अर्गला स्तोत्रम् अर्थ सहित


Argala Stotram Meaning in Hindi

अर्गला स्तोत्र का विनियोग

॥अथ अर्गला स्तोत्रम्॥
ॐ अस्य श्री अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः,
अनुष्टुप छन्दः,
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशती
पाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥
ॐ नमश्चण्डिकायै

ॐ,
श्री अर्गलास्तोत्र मंत्रके
विष्णु ऋषि,
अनुष्टुप छन्द,
श्रीमहालक्ष्मी देवता है।

श्री जगदम्बा की कृपा के लिए
सप्तशती पाठ के पहले इसका विनियोग किया जाता है।

ॐ चंडिका देवी को नमस्कार है।


अर्गला स्तोत्र

माँ जगदम्बा के सभी रूपों को नमस्कार

मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते॥१॥

मार्कण्डेय जी कहते हैं –
जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी,
दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा –
इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके!
तुम्हें मेरा नमस्कार है।


चामुंडा देवी को नमस्कार

जय त्वं देवी चामुण्डे जय भूतार्ति-हारिणि।
जय सर्वगते देवी कालरात्रि नमोऽस्तुते॥२॥

देवी चामुण्डे! तुम्हारी जय हो।

सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवी!
तुम्हारी जय हो।

सब में व्याप्त रहने वाली देवी!
तुम्हारी जय हो।

कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार है॥


मधुकैटभविद्रावि-विधातृ वरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥

मधु और कैटभ को मारने वाली
तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवी!
तुम्हे नमस्कार है।

तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो,
जय (मोह पर विजय) दो,
यश (मोह-विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥

रूप – आत्मस्वरूप का ज्ञान
जय – मोह पर विजय
यश – मोह पर विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश


महिषासुर-निर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ४॥

महिषासुर का नाश करने वाली
तथा भक्तों को सुख देने वाली देवी!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


रक्तबीज-वधे देवी चण्डमुण्ड-विनाशिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥५॥

रक्तबीज का वध और
चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवी!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ६॥

शुम्भ और निशुम्भ
तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवी!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


वन्दिताङ्घ्रि-युगे देवी सर्वसौभाग्य-दायिनी।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ७॥

सबके द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली
तथा सम्पूर्ण सौभग्य प्रदान करने वाली देवी!

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


अचिन्त्यरूप-चरिते सर्वशत्रु-विनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ८॥

देवी! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं।
तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ९॥

पापों को दूर करने वाली चण्डिके!
जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में
सर्वदा (हमेशा) मस्तक झुकाते हैं,

उन्हें ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


स्तुवद्भ्यो (स्तु-वद भ्यो) भक्तिपूर्वं त्वाम चण्डिके व्याधि-नाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥

रोगों का नाश करने वाली चण्डिके!
जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं,

उन्हें तुम ज्ञान दो, विजय दो, यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह (त्वाम-अर्चयन्तीह) भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ ११॥

चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं,

उन्हें ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


देहि सौभाग्यमारोग्यं (सौभाग्यम-आरोग्यं) देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १२॥

मुझे सौभाग्य और आरोग्य (स्वास्थ्य) दो।
परम सुख दो।

मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १३॥

जो मुझसे द्वेष करते हों, उनका नाश और
मेरे बल की वृद्धि करो।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


विधेहि देवी कल्याणम् विधेहि परमां श्रियम।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १४॥

देवी! मेरा कल्याण करो।
मुझे उत्तम संपत्ति प्रदान करो।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


सुरसुर-शिरोरत्न-निघृष्ट-चरणेम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १५॥

अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही
अपने माथे के मुकुट की मणियों को,
तुम्हारे चरणों पर रखते हैं।

तुम रूप, जय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १६॥

तुम अपने भक्तजन को, विद्वान,
यशस्वी, और लक्ष्मीवान बनाओ तथा

ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


प्रचण्ड-दैत्य-दर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १७॥

प्रचंड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके!
मुझ शरणागत को, ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १८॥

चतुर्भुज ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित,
चार भुजाधारिणी परमेश्वरि!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


कृष्णेन संस्तुते देवी शश्वत भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ १९॥

देवी अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य-निरंतर भक्तिपूर्वक
तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं।

तुम रूप दो, जय दो, यश दो और
काम-क्रोध का नाश करो॥


हिमाचल-सुतानाथ-संस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ २०॥

हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा
प्रशंसित होने वाली परमेश्वरि!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध का नाश करो॥


इन्द्राणीपति-सद्भाव-पूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ २१॥

शचीपति इंद्र के द्वारा
सद्भाव से पूजित होने वाली परमेश्वरि!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम रूप दो, जय दो, यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


देवी प्रचण्डदो-र्दण्ड दैत्यदर्प विनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ २२॥

प्रचंड भुजदण्डों वाले दैत्यों का
घमंड चूर करने वाली देवी!
तुम्हें नमस्कार है।

तुम मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


देवी भक्तजनोद्दाम-दत्तानन्दोदये अम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ २३॥

देवी! अम्बिके, तुम अपने भक्तजनों को
सदा असीम आनंद प्रदान करती हो।

मुझे ज्ञान, विजय और यश दो और
काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो॥


पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानु-सारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥

मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार से तारने वाली
तथा उत्तम कुल में जन्मी हो॥


इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशती संख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्। ॐ॥२५॥

जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके,
सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है,
वह सप्तशती की जप-संख्या से मिलने वाले
श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है।

साथ ही वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है॥

॥इति देव्या अर्गला स्तोत्रं सम्पूर्णम॥

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते॥



दुर्गा सप्तशती


देवी माहात्म्य



देवी माँ की आरती

कीलक स्तोत्र – अर्थ सहित – देवी माहात्म्य


Kilak Stotra with Meaning in Hindi

दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा माहात्म्य के इस कीलक स्तोत्र अध्याय में भगवान् शिव ने दुर्गा सप्तशती के पाठ का महत्व बताया है। साथ ही इसे कीलक स्तोत्र क्यों कहा जाता है, यह भी दिया गया है।

शिवजी ने यह भी बताया की सप्तशती के पाठ से जो पुण्य मिलता है, वह कभी समाप्त नहीं होता।

कीलक स्तोत्र के इस अध्याय में 14 श्लोक आते हैं।


इस लेख में कीलक स्तोत्र के सभी 14 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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कीलक स्तोत्र – देवी माहात्म्य

विनियोग

अथ कीलकम्
ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य
शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीमहासरस्वती देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं
सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

ॐ इस श्रीकीलकमंत्रके शिव ऋषि,
अनुष्टुप् छन्द,
श्रीमहासरस्वती देवता हैं।

श्रीजगदम्बाकी प्रीतिके लिए
सप्तशतीके पाठ के जपमें
इसका विनियोग किया जाता है।

ॐ नमश्चण्डिकायै॥


भगवान् शिव को नमस्कार

मार्कण्डेय उवाच
ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥१॥

ॐ चण्डिकादेवीको नमस्कार है।

मार्कण्डेयजी कहते हैं –
विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है,
जो कल्याण-प्राप्तिके हेतु हैं
तथा अपने मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण करते हैं,
उन भगवान् शिवको नमस्कार है ॥१॥


कीलकका निवारण करनेवाला

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः ॥२॥

मन्त्रोंका जो अभिकीलक है,
अर्थात् मन्त्रोंकी सिद्धिमें विघ्न उपस्थित करनेवाले शापरूपी कीलकका
जो निवारण करनेवाला
है,
उस सप्तशतीस्तोत्रको सम्पूर्णरूपसे जानना चाहिये।
(और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये)

यद्यपि सप्तशतीके अतिरिक्त अन्य मन्त्रोंके जपमें भी
जो निरन्तर लगा रहता है,
वह भी कल्याणका भागी होता है ॥२॥


अन्य मन्त्र और सप्तशती की स्तुति में समानता

सिद्ध्‍यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्‍यति ॥३॥

उसके भी (अन्य मन्त्रोंका जप करनेवालों के)
उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं तथा
उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति हो जाती है;

तथापि जो अन्य मन्त्रोंका जप न करके,
केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्रसे ही देवीकी स्तुति करते हैं,
उन्हें स्तुतिमात्रसे ही सच्चिदानन्द स्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं ॥३॥


सप्तशती पाठ से सभी कार्य सिद्ध

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्‍येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ॥४॥

उन्हें अपने कार्यकी सिद्धिके लिये मन्त्र, ओषधि तथा
अन्य किसी साधनके उपयोगकी आवश्यकता नहीं रहती।

बिना जपके ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं ॥४॥


तो सप्तशती और अन्य मन्त्रों में फर्क क्या?

समग्राण्यपि सिद्ध्‍यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ॥५॥

इतना ही नहीं,
उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं।

लोगोंके मनमें यह शंका थी कि –
जब केवल सप्तशतीकी उपासनासे अथवा
सप्तशतीको छोड़कर अन्य मन्त्रोंकी उपासनासे भी
समानरूपसे सब कार्य सिद्ध होते हैं,
तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?

लोगोंकी इस शंकाको सामने रखकर भगवान् शंकरने
अपने पास आये हुए जिज्ञासुओंको समझाया कि
यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है ॥५॥


सप्तशती के पाठ से मिला पुण्य कभी समाप्त नहीं होता

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम् ॥६॥

तदनन्तर भगवती चण्डिकाके सप्तशती नामक स्तोत्रको
महादेवजीने गुप्त कर दिया।

सप्तशतीके पाठसे जो पुण्य प्राप्त होता है,
उसकी कभी समाप्ति नहीं होती;
किंतु अन्य मन्त्रोंके जपजन्य पुण्यकी समाप्ति हो जाती है।

अतः भगवान् शिवने अन्य मन्त्रोंकी अपेक्षा
जो सप्तशतीकी ही श्रेष्ठताका निर्णय किया,
उसे यथार्थ ही जानना चाहिये ॥६॥


सप्तशती का पाठ कौनसी तिथि को?

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ॥७॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ॥८॥

अन्य मन्त्रोंका जप करनेवाला पुरुष भी
यदि सप्तशतीके स्तोत्र और जपका अनुष्ठान कर ले
तो वह भी पूर्णरूपसे ही कल्याणका भागी होता है,
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

जो साधक कृष्णपक्षकी चतुर्दशी अथवा
अष्टमीको एकाग्रचित्त होकर
भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और
फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है,
उसीपर भगवती प्रसन्न होती हैं;
अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती।

इस प्रकार सिद्धिके प्रतिबन्धकरूप कीलके द्वारा
महादेवजीने इस स्तोत्रको कीलित कर रखा है ॥७-८॥


सप्तशती से भक्तों पर देवी की कृपा

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः ॥९॥

जो पूर्वोक्त रीतिसे निष्कीलन करके
इस सप्तशतीस्तोत्रका प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है,
वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है,
वही देवीका पार्षद होता है और
वही गन्धर्व भी होता है ॥९॥


सप्तशती स्तुति से मोक्ष और भयमुक्ति

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ॥१०॥

सर्वत्र विचरते रहनेपर भी
इस संसारमें उसे कहीं भी भय नहीं होता।

वह अपमृत्युके वशमें नहीं पड़ता
तथा देह त्यागनेके अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१०॥


कीलक और निष्कीलनका ज्ञान

ज्ञात्वा प्रारथ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ॥११॥

कीलनको जानकर उसका परिहार करके,
अर्थात कीलक और निष्कीलनका ज्ञान प्राप्त करनेपर,
सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे॥११॥

इस श्लोक में ज्ञानकी अनिवार्यता यानी की महत्ता बतायी गयी है। किन्तु किसी भी प्रकार देवीका पाठ करें, देवीकी स्तुति करें और देवीके मन्त्रों का जाप करे, उससे लाभ ही होता है।


कल्याणमय सप्तशती स्तोत्र का नित्य जाप

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद्‌ दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम् ॥१२॥

स्त्रियोंमें जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है,
वह सब देवीके प्रसादका ही फल है।

अतः इस कल्याणमय स्तोत्रका सदा जप करना चाहिये ॥१२॥


सप्तशती के अध्यायों के पाठ से पूर्ण फल की प्राप्ति

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्त्रोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ॥१३॥

इस स्तोत्रका मन्दस्वरसे पाठ करनेपर
स्वल्प फलकी प्राप्ति होती है और
उच्चस्वरसे पाठ करनेपर पूर्ण फलकी सिद्धि होती है।

