गीता के अनुसार मनुष्य का भविष्य कैसे बनता है?


मनुष्य की गति – मन के विचार और उनके परिणाम

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों के जरिए भगवान् ने यह बताया कि
कैसे मनुष्य के विचार और उसका आचरण
उसका भविष्य निर्धारित करते है और
उसकी क्या गति होती है।

इस पोस्ट में
गीता के उन श्लोकों का अर्थ दिया गया है और
धर्मग्रंथों और संतों के प्रवचनों के आधार पर
उपाय दिया गया है।


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ऊपर की इमेज में दिए गए शब्द

मनुष्य योनि –

  • 0 – मनुष्य – मनुष्य जीवन

पशु योनि का कारण –

  • 1 – लोभ – जैसे मुझे 10 रुपये चाहिए
  • 2 – मोह – 10 रुपये मिलने के बाद, मुझे और 100 रुपये चाहिए
  • 3 – आसक्ति – ये मेरा पैसा, ये मेरा घर, ये मेरा बच्चा
  • 4 – घमंड – मैने किया, मैने कमाया, मैने घर बनाया
  • 5 – अहंकार – मै, मेरा, मेरी कोई गलती नही, मै सबसे अच्छा

द्वेष, क्रोध जैसे जहर की वजह से जहरीले पशु योनि का कारण –

  • 6 – ईर्ष्या – उसके पास मेरे से ज्यादा कैसे
  • 7 – द्वेष, घृणा – उसने मेरे साथ ऐसे किया, उसने मेरे को ऐसा बोला

फिर राक्षस लोक, नरक लोक का कारण –

  • 8 – क्रोध – मैंने उसके लिए इतना किया और उसने मेरे साथ ऐसा किया, इसलिए क्रोध और झगड़ा
  • 9 – क्रोध, लोभ की वजह से स्थितियां – जैसे चोरी, हत्या, मारना आदि

बार-बार आसुरी योनि, घोर नरक का कारण –

  • 10 – गलतियों का अहसास ना होना,
    अपनी गलतियों के लिए, अपराध के लिए,
    ईश्वर से माफ़ी ना मांगना

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे ईश्वर! हमें सद्बुद्धि दो।


गीता के श्लोकों में मन के विचारों का वर्णन

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों में
मन में उठने वाले विचार और
उसके परिणामों के बारें में दिया गया है।

उनमे से कुछ श्लोक है –

अध्याय 16 – श्लोक 15 से 21,
अध्याय 13 – श्लोक 21 और
अध्याय 14 – श्लोक 15

निचे उन श्लोकों के
प्रत्येक शब्द का अर्थ और
भावार्थ दिया गया है।

जिसे पढ़ने पर हमें पता चलता है कि
भगवान् ने हमें इन विचारों के बारे में क्या बताया है।


इसका उपाय क्या है?

प्रत्येक क्षण हमारे अंतर्मन में
इनमे से कुछ ना कुछ विचार उठते ही रहते है।

कभी पैसे के लोभ का,
कभी सांसारिक चीजों की इच्छा का,
कभी अहंकार और घमंड का,
तो कभी द्वेष का विचार
हर समय हमारे मन में उठते ही रहते है।

ये विकार जन्म जन्मांतर से
अंतर्मन में इतने गहरे बेठे है,
कि इनको निकालना इतना आसान नहीं है।

—-

तो इन विकारों से कैसे बच सकते है?

इसके लिए हमें ईश्वर, प्रभु, भगवान्,
परमपिता परमेश्वर की सहायता लेनी पड़ती है।

इसलिए सभी धर्मों के ग्रंथो में
प्रार्थना, पश्चाताप को इतना महत्व दिया गया है।

सभी संतों ने ईश्वर से प्रार्थना और
बार बार अपनी गलतियों के लिए
ईश्वर से माफ़ी मांगने के बारे कहा है।

प्रार्थना के कुछ वाक्य जैसे की –

हे ईश्वर! मेरे मन और अंतर्मन को
पवित्र कर देना।

हे ईश्वर! मेरी गलतियां और
मेरे अपराध माफ करना।

—-

हे प्रभु! मेरे मन से द्वेष, घृणा,
ईर्ष्या के विचार (विकार) मिटा दो।

हे ईश्वर! मेरे मन में कभी किसी के लिए
द्वेष, बुरे विचार, घृणा ना आए।

—-

हे ईश्वर! मेरे मन से अहंकार, घमंड
जैसे विकार मिटा दो।

हे परमेश्वर! मेरे मन में कभी
घमंड, अहंकार ना जागे।

—-

हे ईश्वर! मुझे सदबुद्धी दो। मुझे अपने चरणों में जगह दो।
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


चित्तानुपश्यना

इसलिए यह महत्वपूर्ण है की
मनुष्य को अपने विचार और आचरण के प्रति
हर क्षण सतर्क रहना जरूरी है।

जैसे विपश्यना के एक अंग
चित्तानुपश्यना (चित्त अनुपश्यना) में
हमें मन के प्रति जागृत रहना पड़ता है और
मन को और प्रत्येक विचार को देखना पड़ता है।

इसका भी ख़याल रखना पड़ता है कि
क्या हमारे कर्म से,
हम जो काम कर रहे है
उससे किसी को दुःख पहुंच रहा है क्या?

क्या मन में किसी के लिए
द्वेष, घृणा के विचार आ रहे है?

क्या मन में खुद के किये हुए कामों का
अहंकार, घमंड आ रहा है।
जैसे मैंने पैसा कमाया, मैंने घर बनाया,
मैंने इतने काम किये, मैं सब कर रहा हूँ आदि।

ॐ नमः शिवाय
हे ईश्वर! हमें सब बन्धनों से मुक्त कर दो।


अध्याय 16

15

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

आढ्यः – बड़ा धनी (और)
अभिजनवान् – बड़े कुटुम्बवाला
अस्मि – हूँ।
मया – मेरे
सदृशः – समान
अन्यः – दूसरा
कः – कौन
अस्ति – है?
यक्ष्ये – मैं यज्ञ करूँगा,
दास्यामि – दान दूँगा (और)
मोदिष्ये – आमोद-प्रमोद करूँगा।

मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ।
मेरे समान दूसरा कौन है?
मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और
आमोद-प्रमोद करूँगा॥15॥

आगे श्लोक 16 में
भगवान् ने यह बताया कि
ऐसे अज्ञानी और घमंडी पुरुषों की क्या गति होती है,
यानी की उन्हें बाद में किस प्रकार का जीवन मिलता है।


अहंकार और घमंड

अहंकार, घमंड और अभिमानके परायण होकर
अज्ञानी मनुष्य सोचता है की –
कितना धन मेरे पास है,
कितना सोनाचाँदी, मकान, खेत और
जमीन मेरे पास है।

कितने ऊँचे पदाधिकारी मेरे पक्षमें हैं।
मै धन और लोगोके बलपर,
रिश्वत और सिफारिशके बलपर
जो चाहें वही कर सकता हूँ।

मैं कितना दान देता हूँ,
लोगो का भला करता हूँ।
दानसे मेरा नाम अखबारोंमें छपेगा।

धर्मशाला बनवाऊंगा और
उसमें मेरा नाम खुदवाया जायेगा,
जिससे मेरी यादगारी रहेगी।

इस प्रकार अध्याय 16 के
13, 14, और 15 श्लोकमें वर्णित मनोरथ करनेवाले
यानी की इच्छा वाले मनुष्य अज्ञानसे मोहित रहते हैं।

मूढ़ताके कारण ही
उनकी ऐसे मनोरथवाली वृत्ति होती है।


अहंकार वाले मूढ़ विचार मन में क्यों आते है?

