि शायद आप कोई भगवन्तोमेंसे तो नहीं हो! क्योंकि मेरे मनमें आपकी ओर बहुत प्रीती बढती जाती है॥

अथवा मुझको बडभागी करने के वास्ते भक्तोपर अनुराग रखनेवाले आप साक्षात दिनबन्धु ही तो नहीं पधार गए हो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥6॥

विभिषणके ये वचन सुनकर हनुमानजीने रामचन्द्रजीकी सब कथा विभीषणसे कही और अपना नाम बताया।

परस्परकी बाते सुनतेही दोनोंके शरीर रोमांचित हो गए और श्री रामचन्द्रजीका स्मरण आ जानेसे दोनों आनंदमग्न हो गए ॥6॥


Next.. (आगे पढें…..) – Sunderkand – 3

For next page of Sunderkand, please visit >>
Click – Sunderkand – 3