अतः उच्चस्वरसे ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये ॥१३॥


माँ जगदम्बा की कृपा से आरोग्य, ऐश्वर्य, सौभाग्य और मोक्ष

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ॥ॐ॥१४॥

जिनके प्रसादसे ऐश्वर्य, सौभाग्य,
आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश
तथा परम मोक्षकी भी सिद्धि होती है,
उन कल्याणमयी जगदम्बाकी स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते? ॥१४॥

इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।



दुर्गा सप्तशती


देवी माहात्म्य



देवी माँ की आरती

रात्रिसूक्तम् – अर्थ सहित


वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्‌ – तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम् – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index


अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्‌

ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्य कुशिकः
सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः,
रात्रिर्देवता, गायत्री छन्दः,
देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।


ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः।
विश्वा अधि श्रियोऽधित॥१॥

महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियोंसे
सब देशोंमें समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाली ये रात्रिरूपा देवी
अपने उत्पन्न किये हुए जगत्‌के जीवोंके शुभाशुभ कर्मोंको विशेषरूपसे देखती हैं और
उनके अनुरूप फलकी व्यवस्था करनेके लिये समस्त विभूतियोंको धारण करती हैं॥१॥


ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः।
ज्योतिषा बाधते तमः॥२॥

ये देवी अमर हैं और
सम्पूर्ण विश्वको, नीचे फैलनेवाली लता आदिको
तथा ऊपर बढ़नेवाले वृक्षोंको भी व्याप्त करके स्थित हैं;

इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योतिसे
जीवोंके अज्ञानान्धकारका नाश कर देती हैं॥२॥


निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती।
अपेदु हासते तमः॥३॥

परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर
अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवीको प्रकट करती हैं,
जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है॥३॥


सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि।
वृक्षे न वसतिं वयः॥४॥

वे रात्रिदेवी इस समय मुझपर प्रसन्न हों,
जिनके आनेपर हमलोग अपने घरोंमें सुखसे सोते हैं –
ठीक वैसे ही, जैसे रात्रिके समय
पक्षी वृक्षोंपर बनाये हुए अपने घोंसलोंमें सुखपूर्वक शयन करते हैं॥४॥


नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः।
नि श्येनासश्चिदर्थिन:॥५॥

उस करुणामयी रात्रिदेवीके अंकमें
सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य,
पैरोंसे चलनेवाले गाय, घोड़े आदि पशु,
पंखोंसे उड़नेवाले पक्षी एवं पतंग आदि,
किसी प्रयोजनसे यात्रा करनेवाले पथिक और
बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं॥५॥


यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये।
अथा नः सुतरा भव॥६॥

हे रात्रिमयी चिच्छक्ति!
तुम कृपा करके वासनामयी वृकी
तथा पापमय वृकको हमसे अलग करो।

काम आदि तस्करसमुदायको भी दूर हटाओ।

तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरनेयोग्य हो जाओ –
मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ॥६॥


उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित।
उष ऋणेव यातय॥७॥

हे उषा! हे रात्रिकी अधिष्ठात्री देवी!
सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार
मेरे निकट आ पहुँचा है।

तुम इसे ऋणकी भाँति दूर करो –
जैसे धन देकर अपने भक्तोंके ऋण दूर करती हो,
उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञानको भी हटा दो॥७॥


उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः।
रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥८॥

हे रात्रिदेवी! तुम दूध देनेवाली गौके समान हो।

मैं तुम्हारे समीप आकर
स्तुति आदिसे तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ।

परम व्योमस्वरूप परमात्माकी पुत्री!
तुम्हारी कृपासे मैं काम आदि शत्रुओंको जीत चुका हूँ,
तुम स्तोमकी भाँति मेरे इस हविष्यको भी ग्रहण करो॥८॥


अथ तन्त्रोक्तं रात्रिसूक्तम्

ॐ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥१॥

जो इस विश्व की अधीश्वरी,
जगत को धारण करने वाली,
संसार का पालन और संहार करने वाली,
तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं,
उन्हीं भगवती निद्रादेवी की ब्रह्माजी स्तुति करने लगे।


ब्रह्मोवाच त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥२॥

ब्रह्मा जी ने कहा – देवि!
तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तम्ही वषट्कार हो।
स्वर भी, तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो।

नित्य अक्षर प्रणव में,
अकार, उकार, मकार –
इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो, तथा


अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा॥३॥

इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त
जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है,
जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता,
वह भी तुम्हीं हो।

देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।


त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा॥४॥

देवि! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो।
तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है।

तुम्हीं से इसका पालन होता है और
सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।


विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये॥५॥

जगन्मयी देवि!
इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो,
पालन-काल में स्थितिरूपा हो
तथा कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।


महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः।
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी॥६॥

तुम्हीं महाविद्या, महामाया,
महामेधा, महास्मृति, महामोह रूपा,
महादेवी और महासुरी हो।


प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ॥७॥

तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली
सबकी प्रकृति हो।

भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और
मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।


त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च॥८॥

तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और
तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।

लज्जा, पुष्टि, तुष्टि,
शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।


खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ॥९॥

तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा
तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो।

बाण, भुशुण्डी और परिघ –
ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।


सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी॥१०॥

तुम सौम्य और सौम्यतर हो।

सौम्य अर्थात विनम्रता, शीतलता, सुशीलता, कोमलता
इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं,
उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो।

पर और अपर, इन सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।


यच्च किञ्चित् क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा॥११॥

सर्वस्वरूपे देवि!
कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और
उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो।

ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।


यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥१२॥

जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं,
उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है,
तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है।


विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्॥१३॥

मुझको, भगवान शंकर को
तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है।


सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥१४॥

अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है।

देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।


प्रबोधं जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥१५॥

ये जो दोनों असुर मधु और कैटभ हैं,
इनको मोह में डाल दो, और
जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो।

साथ ही इनके भीतर इन दोनों असुरों को,
मधु और कैटभ को,
मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।

इति रात्रिसूक्तम् ।



दुर्गा सप्तशती


देवी माहात्म्य



देवी माँ की आरती

Durga Saptashati – Adhyay 13 with Meaning


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दुर्गा सप्तशती अध्याय – Index

दुर्गा सप्तशती क्या है और उसे पढ़ने से मनुष्य को कोई लाभ मिलता है या नहीं, जानने के लिए पढ़े –

दुर्गा सप्तशती क्या है और क्यों पढ़ना चाहिए?

What is Durga Saptashati and Why You Should Read it?


दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 में, सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अंतिम अध्याय में 29 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 के सभी 29 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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माँ दुर्गा को नमस्कार


॥ध्यानम्॥
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्‌कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे॥

ध्यान

जो उदयकालके सूर्यमण्डलकी-सी कान्ति धारण करनेवाली हैं, जिनके चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं तथा जो अपने हाथोंमें पाश, अंकुश, वर एवं अभयकी मुद्रा धारण किये रहती हैं, उन शिवादेवीका मैं ध्यान करता (करती) हूँ।

कल्याणदायिनी माँ शिवा को प्रणाम

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ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।
एवंप्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत्॥२॥

मेधा ऋषि कहते हैं –
राजन्! इस प्रकार मैंने तुमसे देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया, जो इस जगत को धारण करती हैं, उन देवी का ऐसा ही प्रभाव है।

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विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया।
तया त्वमेष वैश्‍यश्‍च तथैवान्ये विवेकिनः॥३॥
मोह्यन्ते मोहिताश्‍चैव मोहमेष्यन्ति चापरे।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्‍वरीम्॥४॥

वे ही विद्या, उत्पन्न करती है।

भगवान विष्णु की मायास्वरूपा उन भगवती के द्वारा ही तुम, ये वैश्य तथा अन्यान्य विवेकी जन मोहित होते हैं, मोहित हुए हैं तथा आगे भी मोहित होंगे।

महाराज! तुम उन्हीं परमेश्वरी की शरण में जाऒ।

जगतजननी माँ भगवती को नमस्कार

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आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥

आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं।

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मार्कण्डेय उवाच॥६॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः॥७॥
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं शंसितव्रतम्।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च॥८॥

मार्कंडेयजी कहते हैं –
मेधा मुनि के ये वचन सुनकर राजा सुरथ ने उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन महाभाग महर्षि को प्रणाम किया।

वे अत्यंत ममता और राज्य के छिन जाने से बहुत खिन्न हो चुके थे।

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जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने।
संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः॥९॥

महामुने! इसलिए विरक्त होकर राजा तथा वैश्य तत्काल तपस्या को चले गए और वे जगदम्बा के दर्शन के लिए नदी के तट पर रहकर तपस्या करने लगे।

माँ जगदम्बा को प्रणाम
हे देवी माँ, हमें सद्बुद्धि दो

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स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्।
तौ तस्मिन पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम्॥१०॥

वे वैश्य उत्तम देवीसूक्त का जप करते हुए तपस्या में प्रवृत हुए।

वे दोनों नदी के तटपर देवी की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पुष्प, धूप और हवन आदि के द्वारा उनकी आराधना करने लगे।

माँ भवानी को नमस्कार

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अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः।
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥११॥

उन्होंने पहले तो आहार को धीरे-धीरे कम किया।

फिर बिलकुल निराहार रहकर देवी में ही मन लगाए एकाग्रता पूर्वक उनका चिंतन आरम्भ किया।

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ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥

वे दोनों लगातार तीन वर्ष तक संयमपूर्वक आराधना करते रहे।

अम्बा माता को प्रणाम

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परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका॥१३॥

इसपर प्रसन्न होकर जगतको धारण करनेवाली चंडिका देवी ने दर्शन देकर कहा –

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देव्युवाच॥१४॥
यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥१५॥

देवी बोली –
राजन्! तथा अपने कुल को आनंदित करने वाले वैश्य! तुम लोग जिस वस्तु की अभिलाषा रखते हो, वह मुझसे मांगो। मैं संतुष्ट हूं, अत: तुम्हें वह सब कुछ दूंगी।

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मार्कण्डेय उवाच॥१६॥
ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्‍यन्यजन्मनि।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥१७॥

मार्कंडेयजी कहते हैं –
तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य मांगा तथा इस जन्म में भी शत्रुऒं की सेना को बलपूर्वक नष्ट करके पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लेने का वरदान मांगा।

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सोऽपि वैश्‍यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्‌गविच्युतिकारकम्॥१८॥

वैश्य का चित्त संसार की ऒर से खिन्न एवं विरक्त हो चुका था और वे बड़े बुद्धिमान थे।

अत: उस समय उन्होंने तो ममता और अहंता रूप आसक्ति का नाश करने वाला ज्ञान मांगा।

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देव्युवाच॥१९॥
स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान्॥२०॥

देवी बोलीं –
राजन्! तुम थोड़े ही दिनोंमें शत्रुऒं को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लोगे।

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हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥२१॥

अब वहां तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा।

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मृतश्‍च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः॥२२॥
सावर्णिको नाम* मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥२३॥

फिर मृत्यु के पश्चात् तुम भगवान् विवस्वान (सूर्य) के अंश से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात होऒगे।

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वैश्‍यवर्य त्वया यश्‍च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः॥२४॥

वैश्यवर्य!
तुमने भी जिस वर को मुझसे प्राप्त करने की इच्छा की है, उसे देती हूं।

तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान प्राप्त होगा।

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मार्कण्डेय उवाच॥२६॥
इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥२७॥
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥२८॥

मार्कंडेयजी कहते हैं –
इस प्रकार उन दोनों को मनोवांछित वरदान देकर तथा उनके द्वारा भक्तिपूर्वक अपनी स्तुति सुनकर देवी अम्बिका तत्काल अंतर्धान हो गईं।

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सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥२९॥
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः॥क्लीं ॐ॥

इस तरह देवी से वरदान पाकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ सूर्य से जन्म ले सावर्णिक नामक मनु होंगे।

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इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत देवी माहाम्य में सुरथ और वैश्य को वरदान नामक तेरहवां अध्याय पूरा हुआ।







 

दुर्गा सप्तशती अध्याय – Index

दुर्गा चालीसा – नमो नमो दुर्गे सुख करनी


1.

नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥

2.

निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
तिहूँ लोक फैली उजियारी॥


3.

शशि ललाट, मुख महाविशाला।
नेत्र लाल, भृकुटि विकराला॥

4.