अध्याय 3 श्लोक 38 में भगवान् ने कहा था कि,
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और
मैल से दर्पण ढँका जाता है,
वैसे ही अज्ञान और इच्छाओं द्वारा ज्ञान ढँका रहता है और
इसी अज्ञान की वजह से ही इस प्रकार के
मूढ़ विचार, अहंकारी विचार उनके मन में आते रहते है।

हरे राम हरे कृष्ण
हे ईश्वर! सब सुखी हों, सबका मंगल हो।


16

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥

इति – इस प्रकार
अज्ञानविमोहिताः – अज्ञानसे मोहित रहनेवाले (तथा)
अनेकचित्तविभ्रान्ताः – अनेक प्रकारसे भ्रमित चित्तवाले
मोहजालसमावृताः – मोहरूप जालसे समावृत (और)
कामभोगेषु – विषयभोगोंमें
प्रसक्ताः – अत्यन्त आसक्त (आसुरलोग)
अशुचौ – महान् अपवित्र
नरके – नरकमें
पतन्ति – गिरते हैं।

इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले
तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले
मोहरूप जाल से समावृत और
विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग
महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥16॥


इच्छाएं और मोहजाल

अनेकचित्तविभ्रान्ताः अर्थात
इस प्रकार लोभी और अहंकारी पुरुषों के मन में
कई प्रकार की इच्छाएं और कामनायें जागृत होती रहती है।

और उस एकएक इच्छाकी पूर्तिके लिये
वे अनेक तरहके उपाय ढूंढते हैं
तथा उन उपायोंके विषयमें
निरंतर उनके मन में चिंतन चलता रहता है,
निरंतर मन भटकता रहता है।

मोहजालसमावृताः यानी की
मोहजालसे वे ढके रहते हैं।
जैसे मछली जाल मे फंसी रहती है,
उसी प्रकार वो मनुष्य बंधनों के और
माया के जाल में फंसा रहता है।


इच्छाओं की पूर्ति के बाद भय और फिर दुःख

ऐसे मनुष्यों में
क्रोध और अभिमानके साथसाथ,
संग्रह किये हुए धन को बचाये रखने का भय भी बना रहता है।

शुरुआत में
वह धन और संग्रह की हुई चीजें, सुखदायी लगती है,
बड़ी अच्छी लगती है,
किन्तु कुछ वर्षो के बाद
वही चीजें उसके लिए दुःख का कारण बनती जाती है।

पतन्ति नरकेऽशुचौ अर्थात
मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक बन जाता है और
मरनेके बाद उन्हें नरकोंकी प्राप्ति होती है।
उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं।

नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि
जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है,
ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं।

क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है,
मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है।


17

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥

ते – वे
आत्मसम्भाविताः – अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले
स्तब्धाः – घमण्डी पुरुष
धनमानमदान्विताः – धन और मानके मदसे युक्त होकर
नामयज्ञैः – केवल नाममात्रके यज्ञोंद्वारा
दम्भेन – पाखण्डसे
अविधिपूर्वकम् – शास्त्रविधिरहित
यजन्ते – यजन करते हैं।

वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष
धन और मान के मद से युक्त होकर
केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा
पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥

ॐ गं गणपतये नमः
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


18

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

अहङ्कारम् – अहंकार,
बलम् – बल,
दर्पम् – घमण्ड,
कामम् – कामना, (और)
क्रोधम् – क्रोधादिके
संश्रिताः – परायण
– और
अभ्यसूयकाः – दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष
आत्मपरदेहेषु – अपने और दूसरोंके शरीरमें (स्थित)
माम् – मुझ अन्तर्यामीसे
प्रद्विषन्तः – द्वेष करनेवाले होते हैं।

(द्वेष करनेवाले नराधमोंको आसुरी योनियोंकी प्राप्ति।)

वे अहंकार, बल,
घमण्ड, कामना और

क्रोधादि के परायण और
दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष

अपने और दूसरों के शरीर में स्थित
मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥

हे प्रभु, मुझे पवित्र कर दो।


19

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

तान् – उन
द्विषतः – द्वेष करनेवाले
अशुभान् – पापाचारी (और)
क्रूरान् – क्रूरकर्मी
नराधमान् – नराधमोंको
अहम् – मैं
संसारेषु – संसारमें
अजस्रम् – बार-बार
आसुरीषु – आसुरी
योनिषु – योनियोंमें
एव – ही
क्षिपामि – डालता हूँ।

(आसुरी स्वभाववालोंको अधोगति प्राप्त होनेका कथन।)

उन द्वेष करने वाले पापाचारी और
क्रूरकर्मी नराधमों को
मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ॥19॥

हे ईश्वर! हमारे सब दु:ख दुर्गुण दूर कर दो।


20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥

कौन्तेय – हे अर्जुन!
मूढाः – वे मूढ
माम् – मुझको
अप्राप्य – न प्राप्त होकर
एव – ही
जन्मनि – जन्म-
जन्मनि – जन्ममें
आसुरीम् – आसुरी
योनिम् – योनिको
आपन्नाः – प्राप्त होते हैं, (फिर)
ततः – उससे भी
अधमाम् – अति नीच
गतिम् – गतिको
यान्ति – प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।

(आसुरी सम्पदाके प्रधान लक्षण—काम, क्रोध और लोभको नरकके द्वार बतलाना।)

हे अर्जुन!
वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर
जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं,
फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं
अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं॥20॥

हे ईश्वर! अज्ञानता से हमे बचाये रखना।


21

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥

काम, क्रोध तथा लोभ –
ये तीन प्रकार के नरक के द्वार
आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।

अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

(सर्व अनर्थों के मूल और
नरक की प्राप्ति में हेतु होने से
यहाँ काम, क्रोध और लोभ को
“नरक के द्वार” कहा है)

ॐ नमः शिवाय

हे ईश्वर! सब संकटों से हमारी रक्षा करो।


अध्याय 14

15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

रजसि – रजोगुणके बढ़नेपर
प्रलयम् – मृत्युको
गत्वा – प्राप्त होकर
कर्मसङ्गिषु – कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें
जायते – उत्पन्न होता है;
तथा – तथा
तमसि – तमोगुणके बढ़नेपर
प्रलीनः – मरा हुआ मनुष्य (कीट, पशु आदि)
मूढयोनिषु – मूढयोनियोंमें
जायते – उत्पन्न होता है।

रजोगुण के बढ़ने पर
मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा
तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य
कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥


अध्याय 13

21

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

प्रकृतिस्थः – प्रकृतिमें स्थित
हि – ही
पुरुषः – पुरुष
प्रकृतिजान् – प्रकृतिसे उत्पन्न
गुणान् – त्रिगुणात्मक पदार्थोंको
भुङ्क्ते – भोगता है (और इन)
गुणसङ्गः – गुणोंका संग (ही)
अस्य – इस जीवात्माके
सदसद्योनिजन्मसु – अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका
कारणम् – कारण है

प्रकृति में (भगवान की त्रिगुणमयी माया) स्थित ही
पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और
इन गुणों का संग ही
इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं
रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और
तमोगुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।॥