रूप मातु को अधिक सुहावे।
दरश करत जन अति सुख पावे॥


5.

तुम संसार शक्ति लै कीना।
पालन हेतु अन्न धन दीना॥

6.

अन्नपूर्णा हुई जग पाला।
तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥


7.

प्रलयकाल सब नाशन हारी।
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥

8.

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥


9.

रूप सरस्वती को तुम धारा।
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥


10.

धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।
परगट भई फाड़कर खम्बा॥

11.

रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥


12.

लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।
श्री नारायण अंग समाहीं॥

13.

क्षीरसिन्धु में करत विलासा।
दयासिन्धु दीजै मन आसा॥


14.

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।
महिमा अमित न जात बखानी॥

15.

मातंगी अरु धूमावति माता।
भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥

16.

श्री भैरव तारा जग तारिणी।
छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥


17.

केहरि वाहन सोहे भवानी।
लंगुर वीर चलत अगवानी॥

18.

कर में खप्पर खड्ग विराजे।
जाको देख काल डर भाजे॥


19.

सोहै अस्त्र और त्रिशूला।
जाते उठत शत्रु हिय शूला॥

20.

नगरकोट में तुम्हीं विराजत।
तिहुँलोक में डंका बाजत॥


21.

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे।
रक्तबीज शंखन संहारे॥

22.

महिषासुर नृप अति अभिमानी।
जेहि अघ भार मही अकुलानी॥


23.

रूप कराल कालिका धारा।
सेन सहित तुम तिहि संहारा॥

24.

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब।
भई सहाय मातु तुम तब तब॥


25.

अमरपुरी अरु बासव लोका।
तब महिमा सब रहें अशोका॥

26.

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥


27.

प्रेम भक्ति से जो यश गावें।
दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥

28.

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।
जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥


29.

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥

30.

शंकर आचारज तप कीनो।
काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥


31.

निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।
काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥

32.

शक्ति रूप का मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो॥


33.

शरणागत हुई कीर्ति बखानी।
जय जय जय जगदम्ब भवानी॥

34.

भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥


35.

मोको मातु कष्ट अति घेरो।
तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥

36.

आशा तृष्णा निपट सतावें।
मोह मदादिक सब बिनशावें॥


37.

शत्रु नाश कीजै महारानी।
सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥

38.

करो कृपा हे मातु दयाला।
ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला॥


39.

जब लगि जिऊँ दया फल पाऊँ।
तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊँ॥

40.

श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।
सब सुख भोग परमपद पावै॥


41.

देवीदास शरण निज जानी।
करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥


1.

दुर्गति नाशिनि दुर्गा जय जय,
काल विनाशिनि काली जय जय।
उमा रमा ब्रह्माणि जय जय,
राधा-सीता-रुक्मिणि जय जय॥


2.

जय जय दुर्गा, जय माँ तारा।
जय गणेश, जय शुभ-आगारा॥
जयति शिवा-शिव जानकि-राम।
गौरी-शंकर सीताराम॥

Durga Saptashati – Adhyay 12 with Meaning


<< दुर्गा सप्तशती अध्याय 11

दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा सप्तशती क्या है और उसे पढ़ने से मनुष्य को कोई लाभ मिलता है या नहीं, जानने के लिए पढ़े –

दुर्गा सप्तशती क्या है और क्यों पढ़ना चाहिए?

What is Durga Saptashati and Why You Should Read it?


दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 में क्या आता है, और क्यों पढ़ना चाहिए?

सप्तशती के पिछले अध्यायों में बताया गया था कि कैसे समय समय पर राक्षसों और दैत्यों का संहार करके, देवी माँ जगतकी और देवताओं की रक्षा करती है।

सप्तशती के इस बारहवे अध्याय में, खुद देवी ने देवताओं को देवी माहात्म्य और सप्तशती पढ़ने और सुनने के लाभ के बारें में बताया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 41 श्लोक आते हैं।

इस अध्याय में यह बताया गया है कि कैसे सप्तशती के पाठ से भक्त की संकटों और विपत्तियों से रक्षा होती है, बाधाएं दूर होती है और भय, रोग आदि से मुक्ति मिलती है।

साथ ही साथ यह भी विस्तार से दिया गया है कि देवी चरित्र का स्मरण, भक्त की स्थान-स्थान पर कैसे रक्षा करता है, जैसे की सुने मार्ग में, शत्रुओं से घिर जाने पर आदि।

माँ दुर्गा को नमस्कार


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 के सभी 41 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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सम्पूर्ण अध्याय 12 सिर्फ हिंदी में पढ़ने के लिए, अर्थात सभी श्लोक हाईड (hide) करने के लिए क्लिक करें –

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इस अध्याय के सभी श्लोक अर्थ सहित पढ़ने के लिए (यानी की सभी श्लोक unhide या show करने के लिए) क्लिक करें  –

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जगतजननी माँ भगवती को नमस्कार


दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 का ध्यान

दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 के पहले ध्यान कैसे करें?

॥ध्यानम्॥
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्‍चक्रगदासिखेटविशिखांश्‍चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

ध्यान

मैं तीन नेत्रोंवाली दुर्गादेवीका ध्यान करता (करती) हूँ।

उनके श्रीअंगोकी प्रभा बिजलीके समान है।

हाथोंमें तलवार और ढाल लिये अनेक कन्याएँ उनकी सेवामें खड़ी हैं।

वे अपने हाथोंमें, चक्र, गदा, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और तर्जनी मुद्रा धारण किये हुए हैं।

उनका स्वरूप अग्रिमय है तथा वे माथेपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करती हैं।

देवी माँ को नमस्कार।
अग्रिमय स्वरूपा, शस्त्र धारण किये हुए, तीन नेत्रोंवाली दुर्गादेवी का ध्यान।

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माँ दुर्गा, देवताओं को, सप्तशती पाठ के लाभ बताती है

सप्तशती का ध्यानपूर्वक पाठ या स्तुति करने से क्या लाभ होता है?

ॐ देव्युवाच॥१॥
एभिः स्तवैश्‍च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः।
तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्॥२॥

देवी बोलीं –
देवताऒं! जो एकाग्रचित होकर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा ध्यान करेगा, उसकी सारी बाधाएं मैं निश्चय ही दूर कर दूंगी।

माँ भवानी को नमस्कार।
हे देवी माँ, हमारे संकट दूर करो।

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कौन-कौन से राक्षसों के संहार के प्रसंग का पाठ करें?

मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम्।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद् वधं शुम्भनिशुम्भयोः॥३॥

जो मनुष्य निचे दिए हुए प्रसंगों का पाठ करेंगे –

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देवी माहात्म्य का श्रवण कौन-कौन सी तिथियों को करना चाहिए?

अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम्॥४॥

तथा अष्टमी, चतुर्दशी और नवमी को जो एकाग्रचित भक्तिपूर्वक मेरा माहात्म्य का श्रवण करेंगे,

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ऊपर दिए गए विधि से सप्ताशती पाठ करने से क्या लाभ होगा?

न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद् दुष्कृतोत्था न चापदः।
भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम्॥५॥

शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः।
न शस्त्रानलतोयौघात्कदाचित्सम्भविष्यति॥६॥

– उन्हें कोई पाप नहीं छू सकेगा,
– उन पर पापजनित आपत्तियां भी नहीं आएंगी,
– उनके घर में दरिद्रता नहीं होगी तथा
– उनको कभी प्रेमीजनों के विछोह का कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा।

लुटेरों से, शत्रु से, अग्नि, जल और शस्त्र से भय नहीं होता

इतना ही नहीं, उन्हें शत्रु से, लुटेरों से, राजा से, शस्त्र से, अग्नि से तथा जलराशि से भी
कभी भय नहीं होगा।

माँ दुर्गा को नमस्कार

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भक्तिपूर्वक देवी माहात्म्य क्यों सुनना और पढ़ना चाहिए?

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत्॥७॥

इसलिए सबको एकाग्रचित होकर भक्तिपूर्वक मेरे इस माहात्म्य को सदा पढना और सुनना चाहिए।

यह परम कल्याणकारक है।

कल्याणदायिनी शिवा को नमस्कार।
हे देवी माँ, हमें सद्बुद्धि दो।

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उपद्रव, उत्पात और विपत्तियों को कैसे दूर करें?

उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान्।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम॥८॥

मेरा महात्म्य, महामारीजनित समस्त उपद्रवों एवं तीनों प्रकार के उत्पातोंको
शांत करने वाला है।

लक्ष्मी माता को प्रणाम

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किस स्थान पर देवी सदा निवास करती है, और उनकी कृपा बनी रहती है?

यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्‌नित्यमायतने मम।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्यं तत्र मे स्थितम्॥९॥

मेरे जिस मंदिर में प्रतिदिन विधिपूर्वक मेरे इस माहात्म्य का पाठ किया जाता है, उस स्थान को मैं कभी नहीं छोड़ती।

वहां सदा ही मेरा सन्निधान बना रहता है, अर्थात निवास रहता है।

कण कण में व्याप्त
शक्तिस्वरूपा माँ को नमस्कार

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देवी माहात्म्य का पूरा पाठ और हवन कब करना चाहिए?

बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे।
सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च॥१०॥

पूजा, होम तथा महोत्सव के अवसरों पर मेरे इस चरित्र का पूरा-पूरा पाठ और हवन करना चाहिए।

माँ चंडी को नमस्कार।

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क्या पूजा विधि को सम्पूर्ण जानना जरूरी है?

जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्।
प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम्॥११॥

ऐसा करने पर मनुष्य विधि को जानकर या बिना जाने भी, मेरे लिए जो पूजा या होम आदि करेगा, उसे मैं बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्रहण करूंगी।

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शरद काल में देवी की महापूजा का क्या महत्व है?

शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः॥१२॥

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥१३॥

धन धान्य की सम्पन्नता के लिए क्या करे?

शरद काल में जो वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसर पर जो मेरे इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाऒं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

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देवी के पराक्रम की कथाएं सुनने से क्या लाभ होता है?

श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान्॥१४॥

मेरे इस माहात्म्य, मेरे प्रादुर्भाव की सुंदर कथाएं तथा युद्ध में किए हुए मेरे पराक्रम सुनने से मनुष्य निर्भय हो जाता है।

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देवी माहात्म्य का श्रद्धापूर्वक श्रवण करने से कौन-कौन से फल की प्राप्ति होती है?

रिपवः संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम्॥१५॥

मेरे माहात्म्य का श्रवण करने वाले पुरुषों के शत्रु नष्ट हो जाते हैं, उहें कल्याण की प्राप्ति होती है, तथा उनका कुल आनंदित रहता है।

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पीड़ा से मुक्ति और जीवन में शांति के लिए क्या करना चाहिए?

शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम॥१६॥

सर्वत्र शांति-कर्म में, बुरे स्वप्न दिखायी देने पर, तथा ग्रहजनित भयंकर पीड़ा उपस्थित होने पर मेरा माहात्म्य श्रवण करना चाहिए।

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विघ्न दूर करने और ग्रह-पीड़ाएं शांत करने के लिए क्या करें?

उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्‍च दारुणाः।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते॥१७॥

इससे (अर्थात देवी सप्तशती के श्रवण और पढ़ने से) सब विघ्न तथा भयंकर ग्रह-पीड़ाएं शांत हो जाती हैं, और मनुष्यों द्वारा देखा हुआ दु:स्वप्र यानी की बुरा स्वप्न भी
शुभ स्वप्न में परिवर्तित हो जाता है।

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देवी माहात्म्य का पाठ कैसे मनुष्य जीवन मे शांतिकारक है?

बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम्।
संघातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम्॥१८॥

बालग्रहों से आक्रांत हुए बालकों के लिए यह माहात्म्य शांतिकारक है।

मनुष्योंके संगठन में फूट होने पर यह मित्रता कराने वाला होता है।

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सप्तशती का पाठ कैसे भक्त की रक्षा करता है?

दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम्।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम्॥१९॥

यह माहात्म्य समस्त दुराचारियों के बल का नाश कराने वाला है।

इसके पाठमात्र से राक्षसों, भूतों और पिशाचों का, नाश हो जाता है।

मेरा यह सब माहात्म्य मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

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क्या एक बार का सप्तशती श्रवण भी लाभकारी है?

सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम्।
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्‍च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः॥२०॥

विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम्।
अन्यैश्‍च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या॥२१॥

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति॥२२॥

एक बार का सप्तशती श्रवण, कौन-कौन सी पूजा-आराधनाओं से बढ़कर है?

पुष्प, अर्घ्य, धूप, दीप, गंध आदि से पूजन करने से,
ब्राह्मण भोज से, होम से,
प्रतिदिन अभिषेक करने से,
नाना प्रकार के भोगों के अर्पण से
तथा दान आदि से,
एक वर्ष तक मेरी आराधना से मुझे जितनी प्रसन्नता होती है, –

उतनी प्रसन्नता
मेरे इस उत्तम चरित्रका
एक बार श्रवण करनेमात्रसे हो जाती है।

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रोग, दुःख और पापों से मुक्ति के लिए क्या करें?

प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृत्सुचरिते श्रुते।
श्रुतं हरति पापानि तथाऽऽरोग्यं प्रयच्छति॥२२॥

यह माहात्म्य, श्रवण करने पर पापोंको हर लेता है और आरोग्य प्रदान करता है।

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देवी के प्रादुर्भाव और युद्धविषयक चरित्र पढ़ने से क्या लाभ होता है?

रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम्॥२३॥

मेरे प्रादुर्भाव का कीर्तन समस्त भूतों से रक्षा करता है, तथा मेरा युद्धविषयक चरित्र
दुष्ट दैत्यों का संहार करने वाला है।

इसके श्रवण करनेपर मनुष्यों को शत्रु का भय नहीं रहता।

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ब्रह्माजी ने और ब्रह्मर्षियों ने जो देवी की स्तुति की, उस पर देवी माँ ने क्या कहा?

तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते।
युष्माभिः स्तुतयो याश्‍च याश्‍च ब्रह्मर्षिभिःकृताः॥२४॥

देवताऒं! तुमने और ब्रह्मर्षियों ने जो मेरी स्तुतियां की हैं।

तथा ब्रह्माजी ने जो स्तुतियां की हैं, वे सभी कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं।

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देवी चरित्र का स्मरण, स्थान स्थान पर रक्षा करता है

सुनसान मार्ग में अथवा निर्जन स्थान में देवी चरित्र स्मरण कैसे रक्षा करता है?

ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभां मतिम्।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः॥२५॥

दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः॥२६॥

– वन में, सुने मार्ग में (वीरान मार्ग में), दावानल से घिर जाने पर,
– निर्जन स्थान में लुटेरों के दांव में पड़ जाने पर या शत्रुऒं से पकड़े जाने पर,
– अथवा जंगल में सिंह, बाघ या जंगली हाथियों के पीछा करने पर

मेरे चरित्र का स्मरण करने से कष्टों से रक्षा होती है।

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महासागर में तूफ़ान और बुरे राजा से रक्षा

राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे॥२७॥

कुपित राजा के आदेशसे वध या बंधन के स्थान में ले जाए जाने पर, महासागरमें नावपर बैठनेके बाद भारी तूफान से नाव के डगमग होने पर,

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संकटों से मुक्ति

पतत्सु चापि शस्त्रेषु संग्रामे भृशदारुणे।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा॥२८॥

और अत्यंत भयंकर युद्ध में शस्त्रों का प्रहार होनेपर वेदना से पीडि़त होने पर,
अथवा सभी भयानक बाधाओं के उपस्थित होने पर

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शत्रुओं से और हिंसक पशुओं से रक्षा

स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत संकटात्।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा॥२९॥
दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्‍चरितं मम॥३०॥

जो मेरे चरित्र का स्मरण करता है, वह संकटमुक्त हो जाता है।

मेरे प्रभाव से सिंह आदि हिंसक जंतु नष्ट हो जाते हैं, तथा लुटेरे और शत्रु भी
मेरे चरित्र का स्मरण करने वाले पुरुष से दूर भागते हैं।

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भगवती देवी की कृपा से, देवता निर्भय हो गए

ऋषिरुवाच॥३१॥
इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा॥३२॥
पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत।
तेऽपि देवा निरातङ्‌काः स्वाधिकारान् यथा पुरा॥३३॥

ऋषि कहते हैं –
ऐसा कहकर, प्रचंड पराक्रम वाली भगवती चंडिका सब देवताऒं के देखते-देखते अंतर्धान हो गईं।

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भगवती देवी की कृपा से, देवता निर्भय हो गए

तेऽपि देवा निरातङ्‌काः स्वाधिकारान् यथा पुरा॥३३॥

फिर समस्त देवता भी शत्रुऒं के मारे जाने से निर्भय हो

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देवी की कृपा से देवताओं को उनके अधिकार वापस मिल गए

यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः।
दैत्याश्‍च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि॥३४॥

पहले की ही भांति यज्ञभागका उपभोग करते हुए अपने-अपने अधिकार का पालन करने लगे।

संसार का विध्वंस करने वाले, महाभयंकर पराक्रमी देवशत्रु शुम्भ तथा

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सभी असुर पाताल चले गए

जगद्विध्वंसिनि तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे।
निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः॥३५॥

महाबली निशुम्भ के युद्ध में देवी द्वारा मारे जाने पर शेष दैत्य पाताल लोक में चले आए।

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माँ भगवती द्वारा जगत की रक्षा

एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम्॥३६॥

राजन्! इस प्रकार भगवती अम्बिका देवी नित्य होती हुई भी पुन:-पुन: प्रकट होकर जगत की रक्षा करती हैं।

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माँ भगवती कैसे जगत का संचालन करती है

तयैतन्मोह्यते विश्‍वं सैव विश्‍वं प्रसूयते।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति॥३७॥

वे ही इस विश्व को मोहित करतीं, वे ही जगत को जन्म देतीं, तथा वे ही प्रार्थना करने पर संतुष्ट हो समृद्धि प्रदान करती हैं।

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सर्वव्यापी देवी महाकाली को प्रणाम

व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्‍वर।
महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया॥३८॥

राजन! महाप्रलय के समय महामारी का स्वरूप धारण करने वाली, वे महाकाली ही इस समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हैं।

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देवी द्वारा सृष्टि का निर्माण और प्रलय

सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा।
स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी॥३९॥

वे ही समय-समय पर महामारी का रूप बनाती हैं और वे ही स्वयं अजन्मा होती हुई भी सृष्टि के रूप में प्रकट होती हैं।

वे सनातनी देवी ही समयानुसार सम्पूर्ण भूतों की रक्षा करती हैं।

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मनुष्य के घर धन या दरिद्रता कब आती है?

भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे।
सैवाभावे तथाऽलक्ष्मीर्विनाशायोपजायते॥४०॥

मनुष्यों के अभ्युदयके समय वे ही घर में लक्ष्मी के रूप में स्थित हो उन्नति प्रदान करती हैं और वे ही अभाव के समय दरिद्रता बनकर विनाश का कारण होती हैं।

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देवी की भक्ति से भक्त को क्या लाभ?

स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्धूपगन्धादिभिस्तथा।
ददाति वित्तं पुत्रांश्‍च मतिं धर्मे गतिं शुभाम्॥ॐ॥४१॥

पुष्प, धूप और गंध आदि से पूजन करके उनकी स्तुति करने पर वे धन, पुत्र, धार्मिक बुद्धि तथा उत्तम गति प्रदान करती हैं।

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फलस्तुति नामक बारहवां अध्याय समाप्त

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
फलस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेयपुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत देवीमाहाम्य में फलस्तुति नामक बारहवां अध्याय पूरा हुआ।



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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 13

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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index


दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 में माँ दुर्गा की शक्तियों का और स्वरूपों का वर्णन किया गया है और सभी विपदाओं से रक्षा के लिए, देवी माँ से प्रार्थना की गई है।

साथ ही साथ देवी माँ ने भविष्य में होने वाले कुछ अवतारों के बारें में भी बताया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 55 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 के सभी 55 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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भुवनेश्वरी देवी का, ग्यारहवे अध्याय का ध्यान मन्त्र

॥ध्यानम्॥
ॐ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्‌गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्‌कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥

ध्यान

मैं भुवनेश्वरी देवीका ध्यान करता (करती) हूँ।

उनके श्रीअंगोकी आभा प्रभातकालके सूर्यके समान है और मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है और तीन नेत्रोंसे युक्त हैं।

उनके मुखपर मुस्कानकी छटा छायी रहती है और हाथोंमें वरद, अंकुश, पाश एवं अभय-मुद्रा शोभा पाते हैं।

ऊं नमश्चंडिकायैः नमः

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देवताओं द्वारा, माँ दुर्गा की शक्तियों का वर्णन

इंद्र आदि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे
सेन्द्राः सुरा वह्निपुरोगमास्ताम्।
कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्
विकाशिवक्त्राब्जविकाशिताशाः॥२॥

ऋषि कहते हैं –
देवी के द्वारा महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर, इंद्र आदि देवता अग्नि को आगे करके उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे।

उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने से उनके मुखकमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएं भी जगमगा उठी थीं।

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जगत की माता, सृष्टि की रचना और रक्षा करने वाली माँ जगदम्बा

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्‍वेश्‍वरि पाहि विश्‍वं
त्वमीश्‍वरी देवि चराचरस्य॥३॥

देवता बोले –
शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम पर प्रसन्न हो।

सम्पूर्ण जगत की माता! प्रसन्न होऒ।

विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत की अधीश्वरी हो।

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जगत का आधार, पृथ्वीरूप, जलरूप

आधारभूता जगतस्त्वमेका
महीस्वरूपेण यतः स्थितासि।
अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-
दाप्यायते कृत्स्नमलङ्‌घ्यवीर्ये॥४॥

तुम इस जगत का एकमात्र आधार हो;
क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है।

देवि! तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है।

तुम्हीं जलरूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत को तृप्त करती हो।

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मोक्ष प्रदान करने वाली वैष्णवी शक्ति

त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्‍वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥५॥

तुम अनंत बल सम्पन्न, वैष्णवी शक्ति हो।

इस विश्व की कारण, भूता, परा माया हो।

देवि! तुमने इस समस्त जगत को मोहित कर रखा है।

तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी को मोक्ष की प्राप्ति कराती हो।

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विश्व की कारण और परमबुद्धि स्वरूप

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥६॥

देवि! सम्पूर्ण विद्याएं तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं।

जगत में जितनी स्त्रियां हैं, वे सब तुम्हारी ही मूतियां हैं।

जगदम्बा! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है।

तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तुति करने योग्य पदार्थों से परे एवं परा वाणी (परमबुद्धि स्वरूपा) हो।

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मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करने वाली सर्वस्वरूपा देवी

सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥७॥

जब तुम सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो, तब इसी रूप में तुम्हारी स्तुति हो गई।

तुम्हारी स्तुति के लिए इससे अच्छी उक्तियां और क्या हो सकती हैं?