ध्यान के लिए उपयोगी – भगवान् शिव के विभिन्न स्वरूपोंका और गुणोंका ध्यान


भगवान् शिव का ध्यान करने वालों के लिए
यह पेज बहुत उपयोगी है।

क्योंकि इस पेज में
भगवान् शिव के 15 स्वरूपों का, जैसे की
भगवान् सदाशिव, महामहेश्वर, भगवान् शंकर,
भगवान् महाकाल, श्रीनीलकण्ठ, महामृत्युञ्जय आदि का
सरल शब्दों में ध्यान दिया गया है।

ॐ नमः शिवाय


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवान् शिव के
सभी 15 स्वरूपों के बारे में 
संस्कृत श्लोक और उनके अर्थ दिए गए हैं।

ध्यान सम्बन्धी बातें सिर्फ हिन्दी में

शिवजी के सभी स्वरूपों के बारें में सिर्फ हिंदी में पढ़ने के लिए,
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संस्कृत श्लोक के साथ अर्थ

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भगवान् सदाशिव

यो धत्ते भुवनानि सप्त गुणवान् स्रष्टा
रज:संश्रय: संहर्ता तमसान्वितो गुणवतीं
मायामतीत्य स्थित:। 
सत्यानन्दमनन्तबोधममलं ब्रह्मादिसंज्ञास्पदं नित्यं
सत्त्वसमन्वयादधिगतं पूर्णं शिवं धीमहि॥

भगवान् सदाशिव

जो रजोगुणका आश्रय लेकर
संसारकी सृष्टि करते हैं,

सत्त्वगुणसे सम्पन्न हो
सातों भुवनोंका धारण- पोषण करते हैं,

तमोगुणसे युक्त हो
सबका संहार करते हैं

तथा त्रिगुणमयी मायाको लाँघकर
अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित रहते हैं,

उन सत्यानन्दस्वरूप, अनन्त बोधमय,
निर्मल एवं पूर्णब्रह्म शिवका हम ध्यान करते हैं।

वे ही सृष्टिकालमें ब्रह्मा,
पालनके समय विष्णु और
संहारकालमें रुद्र नाम धारण करते हैं
तथा सदैव सात्त्विकभावको अपनानेसे ही प्राप्त होते हैं।

भगवान् सदाशिव को नमस्कार

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परमात्मप्रभु शिव

वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं
रोदसी यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषय: शब्दो यथार्थाक्षर:। 
अन्तर्यश्च मुमुक्षुभिर्नियमित- प्राणादिभिर्मृग्यते स
स्थाणु: स्थिरभक्तियोगसुलभो नि:श्रेयसायास्तु व:॥

परमात्मप्रभु शिव

वेदान्तग्रन्थोंमें जिन्हें
एकमात्र परम पुरुष परमात्मा कहा गया है,

जिन्होंने समस्त पृथ्वीको अन्तर्बाह्य –
सर्वत्र व्याप्त कर रखा है।

जिन एकमात्र महादेवके लिये “ईश्वर ” शब्द
अक्षरश: यथार्थरूपमें प्रयुक्त होता है और
जो किसी दूसरेके विशेषणका विषय नहीं बनता,

अपने अन्तर्हृदयमें समस्त प्राणोंको निरुद्ध करके
मोक्षकी इच्छावाले योगीजन
जिनका निरन्तर चिन्तन और
अन्वेषण करते रहते हैं,

वे नित्य एक समान सुस्थिर रहनेवाले,
महाप्रलयमें भी विक्रियाको प्राप्त न होनेवाले और
भक्तियोगसे शीघ्र प्रसन्न होनेवाले भगवान् शिव
सभीका परम कल्याण करें।

परमात्मप्रभु शिव को नमस्कार

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मङ्गलस्वरूप भगवान् शिव

कृपाललितवीक्षणं स्मितमनोज्ञवक्त्राम्बुजं
शशाङ्ककलयोज्ज्वलं शमितघोरतापत्रयम्। 
करोतु किमपि स्फुरत्परमसौख्यसच्चिद्वपु-
र्धराधरसुताभुजोद्वलयितं महो मङ्गलम्॥

मंगलस्वरूप भगवान् शिव

जिनकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है,
जिनका मुखारविन्द मन्द मुसकानकी छटासे
अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है,
जो चन्द्रमाकी कला- जैसे परम उज्ज्वल हैं,

जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंको
शान्त कर देनेमें समर्थ हैं,

जिनका स्वरूप सच्चिन्मय
एवं परमानन्दरूपसे प्रकाशित होता है

तथा जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके
भुजापाशसे आवेष्टित हैं,

वे शिव नामक अनिर्वचनीय तेज:पुंज
सबका मंगल करें।

मंगलस्वरूप भगवान् शिव को प्रणाम

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भगवान अर्धनारीश्वर

नीलप्रवालरुचिरं विलसत्त्रिनेत्रं
पाशारुणोत्पलकपालत्रिशूलहस्तम्। 
अर्धाम्बिकेशमनिशं प्रविभक्तभूषं
बालेन्दुबद्धमुकुटं प्रणमामि रूपम्॥

यो धत्ते निजमाययैव भुवनाकारं विकारोज्झितो
यस्याहुः करुणाकटाक्षविभवौ स्वर्गापवर्गाभिधौ।
प्रत्यग्बोधसुखाद्वयं हृदि सदा पश्यन्ति यं
योगिन- स्तस्मै शैलसुताञ्चितार्धवपुषे शश्वन्नमस्तेजसे॥

भगवान् अर्धनारीश्वर

श्रीशंकरजीका शरीर नीलमणि और
प्रवालके समान सुन्दर (नीललोहित) है,
तीन नेत्र हैं,
चारों हाथोंमें पाश, लाल कमल,
कपाल और त्रिशूल हैं,
आधे अंगमें अम्बिकाजी और आधेमें महादेवजी हैं।

दोनों अलग- अलग श्रृंगारोंसे सज्जित हैं,
ललाटपर अर्धचन्द्र है और
मस्तकपर मुकुट सुशोभित है,
ऐसे स्वरूपको नमस्कार है।

जो निर्विकार होते हुए भी
अपनी मायासे ही
विराट् विश्वका आकार धारण कर लेते हैं,
स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष)
जिनके कृपा- कटाक्षके ही वैभव बताये जाते हैं
तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर
अद्वितीय आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें ही देखते हैं,

जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है,
उन तेजोमय भगवान् शंकरको,
निरन्तर मेरा नमस्कार है।

भगवान् अर्धनारीश्वर को नमस्कार

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भगवान् शंकर

वन्दे वन्दनतुष्टमानसमतिप्रेमप्रियं प्रेमदं
पूर्णं पूर्णकरं प्रपूर्णनिखिलैश्वर्यैकवासं शिवम्। 
सत्यं सत्यमयं त्रिसत्यविभवं सत्यप्रियं सत्यदं
विष्णुब्रह्मनुतं स्वकीयकृपयोपात्ताकृतिं शंकरम्॥

भगवान् शंकर

वन्दना करनेसे जिनका मन प्रसन्न हो जाता है,
जिन्हें प्रेम अत्यन्त प्यारा है,
जो प्रेम प्रदान करनेवाले, पूर्णानन्दमय,
भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने- वाले,
सम्पूर्ण ऐश्वर्योंके एकमात्र आवासस्थान और
कल्याणस्वरूप हैं।

सत्य जिनका श्रीविग्रह है,
जो सत्यमय हैं,
जिनका ऐश्वर्य त्रिकालाबाधित है,
जो सत्यप्रिय एवं सत्यप्रदाता हैं,
ब्रह्मा और विष्णु जिनकी स्तुति करते हैं,
स्वेच्छानुसार शरीर धारण करनेवाले
उन भगवान् शंकरकी मैं वन्दना करता हूँ।