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सभी जीवों के हृदय में, बुद्धिस्वरूप नारायणी देवी

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥८॥

बुद्धिरूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है।

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सृष्टि की रचना, परिवर्तन और उपसंहार करने वाली

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।
विश्‍वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥९॥

कला, काष्ठा आदि के रूप से क्रमश: परिणाम अर्थात अवस्था परिवर्तन की ऒर ले जाने वाली तथा विश्व का उपसंहार करने में समर्थ नारायणी! तुम्हें नमस्कार है।

  • उपसंहार अर्थात – समापन, समाप्ति, अंत, किसी रचना या कृति का अंतिम निष्कर्ष
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मंगलमयी और शरणागत भक्तों पर दया करने वाली

सर्वमङ्‌गलमंङ्‌गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१०॥

नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो।

कल्याणदायिनी शिवा हो।

सब पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाली, शरणागत वत्सला,
तीन नेत्रों वाली, एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।

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सर्वगुणमयी – सृष्टि की रचना, पालन और संहार की शक्ति

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥११॥

तुम सृष्टि पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणोंका आधार तथा सर्वगुणमयी हो।

नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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भक्तों के दुःख और पीड़ा दूर करने वाली

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१२॥

शरण में आए हुए दीनों एवं पीडि़तों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

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अब देवताओं द्वारा, माँ जगदम्बा के स्वरुप का वर्णन

ब्रम्हाणी रूप में – हंसों के विमान पर बैठी हुई

हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।
कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१३॥

नारायणि! तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हें नमस्कार है।

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माहेश्वरी रूप में – त्रिशूल और चंद्रमा धारण करने वाली

त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।
माहेश्‍वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥१४॥

माहेश्वरी रूप से त्रिशूल, चंद्रमा एवं सर्प को धारण करने वाली तथा महान वृषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

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महाशक्ति धारण करने वाली नारायणी देवी

मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे।
कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१५॥

मोरों से घिरी रहने वाली तथा महाशक्ति धारण करने वाली कौमारी रूपधारिणी निष्पापे नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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वैष्णवी रूप में – शंख, चक्र, गदा और धनुष धारण करने वाली

शङ्‌खचक्रगदाशाङ्‌र्गगृहीतपरमायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१६॥

शङ्ख, चक्र, गदा और धनुषरूप उत्तम आयुधों को धारण करने वाली वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणि! तुम प्रसन्न होऒ। तुम्हें नमस्कार है।

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वाराही रूप में – महाचक्र धारण करने वाली

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।
वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१७॥

हाथ में भयानक महाचक्र लिए और दाढ़ों पर धरती को उठाए वाराही रूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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नृसिंह रूप में – दैत्यों का संहार करके जगत की रक्षा करने वाली

नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।
त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥१८॥

भयंकर नृसिंहरूप से दैत्यों के वध के लिए उद्योग करने वाली तथा त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहने वाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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शक्ति स्वरूप – हाथ में महावज्र, माथे पर किरीट और सहस्त्र नेत्र

किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१९॥

मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र धारण करने वाली, सहस्र नेत्रों के कारण उद्दीप्त दिखायी देने वाली और वृत्रासुरके प्राण हरने वाली इंद्रशक्तिस्वरूपा नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है।

  • किरीट अर्थात मुकुट के रूप में धारण किया जाने वाला अलंकार, मुकुट, अर्धचंद्र के आकार का
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शिवदूती रूप में – राक्षसों के संहार के लिए भयंकर रूप धारण करने वाली

शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२०॥

शिवदूती रूपसे दैत्यों की सेना का संहार करनेवाली, भयंकर रूप धारण तथा विकट गर्जना करनेवाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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चामुण्डा रूप में – चण्ड, मुण्ड राक्षसों का वध करने वाली

दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥२१॥

दाढ़ों के कारण विकराल मुखवाली, मुंडमाला से विभूषित, मुंडमर्दिनी चामुंडारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

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महाविद्या, लक्ष्मी, पुष्टि और श्रद्धा स्वरुप

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे।
महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते॥२२॥

लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा तथा महारात्रि नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

  • पुष्टि अर्थात दृढ़ता, मजबूती, पोषण।
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अधीश्वरी रूप में – महाकाली, पार्वती, सरस्वती, ऐश्वर्य स्वरुप

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२३॥

मेधा, सरस्वती, श्रेष्ठा, ऐश्वर्यरूपा, पार्वती, महाकाली, नियता तथा ईशा – सबकी अधीश्वरी रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

  • अधीश्वर – अधीश्वरी अर्थात मालिक, स्वामी
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सभी विपदाओं से रक्षा के लिए, देवी माँ से प्रार्थना

माँ दुर्गा – सब प्रकारके भयों से, हमारी रक्षा करों

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥२४॥

सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है।

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कात्यायनी देवी – भय से, हमारी रक्षा करों

एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥२५॥

हे कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकारके भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है।

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माँ भद्रकाली – आपका त्रिशूल, हमें भय से बचाएं

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥२६॥

भद्रकाली! ज्वालाऒंके कारण विकराल प्रतीत होने वाला, अत्यंत भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाला तुम्हारा त्रिशूल भयसे हमें बचाए। तुम्हें नमस्कार है।

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दैत्यों का तेज़ नष्ट करने वाला घंटा, पापों से, हमारी रक्षा करें

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव॥२७॥

देवि! तुम्हारा घंटा, जो अपनी ध्वनि से समूचे जगत को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट करता है, हम लोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मों से रक्षा करती है।

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चंडिका देवी – आपके हाथ का खडग, हमारी रक्षा करें

असुरासृग्वसापङ्‌कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः।
शुभाय खड्‌गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम्॥२८॥

चंडिके! तुम्हारे हाथों में सुशोभित खड्ग, जो असुरों के रक्त और चर्बीसे चर्चित है
हमारा मंगल करे। हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।

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माँ जगदम्बा – सब प्रकार के रोगों से, हमारी रक्षा करों

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥२९॥

देवि! तुम प्रसन्न होनेपर सब रोगों को, नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर, मनोवांछित सभी कामनाऒं का नाश कर देती हो।

देवी माँ की शरण में जाने का फायदा

जो लोग, तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर, विपत्ति तो आती ही नहीं।

तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य, दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं।

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माँ अम्बिका – आपके विभिन्न रूपों ने, दैत्यों से, हमारी रक्षा की है

एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य
धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं
कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥३०॥

देवि! अम्बिके!
तुमने अपने स्वरूप को अनेक भागों में विभक्त करके नाना प्रकार के रूपों से जो इस समय इन धर्मद्रोही महादैत्यों का संहार किया है, वह सब और दुसरा कौन कर सकता था?

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वेदों में, शास्त्रों में, सभी विद्याओं में, देवी माँ का ही वर्णन

विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-
ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे
विभ्रामयत्येतदतीव विश्‍वम्॥३१॥

विद्यओंमें, ज्ञानको प्रकाशित करने वाले शास्त्रोंमें तथा अदिवाक्यों में (वेदों में) तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है?

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शत्रु, राक्षस और दानवों से विश्व की रक्षा करने वाली

रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्‍च नागा
यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये
तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्‍वम्॥३२॥

जहां राक्षस, भयंकर विषैले सर्प, शत्रुगण, लुटेरों की सेना और दावानल हो वहां, तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो।

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विश्वरूपा, विश्वेश्वरि, विश्व का पालन करने वाली

विश्‍वेश्‍वरि त्वं परिपासि विश्‍वं
विश्‍वात्मिका धारयसीति विश्‍वम्।
विश्‍वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्‍वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः॥३३॥

विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करती हो।

विश्वरूपा हो, इसलिए संपूर्ण विश्व को धारण करती हो।

तुम भगवान विश्वनाथ की भी वंदनीया हो।

जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देने वाले होते हैं।

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देवी माँ – शत्रुओं के भय से हमें बचाओं

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-
र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु
उत्पातपाकजनितांश्‍च महोपसर्गान्॥३४॥

देवि! प्रसन्न होओ।

जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुऒं के भय से बचाऒ।

हे देवी माँ, हमारे सब पाप नष्ट कर दो

सम्पूर्ण जगत का पाप नष्ट कर दो।

पापों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले महामारी आदि, बड़े-बड़े उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।

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देवी माँ – विश्व की पीड़ा हरने वाली

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्‍वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्‍ये लोकानां वरदा भव॥३५॥

विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हैं, हम पर प्रसन्न होओ।

त्रिलोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

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देवी माँ ने, भविष्य में होने वाले, कुछ अवतारों के बारें में बताया

देवी माँ ने, देवताओं से, संसार के लिए उपकारक वर, मांगने के लिए कहा

देव्युवाच॥३६॥
वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छथ।
तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥३७॥

देवी बोलीं – देवताऒ! मैं वर देने को तैयार हूं।

तुम्हारे मन में जिसकी इच्छा हो वह वर मांग लो।

संसार के लिए उस उपकारक वर को मैं अवश्य दूंगी।

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देवता, माँ भवानी से, जगतकी सभी बाधाएं दूर करने की विनती करते है

देवा ऊचुः॥३८॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्‍वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥३९॥

देवता बोले- सर्वेश्वरि!
तुम इसी प्रकार, तीनों लोकों की समस्त बाधाऒं को शांत करो और हमारे शत्रुऒं का नाश करती रहो।

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अठाईसवें युग में शुम्भ – निशुम्भ राक्षस

देव्युवाच॥४०॥
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमे युगे।
शुम्भो निशुम्भश्‍चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥४१॥

देवी बोलीं – देवताऒ! वैवस्वत मन्वंतर के अठाईसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो अन्य महादैत्य उत्पन्न होंगे।

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शुम्भ – निशुम्भ राक्षसों के वध के लिए देवी का अवतार

नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी॥४२॥

तब मैं नंदगोपके घर में उनकी पत्नी यशोदाके गर्भ से अवतीर्ण हो विंध्यांचल में जाकर रहूंगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूंगी।

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वैप्रचिति असुर के संहार के लिए देवी का अवतार

पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले।
अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान्॥४३॥

फिर अत्यंत भयंकर रूप से पृथ्वी पर अवतार लेकर मैं वैप्रचिति नामक दानवों का वध करूंगी।

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भयंकर राक्षसों का संहार और उनका भक्षण

भक्षयन्त्याश्‍च तानुग्रान् वैप्रचित्तान्महासुरान्।
रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः॥४४॥

उन भयंकर महादैत्यों को भक्षण करते समय मेरे दांत अनारके फूल की भांति लाल हो जाएंगे।

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देवी का रक्तदंतिका नाम

ततो मां देवताः स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः।
स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम्॥४५॥

तब स्वर्ग में देवता और मर्त्यलोक में मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए मुझे – रक्तदंतिका – कहेंगे।

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पृथ्वी पर वर्षा और जल के अभाव के समय – अयोनिजारूप

भूयश्‍च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि।
मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥४६॥

फिर जब पृथ्वी पर सौ वर्षों के लिए वर्षा रुक जाएगी और पानी का अभाव हो जाएगा, उस समय मुनियों के स्तवन करने पर मैं पृथ्वी पर अयोनिजारूप में प्रकट होऊंगी।

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देवी का शताक्षी नाम

ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः॥४७॥

और सौ नेत्रों से मुनियों को देखूंगी। अत: मनुष्य – शताक्षी – नाम से मेरा कीर्तन करेंगे।

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जल के अभाव के समय, देवी द्वारा, सबका भरण पोषण और प्राणों की रक्षा

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४८॥

देवताऒ! उस समय मैं अपने शरीर से उपन्न हुए शाकों द्वारा, समस्त संसार का भरण-पोषण करूंगी।

जब तक वर्षा नहीं होगी, तब तक वे शाक ही सबके प्राणों की रक्षा करेंगे।

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देवी का शाकम्भरी नाम

शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४९॥

ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर – शाकम्भरी – के नाम से मेरी ख्याति होगी।

उसी अवतार में मैं दुर्गम नामक महादैत्य का वध भी करूंगी।

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दुर्गम नामक महादैत्य का वध करने के कारण, देवी का दुर्गा देवी नाम

दुर्गा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
पुनश्‍चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले॥५०॥
रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्।
तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः॥५१॥

इससे मेरा नाम – दुर्गा देवी – के रूप से प्रसिद्ध होगा।

फिर मैं जब भीम रूप धारण करके मुनियों की रक्षाके लिए हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का भक्षण करूंगी, उस समय सब मुनि भक्ति से तमस्तक होकर मेरी स्तुति करेंगे।

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हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का संहार करने के कारण, देवी का भीमादेवी नाम

भीमा देवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।
यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥५२॥

तब मेरा नाम – भीमादेवी – के रूप में विख्यात होगा।

जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचाएगा,

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अरुण नामक दैत्य का वध

तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्‌पदम्।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥५३॥

तब मैं तीनों लोकों का हित करने के लिए छ: पैरोंवाले असंख्य भ्रमरोंका रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करूंगी।

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देवी का भ्रामरी नाम

भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः।
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति॥५४॥
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥ॐ॥५५॥

उस समय सब लोग – भ्रामरी – के नाम से मेरी स्तुति करेंगे।

इस प्रकार जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं दुष्टोंका संहार करूंगी।

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देवी स्तुति नामक – दुर्गा सप्तशती का, ग्यारहवां अध्याय

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
देव्याः स्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतरकी कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में, देवी स्तुति नामक, ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ।



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Durga Saptashati – Adhyay 10 with Meaning


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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 में निशुंभ के वध का वर्णन दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 32 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 के सभी 32 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 का ध्यान

॥ध्यानम्॥
ॐ उत्तप्तहेमरुचिरां रविचन्द्रवह्नि-
नेत्रां धनुश्शरयुताङ्‌कुशपाशशूलम्।
रम्यैर्भुजैश्‍च दधतीं शिवशक्तिरूपां
कामेश्‍वरीं हृदि भजामि धृतेन्दुलेखाम्॥

ध्यान

मैं मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाली शिवशक्तिस्वरूपा भगवती कामेश्वरीका हृदयमें चिन्तन करता (करती) हूँ।

वे तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दर हैं।

सूर्य, चन्द्रमा और अग्रि – ये ही तीन उनके नेत्र हैं तथा वे अपने मनोहर हाथोंमें धनुष-बाण, अंकुश, पाश और, शूल धारण किये हुए हैं।

ऊं नमश्चंडिकायैः नमः

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ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
निशुम्भं निहतं दृष्ट्‌वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्।
हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः॥२॥

ऋषि कहते हैं –
हे राजन्! अपने प्राणों के समान प्यारे भाई निशुम्भ को मारा गया देख तथा सारी सेना का संहार होता जान शुम्भ ने कुपित होकर कहा –

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बलावलेपाद्दुष्टे* त्वं मा दुर्गे गर्वमावह।
अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे यातिमानिनी॥३॥

दुष्ट दुर्गे! तू बल के अभिमान में आकर झूठ-मूठ का घमंड न दिखा।

तू बड़ी मानिनी बनी हुई है, किंतु दूसरी स्त्रियोंके बल का सहारा लेकर लड़ती है।

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देव्युवाच॥४॥
एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः*॥५॥

देवी बोलीं – ऒ दुष्ट! मैं अकेली ही हूं। इस संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन है? देख, ये मेरी ही विभूतियाँ हैं, अत: मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं।

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ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखा लयम्।
तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका॥६॥

तदनंतर ब्रह्माणी आदि समस्त देवियां अंबिका देवी के शरीर में लीन हो गईं।

उस समय केवल अम्बिका देवी ही रह गयीं।

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देव्युवाच॥७॥
अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता।
तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव॥८॥

देवी बोलीं – मैं अपनी ऐश्वर्य शक्ति से अनेक रूपों में यहां उपस्थित हुई थी।

उन सब रूपों को मैंने समेट लिया। अब अकेली ही युद्ध में खड़ी हूं। तुम भी स्थिर हो जाऒ।

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ऋषिरुवाच।।९॥
ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शुम्भस्य चोभयोः।
पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम्॥१०॥

ऋषि कहते हैं – तदनंतर देवी और शुम्भ दोनों में, सब देवताऒं तथा दानवों के देखते-देखते भयंकर युद्ध छिड़ गया।

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शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्‍चैव दारुणैः।
तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोकभयङ्करम्॥११॥

बाणों की वर्षा तथा तीखे शस्त्रों एवं दारुण अस्त्रों के प्रहार के कारण उन दोनों का युद्ध, सब लोगों के लिये बड़ा भयानक प्रतीत हुआ।

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दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका।
बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः॥१२॥

उस समय अम्बिका देवी ने, जो सैकड़ों दिव्य अस्त्र छोड़े, उसे दैत्यराज शुम्भ ने उनके निवारक अस्त्रों द्वारा काट डाला।

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मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्‍वरी।
बभञ्ज लीलयैवोग्रहु*ङ्‌कारोच्चारणादिभिः॥१३॥

इसी प्रकार शुम्भ ने भी जो दिव्य अस्त्र चलाये; उन्हें परमेश्वरी ने भयंकर हुंकार शब्दके उच्चारण अदिद्वारा, खेल-खेल में ही नष्ट कर डाला।

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ततः शरशतैर्देवीमाच्छादयत सोऽसुरः।
सापि* तत्कुपिता देवी धनुश्‍चिच्छेद चेषुभिः॥१४॥

तब उस असुर ने सैकड़ों बाणों से देवी को आच्छादित कर दिया।

यह देख क्रोध में भरी हुई उन देवीने भी, बाण मारकर उसका धनुष काट डाला।

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छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे।
चिच्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम्॥१५॥

धनुष कट जाने पर फिर दैत्यराज ने शक्ति हाथ में ली, किंतु देवी ने चक्र से उसके हाथ की शक्ति को भी काट गिराया।

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ततः खड्‌गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत्।
अभ्यधावत्तदा* देवीं दैत्यानामधिपेश्‍वरः॥१६॥

तपश्चात दैत्यों के स्वामी शुम्भ ने सौ चांद वाली चमकती हुई ढाल और तलवार हाथ में ले उस समय देवी पर धावा किया।

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तस्यापतत एवाशु खड्‌गं चिच्छेद चण्डिका।
धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्‍चर्म चार्ककरामलम्*॥१७॥

उसके आते ही चंडिका ने अपने धनुष से छोड़े हुए तीखे बाणों द्वारा, उसकी सूर्य किरणों के समान उज्वल ढाल और तलवार को तुरंत काट दिया।

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हताश्‍वः स तदा दैत्यश्‍छिन्नधन्वा विसारथिः।
जग्राह मुद्‌गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः॥१८॥

फिर उस दैत्य के घोड़े और सारथि मारे गए।

धनुष तो पहले ही कट चुका था; अब उसने अम्बिका को मारने के लिये उद्यत हो भयंकर मुदगर हाथ में लिया।

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चिच्छेदापततस्तस्य मुद्‌गरं निशितैः शरैः।
तथापि सोऽभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान्॥१९॥

उसे आते देख देवी ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसका मुद्गर भी काट डाला।

तिसपर भी वह असुर मुक्का तानकर बड़े वेग से देवी की ऒर झपटा।

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स मुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्‌गवः।
देव्यास्तं चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत्॥२०॥

उस दैत्यराज ने देवी की छाती में मुक्का मारा, तब उन देवी ने भी उसकी छाती में एक चांटा जड़ दिया।

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तलप्रहाराभिहतो निपपात महीतले।
स दैत्यराजः सहसा पुनरेव तथोत्थितः॥२१॥

देवी का थप्पड़ खाकर दैत्यराज शुम्भ पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु पुन: सहसा पूर्ववत उठकर खड़ा हो गया।

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उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः।
तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका॥२२॥

फिर वह उछला और देवी को ऊपर ले जाकर आकाश में खड़ा हो गया।

तब चंडिका आकाश में भी बिना किसी आधार के ही शुम्भ के साथ युद्ध करने लगीं।

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नियुद्धं खे तदा दैत्यश्‍चण्डिका च परस्परम्।
चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम्॥२३॥

उस समय दैत्य और चंडिका आकाश में एक-दूसरे से लडऩे लगे।

उनका वह युद्ध, सिद्ध और मुनियों को विस्मय में डालनेवाला हुआ।

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ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिका सह।
उत्पात्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले॥२४॥

फिर अम्बिका ने शुम्भ के साथ बहुत देर तक युद्ध करने के पश्चात उसे उठाकर घुमाया और पृथ्वी पर पटक दिया।

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स क्षिप्तो धरणीं प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः*।
अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया॥२५॥

पटके जाने पर पृथ्वी पर आने के बाद वह दुष्टत्मा दैत्य, पुन: चंडिका का वध करने के लिए उनकी ऒर बड़े वेग से दौड़ा।

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तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्‍वरम्।
जगत्यां पातयामास भित्त्वा शूलेन वक्षसि॥२६॥

तब समस्त दैत्यों के राजा शुम्भ को अपनी ऒर आते देख देवी ने त्रिशूल से उसकी छाती छेदकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया।

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स गतासुः पपातोर्व्यां देवीशूलाग्रविक्षतः।
चालयन् सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम्॥२७॥

देवी के शूल की धार से घायल होने पर उसके प्राण-पखेरू उड़ गए और वह समुद्रों, द्वीपों तथा पर्वतों सहित, समूची पृथ्वी को कंपाता हुआ भूमि पर गिर पड़ा।

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ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन् दुरात्मनि।
जगत्स्वास्थ्यमतीवाप निर्मलं चाभवन्नभः॥२८॥

उस दुरात्मा के मारे जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न एवं पूर्ण स्वस्थ हो गया तथा आकाश स्वच्छ दिखाई देने लगा।

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उत्पातमेघाः सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः।
सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते॥२९॥

पहले जो उत्पातसूचक मेघ और उल्कापात होते थे, वे सब शांत हो गए तथा उस दैत्य के मारे जाने पर नदियाँ भी ठीक मार्ग से बहने लगीं।

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ततो देवगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः।
बभूवुर्निहते तस्मिन् गन्धर्वा ललितं जगुः॥३०॥

उस समय शुम्भ की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण देवताऒं का हृदय हर्ष से भर गया और गंधर्वगण मधुर गीत गाने लगे।

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अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्‍चाप्सरोगणाः।
ववुः पुण्यास्तथा वाताः सुप्रभोऽभूद्दिवाकरः॥३१॥

दूसरे गंधर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं।

पवित्र वायु बहने लगी। सूर्य की प्रभा उत्तम हो गई।

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जज्वलुश्‍चाग्नयः शान्ताः शान्ता दिग्जनितस्वनाः॥ॐ॥३२॥

अग्निशाला की बुझी हुई आग अपने-आप प्रज्वलित हो उठी तथा सम्पूर्ण दिशाऒं के भयंकर शब्द शांत हो गए।

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इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शुम्भवधो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

इस प्रकार, श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में, शुम्भ-वध नामक, दसवां अध्याय पूरा हुआ।



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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 11

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Durga Saptashati – 11

Durga Saptashati – Adhyay 09 with Meaning


<< दुर्गा सप्तशती अध्याय 8

दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index


दुर्गा सप्तशती अध्याय 9 में देवी ने किस प्रकार निशुंभ नामक राक्षस का वध किया,
यह बताया गया है।

साथ ही साथ देवी के दूसरे स्वरूपों ने कैसे राक्षसों का संहार किया, इसका भी संक्षेप में वर्णन किया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 41 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 9 के सभी 41 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 9 – अर्थ सहित

॥ध्यानम्॥
ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां
पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः।
बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्र-
मर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि॥

ध्यान

मैं अर्धनारीश्वरके श्रीविग्रहकी निरन्तर शरण लेता (लेती) हूँ।

उसका वर्ण बन्धूकपुष्प और सुवर्णके समान रक्तपतिमिश्रित है।

वह अपनी भुजाओंमें सुन्दर अक्षमाला, पाश और वरद-मुद्रा धारण करता है;

अर्धचन्द्र उसका आभूषण तथा वह तीन नेत्रोंसे सुशोभित है।

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ॐ राजोवाच॥१॥
विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम।
देव्याश्‍चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम्॥२॥

राजा सुरथ ने कहा –
भगवन्! आपने रक्तबीज के वध से सम्बन्ध रखने वाला देवी-चरित्र का यह अद्भुत माहाम्य मुझे बतलाया।

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भूयश्‍चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते।
चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्‍चातिकोपनः॥३॥

अब रक्तबीज के मारे जाने पर क्रोध में भरे हुए शुम्भ और निशुम्भ ने, जो कर्म किया, उसे मैं सुनना चाहता हूं।

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ऋषिरुवाच॥४॥
चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते।
शुम्भासुरो निशुम्भश्‍च हतेष्वन्येषु चाहवे॥५॥

मेधा ऋषि कहते हैं –
राजन्! युद्ध में रक्तबीज तथा अन्य दैत्यों के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ के क्रोध की सीमा न रही।

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हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन्।
अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया॥६॥

अपनी विशाल सेना इस प्रकार मारी जाती देख निशुम्भ अमर्ष (क्रोध) में भरकर देवी की ऒर दौड़ा।

उसके साथ असुरों की प्रधान सेना थी।

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तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्‍वयोश्‍च महासुराः।
संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः॥७॥

उसके आगे पीछे तथा पार्श्व भाग में बड़े-बड़े असुर थे, जो क्रोध से ऒठ चबाते हुए देवी को मार डालने के लिए आए।

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आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः।
निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः॥८॥

महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना के साथ मातृगणों से युद्ध करके क्रोधवश चंडिका को मारने के लिए आ पहुंचा।

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ततो युद्धमतीवासीद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः।
शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः॥९॥

तब देवी के साथ शुम्भ और निशुम्भ का घोर संग्राम छिड़ गया।

वे दोनों दैत्य मेघों की भांति बाणों की भयंकर वृष्टि कर रहे थे।

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चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः।
ताडयामास चाङ्‌गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्‍वरौ॥१०॥

उन दोनों के चलाए हुए बाणों को चंडिका नेअपने बाणों के समूह से तुरंत काट डाला और शस्त्र समूहों की वर्षा करके उन दोनों दैत्यपतियों के अंगों में भी चोट पहुंचाई।

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निशुम्भो निशितं खड्‌गं चर्म चादाय सुप्रभम्।
अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम्॥११॥