भगवान् अर्धनारीश्वर को नमस्कार

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गौरीपति भगवान् शिव

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं
गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम्। 
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं
बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि॥

गौरीपति भगवान् शिव

जो विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और
लय आदिके एकमात्र कारण हैं,

गौरी गिरिराजकुमारी उमाके पति हैं,

तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्तिका कहीं अन्त नहीं है,

जो मायाके आश्रय होकर भी
उससे अत्यन्त दूर हैं

तथा जिनका स्वरूप अचिन्त्य है,
उन विमल बोधस्वरूप भगवान् शिवको
मैं प्रणाम करता हूँ।

गौरीपति भगवान् शिव को नमस्कार

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महामहेश्वर

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्ंग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। 
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं
वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥

महामहेश्वर

चाँदीके पर्वतके समान जिनकी श्वेत कान्ति है,
जो सुन्दर चन्द्रमाको आभूषणरूपसे धारण करते हैं,
रत्नमय अलंकारोंसे जिनकाशरीर उज्ज्वल है,

जिनके हाथोंमें परशु तथा मृग,
वर और अभय मुद्राएँ हैं,

जो प्रसन्न हैं,
पद्मके आसनपर विराजमान हैं,

देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर
स्तुति करते हैं,

जो बाघकी खाल पहनते हैं,

जो विश्वके आदि, जगत्‌की उत्पत्तिके बीज और
समस्त भयको हरनेवाले हैं,

जिनके पाँच मुख और
तीन नेत्र हैं, उन महेश्वरका
प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये।

भगवान् महामहेश्वर को नमस्कार

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पञ्चमुख सदाशिव

मुक्तापीतपयोदमौक्तिकजवावर्णैर्मुखै:
पञ्चभि- स्त्र्यक्षैरञ्चितमीशमिन्दुमुकुटं पूर्णेन्दुकोटिप्रभम्। 
शूलं टङककृपाणवज्रदहनान् नागेन्द्रघण्टाङ्कुशान्
पाशं भीतिहरं दधानममिताकल्पोज्ज्वलं चिन्तयेत्॥

पंचमुख सदाशिव

जिन भगवान् शंकरके पाँच मुखोंमें क्रमश:
ऊर्ध्वमुख गजमुक्ताके समान हलके लाल रंगका,
पूर्व- मुख पीतवर्णका,
दक्षिण- मुख सजल मेघके समान नील- वर्णका
पश्चिम- मुख मुक्ताके समान कुछ भूरे रंगका और
उत्तर- मुख जवापुष्पके समान प्रगाढ़ रक्तवर्णका है,

जिनकी तीन आँखें हैं और
सभी मुखमण्डलोंमें नीलवर्णके मुकुटके साथ
चन्द्रमा सुशोभित हो रहे है,

जिनके मुखमण्डलकी आभा
करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाके तुल्य आह्लादित करनेवाली है,

जो अपने हाथोंमें क्रमश:
त्रिशूल टंक (परशु), तलवार, वज्र,
अग्नि नागराज, घण्टा, अंकुश, पाश
तथा अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं

एवं जो अनन्त कल्पवृक्षके समान कल्याणकारी हैं,
उन सर्वेश्वर भगवान् शंकरका ध्यान करना चाहिये।

भगवान् पंचमुख सदाशिव को नमस्कार

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अम्बिकेश्वर

आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभाव- मार्यं
तमीशमजरामरमात्मदेवम्। 
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं सम्भावये
मनसि शंकरमम्बिकेशम्॥

अम्बिकेश्वर

जो आदि और अन्तमें (तथा मध्यमें भी) नित्य मंगलमय हैं,
जिनकी समानता अथवा तुलना कहीं भी नहीं है,

जो आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले देवता (परमात्मा) हैं,
जिनके पाँच मुख हैं और
जो खेल- ही- खेलमें – अनायास
जगत्‌की रचना, पालन और संहार
तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं,

उन सर्वश्रेष्ठ अजर- अमर
ईश्वर अम्बिकापति भगवान् शंकरका
मैं मन- ही- मन चिन्तन करता हूँ।

भगवान् अम्बिकेश्वर को नमस्कार

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पार्वतीनाथ भगवान् पञ्चानन

शूलाही टङ्कघण्टासिश्रृणिकुलिशपाशाग्न्यभीतीर्दधानं
दोर्भिः शीतांशुखण्डप्रतिघटितजटाभारमौलिं त्रिनेत्रम्। 
नानाकल्पाभिरामापघनमभिमतार्थप्रदं
सुप्रसन्नं पद्मस्थं पञ्चवक्त्रं स्फटिकमणिनिभं
पार्वतीशं नमामि॥

पार्वतीनाथ भगवान् पंचानन

जो अपने करकमलों में क्रमश:
त्रिशूल, सर्प, टंक (परशु), घण्टा, तलवार
अंकुश वज्र, पाश, अग्नि तथा अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं,

जिनका प्रत्येक मुखमण्डल द्वितीया के चन्द्रमासे युक्त
जटाओंसे सुशोभित हो रहा है,

जिनके चन्द्रमा सूर्य और अग्नि – ये तीन नेत्र हैं,
जो अनेक कल्पवृक्षोंके समान
अपने भक्तोंको स्थिर रहनेवाले मनोरथोंसे
परिपूर्ण कर देते हैं और
जो सदा अत्यन्त प्रसन्न ही रहते हैं,

जो कमलके ऊपर विराजित हैं,
जिनके पाँच मुख हैं
तथा जिनका वर्ण स्फटिकमणिके समान
दिव्य प्रभासे आभासित हो रहा है,
उन पार्वतीनाथ भगवान् शंकरको मैं नमस्कार करता हूँ।

पार्वतीनाथ भगवान् पंचानन को नमस्कार

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भगवान् महाकाल

स्रष्टारोऽपि प्रजानां प्रबलभवभयाद् यं नमस्यन्ति
देवा यश्चित्ते सम्प्रविष्टोऽप्यवहितमनसां ध्यानमुक्तात्मनां च। 
लोकानामादिदेव: स जयतु भगवाञ्छ्रीमहाकालनामा
बिभ्राण: सोमलेखामहिवलययुतं व्यक्तलिङ्गं कपालम्॥

भगवान् महाकाल

प्रजाकी सृष्टि करनेवाले प्रजापति देव भी
प्रबल संसार- भयसे मुक्त होनेके लिये
जिन्हें नमस्कार करते हैं,

जो सावधानचित्तवाले
ध्यानपरायण महात्माओंके हृदयमन्दिरमें
सुखपूर्वक विराजमान होते हैं

और चन्द्रमाकी कला, सर्पोंके कंकण
तथा व्यक्त चिह्नवाले कपालको धारण करते हैं,

सम्पूर्ण लोकोंके आदिदेव
उन भगवान् महाकालकी जय हो।

भगवान् महाकाल को नमस्कार

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श्रीनीलकण्ठ

बालार्कायुततेजसं धृतजटाजूटेन्दुखण्डोज्ज्वलं
नागेन्द्रैः कृतभूषणं जपवटीं शूलं कपालं करैः। 
खट्वाङ्गं दधतं त्रिनेत्रविलसत्पञ्चाननं सुन्दरं।
व्याघ्रत्वक्परिधानमब्जनिलयं श्रीनीलकण्ठं भजे॥