निशुम्भ ने तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के वाहन सिंह के मस्तक पर प्रहार किया।

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ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्।
निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम्॥१२॥

अपने वाहन को चोट पहुंचने पर देवी ने, क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की तलवार तुरंत ही काट डाली और उसकी ढाल को भी, जिसमें आठ चांद जड़े थे, खंड-खंड कर दिया।

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छिन्ने चर्मणि खड्‌गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः।
तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम्॥१३॥

ढाल और तलवार के कट जाने पर उस असुर ने शक्ति चलायी।

देवी ने चक्र से उसके भी दो टुकड़े कर दिए।

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कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः।
आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत्॥१४॥

अब तो निशुम्भ क्रोध से जल उठा और उस दानव ने देवी को मारने के लिए शूल उठाया।

किंतु देवी ने समीप आने पर उसे भी मुक्के से मारकर चूर कर दिया।

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आविध्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति।
सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता॥१५॥

तब उसने गदा घुमाकर चंडी के ऊपर चलायी, परंतु वह भी देवीके त्रिशूल से कटकर भस्म हो गयी।

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ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्‌गवम्।
आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले॥१६॥

तदनंतर दैत्यराज निशुम्भ को फरसा हाथ में लेकर आते देख देवी ने बाण समूहों से घायल कर उसे धरती पर सुला दिया।

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तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे।
भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम्॥१७॥

उस भयंकर पराक्रमी भाई निशुम्भ के धराशायी हो जाने पर शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ और अम्बिका का वध करने के लिए वह आगे बढ़ा।

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स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः।
भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः॥१८॥

रथ पर बैठे-बैठे ही उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी बड़ी-बड़ी आठ अनुपम भुजाऒं से समूचे आकाश को ढंककर वह अद्भुत शोभा पाने लगा।

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तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्‌खमवादयत्।
ज्याशब्दं चापि धनुषश्‍चकारातीव दुःसहम्॥१९॥

उसे आते देख देवी ने शंख बजाया और धनुष की प्रत्यंचा खींचकर गर्जना की।

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पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च।
समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना॥२०॥

साथ ही अपने घंटे के शब्द से, जो समस्त असुर-सैनिकों का तेज नष्ट करने वाला था, संपूर्ण दिशाऒं को व्याप्त कर दिया।

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ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः।
पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश॥२१॥

तदन्तर सिंह ने भी अपनी दहाड़ से, जिसे सुनकर बड़े-बड़े गजराजों का महान मद दूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाऒं को गुंजा दिया।

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ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्।
कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः॥२२॥

फिर काली ने आकाश में उछलकर अपने दोनों हाथों से पृथ्वी पर आघात किया।

उससे ऐसा भयंकर शब्द हुआ जिससे पहले के सभी शब्द शांत हो गए।

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अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह।
तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ॥२३॥

तत्पश्चात् शिवदूती ने दैत्यों के लिए अमङ्गलजनक अट्टहास किया।

इन शब्दों को सुनकर समस्त असुर थर्रा उठे; किंतु शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ।

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दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा।
तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥२४॥

उस समय देवी ने जब शुम्भ को लक्ष्य करके कहा – ऒ दुरात्मन! खड़ा रह, खड़ा रह।

तभी आकाश में खड़े हुए देवता बोल उठे – जय हो, जय हो।

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शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा।
आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया॥२५॥

शुम्भ ने वहां आकर ज्वालाऒं से युक्त अत्यंत भयानक शक्ति चलाई।

अग्निमय पर्वत के समान आती हुई उस शक्ति को देवी ने काट दिया।

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सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्।
निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते॥२६॥

उस समय शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक गूंज उठे।

राजन्! उसकी प्रतिध्वनि से वज्रपात के समान भयानक शब्द हुआ।

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शुम्भमुक्ताञ्छरान्‍देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान्।
चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः॥२७॥

शुम्भ के चलाए हुए बाणों को देवी ने और देवीके चलाए हुए बाणों को शुम्भ ने सैकड़ों टुकड़े कर दिए।

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ततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम्।
स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह॥२८॥

तब क्रोध में भरी हुई चंडिका ने शुम्भ को शूल से मारा।

उसके आघात से मूर्च्छित हो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

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ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः।
आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥२९॥

इतने में ही निशुम्भ को चेतना हुई और उसने धनुष हाथ में लेकर बाणों से देवी काली तथा सिंह को घायल कर डाला।

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पुनश्‍च कृत्वा बाहूनामयुतं दनुजेश्‍वरः।
चक्रायुधेन दितिजश्‍छादयामास चण्डिकाम्॥३०॥

फिर उस दैत्यराज ने दस हजार बांहें बनाकर चक्रों के प्रहार से चंडिका को आच्छादित कर दिया।

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ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी।
चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैः सायकांश्‍च तान्॥३१॥

तब दुर्गम पीड़ा का नाश करने वाली भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट गिराया।

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ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्।
अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः॥३२॥

यह देख निशुम्भ दैत्य सेना के साथ चंडिका का वध करने के लिए हाथ में गदा ले बड़े वेग से दौड़ा।

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तस्यापतत एवाशु गदां चिच्छेद चण्डिका।
खड्‌गेन शितधारेण स च शूलं समाददे॥३३॥

उसके आते ही चंडी ने तीखी धारवाली तलवार से उसकी गदा को शीघ्र ही काट डाला।

तब उसने शूल हाथ में ले लिया।

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शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम्।
हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका॥३४॥

देवताऒं को पीड़ा देने वाले निशुम्भ को शूल हाथ में लिए आते देख चंडिका ने वेग से चलाए हुए अपने शूल से उसकी छाती छेद डाली।

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भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोऽपरः।
महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन्॥३५॥

शूलसे विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती से एक दूसरा महाबली एवं महापराक्रमी पुरुष – खड़ी रह, खड़ी रह – कहता हुआ निकला।

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तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः।
शिरश्चिच्छेद खड्‌‍गेन ततोऽसावपतद्भुवि॥३६॥

उस निकलते हुए पुरुष की बात सुनकर देवी ठठाकर हँस पड़ीं और खड्ग से उन्होंने उसका मस्तक काट डाला।

फिर तो वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

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ततः सिंहश्‍चखादोग्रं दंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्।
असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान्॥३७॥

तदनतर सिंह अपनी दाढ़ों से असुरों की गर्दन कुचलकर खाने लगा।

यह बड़ा भयंकर दृश्य था।

उधर काली तथा शिवदूती ने भी अन्यान्य दैत्यों का भक्षण आरम्भ किया।

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कौमारीशक्तिनिर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः।
ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः॥३८॥

कौमारी की शक्ति से विदीर्ण होकर कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए।

ब्रह्माणी के मंत्रयुक्त जल से निस्तेज होकर कितने ही भाग खड़े हुए।

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माहेश्‍वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे।
वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि॥३९॥

कितने ही दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से छिन्न-भिन्न हो धराशायी हो गए।

वाराही के शस्त्रों के आघात से कितनों का पृथ्वी पर कचूमर निकल गया।

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खण्डं खण्डं च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः।
वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे॥४०॥

वैष्णवी ने भी अपने चक्र से दानवों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।

ऐंद्री के हाथ से छूटे हुए वज्र से भी कितने ही प्राणों से हाथ धो बैठे।

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केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्।
भक्षिताश्‍चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः॥ॐ॥४१॥

कुछ असुर नष्ट हो गए, कुछ उस महायुद्ध से भाग गए तथा कितने ही काली, शिवदूती तथा सिंह के ग्रास बन गए।

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इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥

इस प्रकार श्रीमार्कडेयपुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अतर्गत, देवीमाहाम्य में, निशुम्भ-वध नामक, नवां अध्याय पूरा हुआ।



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<< दुर्गा सप्तशती अध्याय 7

दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा सप्तशती अध्याय 8 में रक्तबीज-वध का प्रसंग दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 63 श्लोक आते हैं।


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इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 8 के सभी 63 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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सप्तशती अध्याय 8 का ध्यान

ॐ अरुणां करुणातरङ्‌गिताक्षीं
धृतपाशाङ्‌कुशबाणचापहस्ताम्।
अणिमादिभिरावृतां मयूखै-
रहमित्येव विभावये भवानीम्॥

ध्यान

मैं अणिमा आदि सिद्धिमयी किरणोंसे सुशोभित, भवानीका ध्यान करता (करती) हूँ।

उनके शरीरका रंग लाल है, नेत्रोंमें करुणा लहरा रही है तथा हाथोंमें पाश, अंकुश, बाण और धनुष शोभा पाते हैं।

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शुम्भ को चंड और मुंड के संहार का पता चलता है

ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते।
बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्‍वरः॥२॥

मेधा ऋषि कहते हैं – चंड और मुंड नामक असुरों के मारे जाने तथा बहुत-सी सेना का संहार हो जाने पर

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शुम्भ युद्ध की तैयारी करने लगता है

ततः कोपपराधीनचेताः शुम्भः प्रतापवान्।
उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह॥३॥

असुरराज शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ।

उसने दैत्यों की पूरी सेना को युद्ध के लिए कूच करने की आज्ञा दी।

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शुम्भ सेनापति को आदेश देता है

अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः।
कम्बूनां चतुरशीतिर्निर्यान्तु स्वबलैर्वृताः॥४॥

शुंभ बोला – आज उदायुध नामक छियासी दैत्य-सेनापति, अपनी सेनाऒं के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करें।

कम्बु नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक, अपनी वाहिनीसे घिरे हुए यात्रा करें।

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शुम्भ सेना को आज्ञा देता है

कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै।
शतं कुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया॥५॥

पचास कोटि वीर्य कुल के और सौ धौम्र-कुल के असुर सेनापति, मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें।

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शुम्भ का अन्य असुरों को युद्ध के लिए आदेश

कालका दौर्हृद मौर्याः कालकेयास्तथासुराः।
युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम॥६॥

कालक, दौहृद, मौर्य और कालकेय असुर भी युद्ध के लिए तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें।

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शुम्भ देवी से युद्ध के लिए चला

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भो भैरवशासनः।
निर्जगाम महासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥७॥

भयानक शासन करने वाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा दे, सहस्त्रों बड़ी-बड़ी सेनाऒं के साथ युद्धके लिए चला।

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देवी चंडिका शुम्भ की सेना को देखती है

आयान्तं चण्डिका दृष्ट्‌वा तत्सैन्यमतिभीषणम्।
ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम्॥८॥

उसकी अत्यंत भयंकर सेना को आती देख चण्डिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुंजा दिया।

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माँ चंडिका के वाहन सिंह की गर्जना

ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप।
घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत्॥९॥

राजन! तदनंतर देवी के सिंह ने भी बड़े जोर-जोर से दहाडऩा आरम्भ किया, फिर अम्बिका के घंटे के शब्दों ने उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया।

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माँ काली का रौद्र रूप

धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्‌मुखा।
निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना॥१०॥

धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घंटे की ध्वनि से संपूर्ण दिशाएं गूंज उठीं।

उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं।

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असुर देवी से युद्ध के लिए आगे बढ़ते है

तं निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्‍चतुर्दिशम्।
देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः॥११॥

उस तुमुल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाऒं ने चारों ऒर से आकर चंडिका देवी, सिंह तथा काली देवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया।

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देवों की शक्तियां, माँ चंडिका के पास आती है

एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्।
भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः॥१२॥

राजन! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताऒं के अभ्युदय के लिए –

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देवों की शक्तियों का स्वरुप

ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः।
शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्‍चण्डिकां ययुः॥१३॥

ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इंद्र आदि देवों की शक्तियां, जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थीं, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूप में चंडिका देवी के पास गयीं।

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यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्।
तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ॥१४॥

जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से सम्पन्न हो, उनकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिए आई।

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हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः।
आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते॥१५॥

सबसे पहले हंसयुक्त विमानपर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमंडलु से सुशोभित, ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुई, जिसे ब्रह्माणी कहते हैं।

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माहेश्‍वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी।
महाहिवलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा॥१६॥

महादेवजी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो, हाथों में त्रिशूल धारण किए, महानाग का कंकण पहने, मस्तक में चंद्ररेखा से विभूषित हो वहां आ पहुंची।

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कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना।
योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी॥१७॥