श्रीनीलकण्ठ

भगवान् श्रीनीलकण्ठ
दस हजार बालसूर्योंके समान तेजस्वी हैं,
सिरपर जटाजूट, ललाटपर अर्धचन्द्र और
मस्तकपर सर्पोंका मुकुट धारण किये हैं,
चारों हाथोंमें जपमाला, त्रिशूल,
नर- कपाल और खट्‌वांग- मुद्रा है।

तीन नेत्र हैं, पाँच मुख हैं,
अति सुन्दर विग्रह है, बाघम्बर पहने हुए हैं और
सुन्दर पद्मपर विराजित हैं।

इन श्रीनीलकण्ठदेवका भजन करना चाहिये।

भगवान् श्रीनीलकण्ठ को प्रणाम

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पशुपति

मध्याह्नार्कसमप्रभं शशिधरं भीमाट्टहासोज्ज्वलं
त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखिशिखाश्मश्रुस्फुरन्मूर्धजम्। 
हस्ताब्जैस्त्रिशिखं समुद्‌गरमसिं शक्तिं दधानं
विभुं दंष्ट्राभीमचतुर्मुखं पशुपतिं दिव्यास्त्ररूपं स्मरेत्॥

पशुपति

जिनकी प्रभा मध्याह्नकालीन सूर्यके समान
दिव्य रूपमें भासित हो रही है,

जिनके मस्तकपर चन्द्रमा विराजित है,

जिनका मुखमण्डल
प्रचण्ड अट्टहाससे उद्‌भासित हो रहा है,

सर्प ही जिनके आभूषण हैं
तथा चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि –
ये तीन जिनके तीन नेत्रोंके रूपमें अवस्थित हैं,

जिनकी दाढ़ी और सिरकी जटाएँ
चित्र- विचित्र रंगके मोरपंखके समान स्फुरित हो रही हैं,

जिन्होंने अपने करकमलोंमें त्रिशूल, मुद्‌गर,
तलवार तथा शक्तिको धारण कर रखा है और
जिनके चार मुख तथा दाढ़ें भयावह हैं,

ऐसे सर्वसमर्थ, दिव्य रूप
एवं अस्त्रोंको धारण करनेवाले
पशुपतिनाथका ध्यान करना चाहिये।

भगवान् पशुपतिनाथ को नमस्कार

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भगवान् दक्षिणामूर्ति

मुद्रां भद्रार्थदात्रीं सपरशुहरिणां बाहुभिर्बाहुमेकं
जान्वासक्तं दधानो भुजगवरसमाबद्धकक्षो वटाध:। 
आसीनश्चन्द्रखण्डप्रतिघटितजट: क्षीरगौरस्त्रिनेत्रो
दद्यादाद्यैः शुकाद्यैर्मुनिभिरभिवृतो भावशुद्धिं भवो व:॥

भगवान् दक्षिणामूर्ति

जो भगवान् दक्षिणामूर्ति अपने करकमलोंमें
अर्थ प्रदान करनेवाली भद्रामुद्रा,
मृगीमुद्रा और परशु धारण किये हुए हैं और
एक हाथ घुटनेपर टेके हुए हैं,

कटिप्रदेशमें नागराजको लपेटे हुए हैं
तथा वटवृक्षके नीचे अवस्थित हैं,

जिनके प्रत्येक सिरके ऊपर जटाओंमें
द्वितीयाका चन्द्रमा जटित है और
वर्ण धवल दुग्धके समान उज्ज्वल है,

सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि –
ये तीनों जिनके तीन नेत्रके रूपमें स्थित हैं,

जो सनकादि एवं शुकदेव [नारद]
आदि मुनियोंसे आवृत हैं,

वे भगवान् भव शंकर हृदयमें
विशुद्ध भावना (विरक्ति) प्रदान करें।

भगवान् दक्षिणामूर्ति को नमस्कार

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महामृत्युञ्जय

हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो
द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहन्तं परम्। 
अङ्कन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं
स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देव त्रिनेत्रं भजे॥

हस्ताम्भोजयुगस्थकुम्भयुगलादुद्‌धृत्य तोयं शिर:
सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वाङ्के सकुम्भौ करौ।
अक्षस्रङ्मृगहस्तमम्बुजगतं मूर्धस्थचन्द्रस्रव-
त्पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजं त्र्यक्षं च मृत्युञ्जयम्॥

महामृत्युंजय

त्र्यम्बकदेव अष्टभुज हैं।

उनके एक हाथमें अक्षमाला और
दूसरेमें मृगमुद्रा है,
दो हाथोंसे कलशोंमें अमृतरस लेकर
उससे अपने मस्तकको आप्लावित कर रहे हैं और
दो हाथोंसे उन्हीं कलशोंको थामे हुए हैं।

शेष दो हाथ उन्होंने
अपने अंकपर रख छोड़े हैं और
उनमें दो अमृतपूर्ण घट हैं।

वे श्वेत पद्मपर विराजमान हैं,
मुकुटपर बालचन्द्र सुशोभित है,
मुखमण्डलपर तीन नेत्र शोभायमान हैं।

ऐसे देवाधिदेव कैलासपति श्रीशंकरकी
मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

जो अपने दो करकमलोंमें रखे हुए
दो कलशोंसे जल निकालकर
उनसे ऊपरवाले दो हाथोंद्वारा
अपने मस्तकको सींचते हैं।

अन्य दो हाथोंमें दो घड़े लिये उन्हें अपनी गोदमें रखे हुए हैं
तथा शेष दो हाथोंमें रुद्राक्ष एवं मृगमुद्रा धारण करते हैं,
कमलके आसनपर बैठे हैं,
सिरपर स्थित चन्द्रमासे निरन्तर झरते हुए
अमृतसे जिनका सारा शरीर भीगा हुआ है
तथा जो तीन नेत्र धारण करनेवाले हैं,
उन भगवान् मृत्युंजयका,
जिनके साथ गिरिराजनन्दिनी उमा भी विराजमान हैं,
मैं भजन (चिन्तन) करता हूँ।

भगवान् महामृत्युंजय को नमस्कार

जीवन का उद्देश्य क्या है?


इस लेख में संतों के प्रवचनों से जो बाते दी गयी है,
उसमे बताया गया है की जीवन का उद्देश्य क्या है और
मनुष्य कैसे उस उद्देश्य से भटक जाता है,
अर्थात उसका पतन होने लगता है।

और अंत में
कैसे फिर से मनुष्य सही रास्ते पर आता है,
यह दिया गया है।


मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए?