कार्तिकेयजी की शक्तिरूपा जगदम्बिका, उन्हीं का रूप धारण किए, श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो, हाथ में शक्ति लिए, दैत्यों से युद्ध करने के लिए आयीं।

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तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरि संस्थिता।
शङ्‌खचक्रगदाशाङ्‌र्गखड्‌गहस्ताभ्युपाययौ॥१८॥

इसी प्रकार भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो, शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष तथा खड्ग हाथ में लिए वहां आयी।

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यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रतो हरेः।
शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीं बिभ्रती तनुम्॥१९॥

अनुपम वाराह का रूप धारण करने वाले श्रीहरि की जो शक्ति है, वह भी वाराह-शरीर धारण करके, वहां उपस्थित हुई।

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नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः।
प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः॥२०॥

नारसिंही शक्ति भी नृसिंहके समान शरीर धारण करके वहां आईं।

उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखर पड़ते थे।

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वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता।
प्राप्ता सहस्रनयना यथा शक्रस्तथैव सा॥२१॥

इसी प्रकार इंद्र की शक्ति वज्र हाथ में लिए, गजराज ऐरावत पर बैठकर आईं।

उसके भी सहस्त्र नेत्र थे।

इन्द्रका जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था।

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ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः।
हन्यन्तामसुराः शीघ्रं मम प्रीत्याऽऽहचण्डिकाम्॥२२॥

तदनंतर उन देव-शक्तियोंसे घिरे हुए महादेवजी ने चंडिका से कहा – मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो।

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ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा।
चण्डिकाशक्तिरत्युग्रा शिवाशतनिनादिनी॥२३॥

तब देवी के शरीर से अत्यंत भयानक और परम उग्र चंडिका-शक्ति प्रकट हुई, जो सैकड़ों गीदडिय़ों की भांति आवाज करनेवाली थी।

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सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता।
दूत त्वं गच्छ भगवन् पार्श्‍वं शुम्भनिशुम्भयोः॥२४॥
ब्रूहि शुम्भं निशुम्भं च दानवावतिगर्वितौ।
ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः॥२५॥

उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटावाले महादेवजी से कहा – भगवन्! आप शुम्भ-निशुम्भ के पास दूत बनकर जाइए,

और उन अत्यंत गर्वीले दानव शुम्भ एवं निशुम्भ दोनों से कहिये। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिए वहां उपस्थित हों, उनको भी यह संदेश दीजिए।

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त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ॥२६॥

– दैत्यों! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाऒ।
इंद्र को त्रिलोकी का राज्य मिल जाय और देवता यज्ञ भाग का उपभोग करें।

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बलावलेपादथ चेद्भवन्तो युद्धकाङ्‌क्षिणः।
तदागच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः॥२७॥

यदि बल के घमंड में आकर तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो, तो आऒ।

मेरी शिवाएं (योगिनियाँ) तुम्हारे कच्चे मांस से तृप्त हों।”

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यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्।
शिवदूतीति लोकेऽस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता॥२८॥

चूंकि उस देवीने भगवान शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह शिवदूती के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुईं।

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तेऽपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः।
अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्र कात्यायनी स्थिता॥२९॥

वे दैत्य (दानव) भी भगवान शिव के मुंह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गए और जहां कात्यायनी विराजमान थीं उस ऒर बढ़े।

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ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः।
ववर्षुरुद्धतामर्षास्तां देवीममरारयः॥३०॥

तदनतर वे दैत्य पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रों की वृष्टि करने लगे।

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सा च तान् प्रहितान् बाणाञ्छूलशक्तिपरश्‍वधान्।
चिच्छेद लीलयाऽऽध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥३१॥

तब देवी ने भी खेल-खेल में ही धनुष की टंकार की, और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाए हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला।

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तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्।
खट्‌वाङ्‌गपोथितांश्‍चारीन् कुर्वती व्यचरत्तदा॥३२॥

फिर काली उनके आगे होकर, शत्रुऒं को शूल के प्रहार से विदीर्ण करने लगी और खट्वांग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगीं।

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कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान् हतौजसः।
ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून् येन येन स्म धावति॥३३॥

ब्रह्माणी भी जिस-जिस ऒर दौड़ती उस ऒर अपने कमंडलु का जल छिड़ककर, शत्रुऒं का ऒज और पराक्रम नष्ट कर देती थीं।

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माहेश्‍वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी।
दैत्याञ्जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना॥३४॥

माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यंत क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्तिने शक्तिसे दैत्यों का संहार आरम्भ किया।

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ऐन्द्रीकुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः।
पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः॥३५॥

इंद्र शक्ति के वज्र प्रहार से विदीर्ण हो सैकड़ों दानव रक्त की धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गए।

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तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः।
वाराहमूर्त्या न्यपतंश्‍चक्रेण च विदारिताः॥३६॥

वाराही शक्ति ने कितनों को अपनी थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्रभाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य चक्र की चोट से विदीर्ण होकर गिर पड़े।

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नखैर्विदारितांश्‍चान्यान् भक्षयन्ती महासुरान्।
नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगम्बरा॥३७॥

नारसिंही भी दूसरे-दूसरे महा दैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खाती और सिंहनाद से दिशाऒं एवं आकाश को गुंजाती हुई युद्ध-क्षेत्र में विचरने लगीं।

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चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः।
पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्‍चखादाथ सा तदा॥३८॥

कितने ही असुर शिवदूती के प्रचंड अट्टाहास से भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने अपना ग्रास बना लिया।

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इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तं महासुरान्।
दृष्ट्‌वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः॥३९॥

इस प्रकार क्रोध में भरे हुए मातृगणों को नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों का मर्दन करते देख दैत्य सैनिक भाग खड़े हुए।

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पलायनपरान् दृष्ट्‌वा दैत्यान् मातृगणार्दितान्।
योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः॥४०॥

मातृगणो से पीडि़त दैत्यों को युद्ध से भागते देख रक्तबीज नामक महादैत्य, क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिए आया।

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रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः।
समुत्पतति मेदिन्यां तत्प्रमाणस्तदासुरः॥४१॥

उसके शरीर से जब रक्त की बूंद पृथ्वी पर गिरती, तब उसी के समान शक्तिशाली एक दूसरा महादैत्य पृथ्वी पर पैदा हो जाता।

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युयुधे स गदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः।
ततश्‍चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताडयत्॥४२॥

महाअसुर रक्तबीज हाथ में गदा लेकर इंद्रशक्ति के साथ युद्ध करने लगा।

तब ऐंद्री ने अपने वज्र से रक्तबीज को मारा।

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कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम्।
समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४३॥

वज्र से घायल होनेपर उसके शरीर से बहुत रक्त बहने लगा और उससे उसी के समान रूप तथा पराक्रम वाले योद्धा उत्पन्न होने लगे।

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यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः।
तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४४॥

उसके शरीर से रक्त की जितनी बूंदें गिरीं उतने ही पुरुष उपन्न हो गए।
वे सब रक्तबीजके समान ही वीर्यवान, बलवान् तथा पराक्रमी थे।

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ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः।
समं मातृभिरत्युग्रशस्त्रपातातिभीषणम्॥४५॥

वे रक्त से उपन्न होने वाले पुरुष भी भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए वहां मातृगणों के साथ घोर युद्ध करने लगे।

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पुनश्‍च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा।
ववाह रक्तं पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः॥४६॥

पुन: वज्र के प्रहार से जब उसका मस्तक घायल हुआ तब रक्त बहने लगा और उससे हजारों पुरुष उपन्न हो गए।

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वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघान ह।
गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्‍वरम्॥४७॥

वैष्णवी ने युद्ध में रक्तबीज पर चक्र का प्रहार किया तथा ऐंद्री ने उस दैत्य सेनापति को गदा से चोट पहुंचायी।

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वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः।
सहस्रशो जगद्‌व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४८॥

वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा और उससे जो उसी के बराबर आकार वाले, सहस्रों महादैत्य प्रकट हुए, उनके द्वारा संपूर्ण जगत व्याप्त हो गया।

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शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासिना।
माहेश्‍वरी त्रिशूलेन रक्तबीजं महासुरम्॥४९॥

कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से, महादैत्य रक्तबीज को घायल किया।

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स चापि गदया दैत्यः सर्वा एवाहनत् पृथक्।
मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः॥५०॥

क्रोध में भरे हुए रक्तबीज ने भी गदा से सभी मातृ-शक्तियों पर पृथक्-पृथक् प्रहार किया।

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तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि।
पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्छतशोऽसुराः॥५१॥

शक्ति और शूल आदि से अनेक बार घायल होने पर जो उसके शरीर से रक्त की धारा धरती पर गिरी, उससे भी निश्चय ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हुए।

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तैश्‍चासुरासृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्।
व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम्॥५२॥

इस प्रकार उस महादैत्य के रक्त से प्रकट हुए, असुरों द्वारा सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया।

इससे उन देवताऒं को बड़ा भय हुआ।

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तान् विषण्णान् सुरान् दृष्ट्‌वा चण्डिका प्राह सत्वरा।
उवाच कालीं चामुण्डे विस्तीर्णं वदनं कुरु॥५३॥

देवताऒं को उदास देख चंडिका ने काली से शीघ्रतापूर्वक कहा – “चांमुडे! तुम अपना मुख और भी फैलाऒ तथा –

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मच्छस्त्रपातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्।
रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्त्रेणानेन वेगिना॥५४॥

मेरे शस्त्रपात से गिरने वाले रक्त बिदुऒं और उनसे उपन्न होने वाले महादैत्यों को तुम अपने इस उतावले मुख से खा जाऒ।

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भक्षयन्ती चर रणे तदुत्पन्नान्महासुरान्।
एवमेष क्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥५५॥

इस प्रकार रक्त से उपन्न होने वाले महादैत्यों का भक्षण करती हुई, तुम रण में विचरती रहो।

ऐसा करने से, उस दैत्य का सारा रक्त क्षीण हो जाने पर वह स्वयं भी नष्ट हो जाएगा।

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भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे।
इत्युक्त्वा तां ततो देवी शूलेनाभिजघान तम्॥५६॥
मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्।
ततोऽसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम्॥५७॥

उन भयंकर दैत्यों को जब तुम खा जाऒगी, तब दूसरे नये दैत्य उपन्न नहीं हो सकेंगे।”

काली से यों कहकर चंडिका देवीने शूल से रक्तबीज को मारा और कालीने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया।

तब उसने वहां चंडिकापर गदा से प्रहार किया।

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न चास्या वेदनां चक्रे गदापातोऽल्पिकामपि।
तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम्॥५८॥

किंतु उस गदापात ने देवी को तनिक भी वेदना नहीं पहुंचाई।

रक्तबीज के घायल शरीर से, बहुत-सा रक्त गिरा।

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यतस्ततस्तद्वक्त्रेण चामुण्डा सम्प्रतीच्छति।
मुखे समुद्गता येऽस्या रक्तपातान्महासुराः॥५९॥
तांश्‍चखादाथ चामुण्डा पपौ तस्य च शोणितम्।
देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिर्ऋष्टिभिः॥६०॥

किंतु ज्यों ही वह गिरा त्यो ही चामुंडा ने उसे अपने मुख में ले लिया।

रक्त गिरने से काली के मुख में जो महादैत्य पैदा हुए, उन्हें भी वह चट कर गयी और उसने रक्तबीज का रक्त भी पी लिया।

तदनंतर देवी ने रक्तबीज को, जिसका रक्त चामुंडा ने पी लिया था, वज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि आदि से मार डाला।

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जघान रक्तबीजं तं चामुण्डापीतशोणितम्।
स पपात महीपृष्ठे शस्‍त्रसङ्घसमाहतः॥६१॥
नीरक्तश्‍च महीपाल रक्तबीजो महासुरः।
ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप॥६२॥
तेषां मातृगणो जातो ननर्तासृङ्‌मदोद्धतः॥ॐ॥६३॥

राजन्! इस प्रकार शस्त्रों के समुदाय से, आहत और रक्तहीन हुआ, महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा।

नरेश्वर! इससे देवताऒं को अनुपम हर्ष की प्राप्ति हुई और मातृगण उन असुरों के रक्तपान के मद से उद्धत-सा होकर नृत्य करने लगे।

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इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
रक्तबीजवधो नामाष्टमोऽध्यायः॥८॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवी माहाम्य में, रक्तबीज-वध नामक, आठवां अध्याय पूरा हुआ।


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