याद रक्खो, मानव-शरीर विषयभोगके लिये नहीं मिला है।

इन्द्रियोंके भोग तो सभी योनियोंमें (जैसे पशुयोनि आदिमें) प्राप्त होते हैं।

यहाँ भी, अर्थात मनुष्य जीवन में भी प्रारब्धानुसार प्राप्त होंगे ही।

मानव जीवनका तो एकमात्र उद्देश्य है – ईश्वरकी प्राप्ति यानी की भगवत्प्राप्ति।

इसीको मोक्ष, निर्वाण, आत्मसाक्षात्कार या मुक्ति भी कहते हैं।

ईश्वरकी भक्ति में लगे हुए भक्त भी
मानव जीवनका चरम और परम उदेश्य
भगवत्प्रेमकी प्राप्ति बतलाते हैं।

दोनों में, अर्थात मोक्ष में और भगवत प्रेम की प्राप्ति में, बात एक ही है।

दोनों में, विषयभोगोंसे तथा सांसारिक पदार्थोंसे आसक्ति हटानी पड़ती है।

दोनों में ही कामना तथा अहंकारको मिटाना पड़ता है।


मोक्ष या भगवत्प्रेम-प्राप्ति

विषयों में आसक्त मनुष्य न भगवानको प्राप्त होता है, न भगवत्प्रेमको।

मनुष्य जब ईश्वर की प्राप्ति को ही
अपने जीवनका एकमात्र उद्देश्य मानकर
उसीके लिये प्रयत्न करनेका निश्चय करता है,
तभी उसमें यथार्थ मानवताका सूत्रपात या प्रारम्भ होता है।

नहीं तो वह मानव-शरीरमें या तो पशु है या असुर।

आहार, निद्रा, भय और वैरकी ओर झुका हुआ मनुष्य
पशुता से युक्त है और
अत्याधिक भोग-वासनाओंमें फंसा अहंकारी मनुष्य
दानवता या आसुरी सम्पदासे।


कौन सा मनुष्य, पशु से भी गया बिता है

1. जो केवल भोजनकी और
भौतिक वस्तुओं की चिन्तामें लगा हुआ
और उसके लिये प्रयत्नशील रहता है।

2. भौतिक वस्तुओं को ही सबसे मुख्य वस्तु जानकर,
उनको ही जीवनका एकमात्र ध्येय मानकर,
उन वस्तुओं की प्राप्तिके लिये
येन-केन-प्रकारेण उघोग में लगा रहता है –
चाहे वे हिंसासे मिले, चाहे अहिंसासे।

3. सांसारिक वस्तुएं मिलने में
किसी प्रकार बाधा न आ जाय,
मिली हुई वस्तुएं चली ना जाए,
इस भयसे जो सदा भयभीत रहता है।

4. इनमें बाधा देनेवालेके साथ जो लड़ने लगता है,
तथा परम आत्मीयको, सगे-सम्बन्धियों को भी
शत्रु मान लेता है। और

5. पेट भरकर,
भौतिक वस्तुओं का सुख प्राप्त कर,
बाधा देनेवालोंसे लड़-भिडकर,
जो सो जानेमें ही जीवनका सुख प्राप्त करता है,
ऐसा मनुष्य
मानव-शरीरधारी होनेपर भी मानव नहीं है।

क्योंकि भगवत्प्राप्तिकी इच्छा,
जहाँसे मानवताका प्रारम्भ होता है,
उसमें जाग्रत् ही नहीं हुई।

कई बातोंमें तो वह पशुसे भी गया बीता है।


कैसे मनुष्य पशु से भी निम्नश्रेणी का हो जाता है

पशुका आहार-भोग आदि नियमित होता है,
उसकी विचारशक्ति तथा सामर्थ्य-शक्ति भी सीमित होती है,
इससे उसकी पशुताका भी विशेष विकास नहीं होता।

सिंह, बाघ, हाथी, कुत्ता, भेड़, बकरी आदि पशु
अपने शरीर के अनुसार जितनी चेष्टा कर सकते हैं और
जैसी चेष्टा कर सकते हैं, उतनी ही करते हैं।

पर मनुष्य जब अपनी बुद्धिको तथा प्राप्त ज्ञानको
पशुताकी वृद्धिमें लगाता है,
तब तो वह इतना घोर पशु बनता जाता है,
जो पशु-जगतके लिये सम्भव ही नहीं है।

इसीसे ऐसा मनुष्य पशुजातिके पशुकी अपेक्षा
कहीं अधिक निम्नश्रेणीका होता है।

पशु उससे उन्नत रह जाते हैं और
वह नीची गतिमें चला जाता है।


भगवान् को भूलकर मनुष्य कैसे असुर हो जाता है

भगवानको जीवनकी परम गति न मानकर,
जो केवल भोगोंके प्राप्त करने और
उन्हें भोगनेमें ही जीवनकी इतिकर्तव्यता
अर्थात अपना कर्तव्य मानता है, और

उन वस्तुओं का भोग ही
जिसके जीवनका सिद्धान्त है –
वह असुर है।

ऐसा मनुष्य दम्भ, घमंड,
अभिमान, क्रोध, कठोर वचन
तथा अज्ञानको अपनी सम्पत्ति माने रहता है।

यथार्थमें कौन-सा कर्म करना चाहिये,
कौन-सा नहीं करना चाहिये,
इसको यह जानता ही नहीं;

इसलिये उसके जीवनमें
न तो बाहर-भीतरकी शुद्धि रहती है,
न श्रेष्ठ आचरण रहते हैं और
न सत्यका व्यवहार या दर्शन ही।


कौन से विचार मनुष्य को नीचे की ओर ले जाते है?

वह मानता है –
संसारका कोई न तो बनानेवाला है,
न कोई आधार है,
प्रकृतिके द्वारा अपने आप ही यह उत्पन्न हो जाता है ।

स्त्री-पुरुषोंका संयोग ही इसमें प्रधान हेतु है।

अतएव संसारमें भोग भोगना ही
जीवनका सार-सर्वस्व है।

इस प्रकार मानकर वह असुर-मानव
अपने मानव-भावको खो देता है।

उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

दूसरेका बुरा करनेमें ही
वह अपना स्वार्थ समझता है।

ऐसा कोई उग्र-क्रूर कर्म नहीं,
जो वह नहीं कर सकता हो।

दूसरों का चाहे जो हो,
उसका स्वार्थ सिद्ध होना चाहिये।

वह सदा मान तथा मदसे भरा ही रहता है।

उसकी विषयकामना कभी पूरी होती ही नहीं।

परंतु कामनाओंकी पूर्तिके लिये
वह मिथ्या मतवादोंको ग्रहण करके
भ्रष्टाचारमें प्रवृत्त हो जाता है।

भौतिक वस्तुएं ही जीवनका सार सिद्धान्त है,
इस मान्यताके कारण वह पुरे जीवन में
अनन्त-अनन्त चिन्ता-ज्वालाओंसे जलता रहता है।

जन, धन, परिस्थिति आदिकी
सैकड़ों सैकड़ों आशाकी दृढ़ फाँसियोंसे
जकड़ा हुआ वह असुर-मानव
भौतिक वस्तुओं के लिये अन्यायपूर्वक
अर्थसंग्रहमें लगा रहता है।

रात-दिन यही सोचता रहता है,
आज इतना मिल गया,
अब प्रयत्न करके और भी पा लूंगा ।

इतना धन तो मेरे पास हो गया,
उसके पास मुझसे अधिक है,
मैं ऐसे उपाय करूँगा कि
जिससे उससे भी अधिक धन-सम्पन्न हो जाऊँगा ।

आज यह अधिकार मिला, इस कुर्सीपर बैठा,
कल इससे भी ऊँचा अधिकार प्राप्त करूँगा।

लेकिन अमुक-अमुक व्यक्ति मेरे मार्गमें बाधक हैं,
वे सदा सर्वदा मेरे विरोधमें ही लगे रहते हैं।

इन मेरे विपक्षी वैरियोंके रहते मेरा काम नहीं बनेगा।
अतएव मुझे इन मार्गके काँटोंको हटाना ही पड़ेगा।

कुछ काँटोंको तो हटा दिया गया है।
जो बचे उनको भी हटाना है।
पर यह मेरे लिये कौन-सा कठिन कार्य है।

हाथमें सत्ता है! ईश्वर क्या होता है।
मैं ही ऐश्वर्यका भोगनेवाला है,
सारी सिद्धि मेरे करतलगत हैं ।

मेरा अतुल बल है।
किसकी शक्ति है जो मेरे सामने आकर टिक सके।

सारे भोग-सुख मैं भोग रहा हूँ।

कितनी सम्पत्तिका स्वामी हूँ।

सभी मेरे ही ईशारोपे नाचते है और नाचेंगे।

मैं बड़े-बड़े काम करूँगा और मेरा नाम अमर रहेगा।


ऐसे स्वभाव और कर्मोंका परिणाम क्या होता है?

इस प्रकार वह लोभी मनुष्य मोह-जालके अंदर
मनोरथोंके चक्रमें भटकता रहता है और
मनोरथ-सिद्धिके लिये
दिन-रात ऐसे अमानवीय कार्य करता रहता है,
जिनके कारण यहाँ दिन-रात जलता है।

महलोंमें रहता, आरामकुर्सियोंपर बैठता,
मखमली गद्दोंपर सोता, वायुयानोंमें उड़ता
तथा हुकूमत करता हुआ भी
रात-दिन महान् मानस संताप से संतप्त रहता है और
अपनी अमानवी करतूतों फलस्वरूप
घोर अपवित्र नरकोंमें गिरनेको बाध्य होता है।

अहंकार, बलाभिमान, घमंड, काम, क्रोध और
सबके अन्तरमें नित्य विराजित श्रीभगवान्से द्वेष,
ये ही उसके जीवनके सहज स्वभाव बन जाते हैं।

अतः भगवान् भी उस नराधमको बार-बार
पशु और आसुरी योनियोंमें और
भीषण नरकोंमें डालते रहते हैं।

उसके अनर्थमय कर्मोंका
यही अनिवार्य फल होता है।


लोभ, क्रोध आदि विकारों से क्या होता है?

काम, क्रोध और लोभ,
ये नरकके तीन प्रधान साधन कहे गए हैं।

ये आत्माका नाश, पतन करनेवाले,
जीवको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं।

ये ही आसुरी सम्पदाके प्रधान योद्धा हैं।

ये योद्धा –
धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, घर-मकान,
अधिकार-पद आदिका स्वांग धरकर
और क्रोध –
अपनी क्रूर आकृति धारण कर
मानव जीवनको जकड़ लेते हैं,
दृढ़ बन्धनमें बाँध लेते हैं और
दिन-रात उसे अधिक-से-अधिक अपनी ओर खींचते रहते हैं।

लोभी और भौतिक चीजों में फंसा मनुष्य
उनकी ओर खिंचे रहने,
उनसे अभिभूत रहनेमें ही वह अपना परम लाभ,
जीवनकी सिद्धि और सफलता समझता है।


विकारों के इन योद्धाओं के चंगुल से मनुष्य कैसे बाहर निकलता है?

भगवानकी कृपा तथा सत्संग के फलस्वरूप
उसे जब कभी अपनी दुर्दशाका अनुभव होता है,
तब वह भगवानकी ओर मुड़ना चाहता है,
तथा भगवान् से प्रार्थना करता है।

उस अवस्थामें भी ये तीनों प्रबल खल दुर्दान्त शत्रु
उसका पीछा छोड़ना नहीं चाहते।

पर यदि वह आर्त होकर
सच्चे हृदयसे प्रार्थना करता है और
इनसे छूटना चाहता है,
तो भगवान् कृपा करके
उसके इस नरक बन्धनको काट देते हैं।

परंतु जबतक वह कामोपभोगको ही परम पुरुषार्थ मानता है,
तबतक उसकी मानवता प्रकट ही नहीं होती,
यही असुर-मानवका स्वरुप है।


मनुष्य क्यों नीचे की ओर गिरता जाता है

प्रकृति स्वाभाविक अधोगामिनी है।

सत्वगुणसम्पन्न पुरुष भी
यदि सावधानीके साथ आगे बढ़नेका,
गुणातीत अवस्थामें पहुँचनेका प्रयत्न नहीं करता है,
तो सहज ही उसका सत्वगुण
क्रमशः रजोमुखी, फिर रजोगुण तमोमुखी होकर
घोर तमसाच्छन्न हो जाता है।

इसलिये सदा सावधानीके साथ
प्रकृतिको ऊँचा उठानेका प्रयत्न करते रहना चाहिये।

जगतमें सभी क्षेत्रोंमें फिसलाहट है,
जरा-सी असावधानीसे मनुष्य फिसलकर नीचे गिर सकता है।

फिर आसुरी शक्ति तो मनुष्यको
सदा विभिन्न प्रकारके प्रलोभन
तथा भय दिखलाकर अपनी ओर खींचती ही रहती है।


मनुष्यके पतन के लक्षण क्या है?

आसुरी शक्तिका सबसे पहला काम होता है,
ईश्वर तथा धर्मसे विश्वास उठाकर
प्रकृतिमें विश्वास करा देना।

यही पतनका प्रथम लक्षण है।

इसके होते ही क्षुद्र “अहं” आ जाता है।

और फिर स्वार्थ, हिंसा, असत्य,
व्यभिचार, संग्रह-प्रवृत्ति, विलासिता,
अहंकार, मद, अधिकारलिप्सा,
विषमता, भोगपरायणता, द्वेष,
युद्ध आदि दुर्गुण, दुर्भाव और
दुराचार जीवनमें व्याप्त हो जाते हैं।

आसुरी भावों वाला व्यक्ति,
बड़ी लुभाई दृष्टिसे इनकी ओर देखता है
और पतित हो जाता है।


मनुष्य जीवन के सही रास्ते पर कैसे आता है?

कहीं सौभाग्यसे सत्पुरुषका शुभ संग मिलता है,
तो उससे उसकी इन दुर्गुण, दुर्भाव और
दुराचारोंके विरोधी सद्गुण, सद्भाव और
सदाचारोंकी ओर प्रवृत्ति होती है।

सत्पुरुष उसे इधरसे हटाकर ईश्वरमें विश्वास,
परार्थभाव, अहिंसा, सत्य,
ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सादगी, सेवा-भाव,
विनय, कर्तव्यशीलता, समता,
त्याग और प्रेमकी ओर प्रवृत्त करना चाहता है,
वह हाथ पकड़कर उसके जीवनको इधर घुमाता है।

तब किसी महान् आदर्शकी ओर आकृष्ट होकर
उसके जीवनकी गति इधर होती है।

उपर्युक्त दुर्गुण, दुर्भाव और दुराचारोंका परिणाम होता है
दु:ख और विनाश, आत्माका घोर पतन एवं

उपर्युक्त सगुण, सद्भाव और सदाचारोंका फल होता है,
शाश्वत शान्ति, आत्यन्तिक आनन्द और
नित्य आत्म सच्चिदानन्दघन जीवनकी प्राप्ति।

इन सद्गुणों की ओर मुड़कर
आध्यात्मिक साधनामें प्रवृत्त होकर
आत्म-जीवन प्राप्त करनेवाला ही “मानव” है।

इस साधनामें प्रवृत्ति ही मानवताका आरम्भ है और
इस जीवनमें स्थिति ही सची मानवता है,
मानवके मानव जीवनकी सफलता है।


सच्ची मानवताको प्राप्त मनुष्य का स्वभाव कैसा होता है?

सच्ची मानवताको प्राप्त मानव
समस्त प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करता है,
जैसे हम अपने शरीरके सब अङ्गोंके साथ करते हैं।

हाथ-पैर, नाक-कान,
मुख-आँख आदिके भेदसे
हमारे शरीरके अङ्गों में बड़ा भेद है,
उनके आकार-प्रकारमें भी
तथा उनके कायोंमें भी।

कोई यदि चाहे कि उनका आकार-प्रकार
एक-सा बना दें
या उनके सबके काम एक-से बना दें
तो यह कभी सम्भव नहीं है।

न उनका आकारप्रकार बदला जा सकता है,
न उनके कार्य एक-से बनाये जा सकते हैं और
न उनके ऊपर-नीचेके स्थानों में ही
परिवर्तन किया जा सकता है।

इतना रूपभेद, क्रियाभेद और
स्थानभेद होनेपर भी
सबमें आत्मभावना एक है, सम है और
वह सहज अखण्ड है।

इसलिये सबके दुःखमें एक-सा दुःख,
सबके सुखमें एक-सा सुख,
सबके दुःखनिवारणकी एक-सी चेष्टा,
सबके सुख-सम्पादनकी एक-सी चेष्टा,
सबके सम्भावित दुःखको न आने देनेका एक-सा प्रयत्न और
सबके सम्भावित सुखके शीघ्र प्राप्त करनेका एक-सा प्रयत्न होता है।

जितनी आवश्यकता और प्रीति मस्तिष्कमें है,
उतनी ही चरणोंमें है।

जितना निजत्व मुखमें है,
उतना ही नीचेके अङ्गोंमें है।

एक अङ्गके विपदप्रस्त होनेपर
सारे अङ्ग खाभाविक ही
उसकी विपत्तिको हटानेमें लग जाते हैं और
एक अङ्गके द्वारा दूसरे अङ्गपर
सहज आघात लग जानेपर भी
आघात करनेवाले अङ्गको दण्ड नहीं दिया जाता।

दाँतसे जीभ कट जानेपर
कोई भी दाँतोंको दण्ड नहीं देता;
क्योंकि दाँत और जीभ दोनों में ही
समान आत्मभाव, समान प्रेमभाव है।

जैसे शरीरके सभी अङ्गोंकी
समान रूपसे पुष्टि-तुष्टि अभीष्ट होती है,
वैसे ही समस्त चराचर प्राणिमात्रकी
पुष्टि-तुष्टि समानरूपसे अभीष्ट होनी चाहिये।

शरीरके किसी एक अङ्गका पोषण किया जाय और
दूसरोंकी अवहेलना की जाय,
तो वह अनर्थका कारण होता है।

ऐसे ही किसी एक व्यक्तिका पोषण किया जाय,
उसीकी उन्नति की जाय, और
शेषकी अवहेलना हो, तो उससे भी बड़ा अनर्थ होता है।

सची मानवताको प्राप्त मानवके द्वारा
ऐसा अनर्थ नहीं हो सकता।

इसलिए, सच्ची मानवताको प्राप्त मनुष्यका
प्रेमभाव किसी एक मनुष्य में नहीं,
बल्कि सम्पूर्ण प्राणिमात्रमें उसका आत्मभाव,
प्रेमभाव नित्य बना रहता है।

ॐ नमः शिवाय – पंचाक्षर मन्त्रका महत्व – शिवपुराण से


शिवपुराण के वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड) के अध्याय 12 और 13 में ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर और षडक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन दिया गया है।

शिवपुराण में कई जगहों पर ॐ नमः शिवाय मन्त्र का महत्व बताया गया है।

लेकिन, वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड) के अध्याय 12 और 13, मुख्यतः इसी पंचाक्षर और षडक्षर मन्त्र के बारे में है।

इसलिए इस पोस्ट में इन्ही दो अध्यायों में जो ॐ नमः शिवाय का माहात्म्य वर्णित है, वह दिया गया है।


पंचाक्षर और षडक्षर अर्थात क्या?

पंचाक्षर अर्थात पांच अक्षर। नमः शिवाय इस मंत्र में पांच अक्षर है –
न, म, शि, वा, य। इसलिए इसे पंचाक्षर मन्त्र कहते है।

षडक्षर अर्थात छह अक्षर। नमः शिवाय के पहले ॐ जोड़ दिया जाए, तो यह षडक्षर मंत्र बन जाता है।


ॐ नमः शिवाय – पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्म्यका वर्णन – शिवपुराण से

श्रीकृष्ण बोले – सर्वज्ञ महर्षिप्रवर! आप सम्पूर्ण ज्ञानके महासागर हैं।

अब मैं आपके मुखसे पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्मका तत्त्वतः वर्णन सुनना चाहता हूँ।

उपमन्युने कहा – देवकीनन्दन! पंचाक्षर-मन्त्रके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन तो
सौ करोड़ वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता; अतः संक्षेपसे इसकी महिमा सुनो –
वेदमें तथा शैवागममें दोनों जगह यह षडक्षर (प्रणवसहित पंचाक्षर)-मन्त्र समस्त शिवभक्तोंके सम्पूर्ण अर्थका साधक कहा गया है।

इस मन्त्रमें अक्षर तो थोड़े ही हैं, परंतु यह महान् अर्थसे सम्पन्न है। यह वेदका सारतत्त्व है।

मोक्ष देनेवाला है, शिवकी आज्ञासे सिद्ध है, संदेहशून्य है तथा शिवस्वरूप वाक्य है।

यह नाना प्रकारकी सिद्धियोंसे युक्त, दिव्य, लोगोंके मनको प्रसन्न एवं निर्मल करनेवाला, सुनिश्चित अर्थवाला (अथवा निश्चय ही मनोरथको पूर्ण करनेवाला) तथा परमेश्वरका गम्भीर वचन है।

इस मन्त्रका मुखसे सुखपूर्वक उच्चारण होता है।

सर्वज्ञ शिवने सम्पूर्ण देहधारियोंके सारे मनोरथोंकी सिद्धिके लिये इस “ॐ नमः शिवाय” मन्त्रका प्रतिपादन किया है।

यह आदि षडक्षर-मन्त्र सम्पूर्ण विद्याओं (मन्त्रों)-का बीज (मूल) है।

जैसे वटके बीजमें महान् वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होनेपर भी इस मन्त्रको महान् अर्थसे परिपूर्ण समझना चाहिये।

“ॐ” इस एकाक्षर-मन्त्रमें तीनों गुणोंसे अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान्, सर्वव्यापी प्रभु शिव प्रतिष्ठित हैं।

ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षररूप ब्रह्म हैं, वे सब “नमः शिवाय” इस मन्त्रमें क्रमशः स्थित हैं।

सूक्ष्म षडक्षर-मन्त्रमें पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात् भगवान् शिव स्वभावतः वाच्यवाचक-भावसे विराजमान हैं।

अप्रमेय होनेके कारण शिव वाच्य हैं और मन्त्र उनका वाचक माना गया है।

वाच्य का अर्थ है बोलने का विषय जिसके द्वारा इस बात का बोध होता है

शिव और मन्त्रका यह वाच्य-वाचकभाव अनादिकालसे चला आ रहा है।

जैसे यह घोर संसारसागर अनादिकालसे प्रवृत्त है, उसी प्रकार संसारसे छुड़ानेवाले भगवान् शिव भी अनादिकालसे ही नित्य विराजमान हैं।

जैसे औषध रोगोंका स्वभावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान् शिव संसार-दोषोंके स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।

यदि ये भगवान् विश्वनाथ न होते तो यह जगत् अन्धकारमय हो जाता; क्योंकि प्रकृति जड है और जीवात्मा अज्ञानी।

अतः इन्हें प्रकाश देनेवाले परमात्मा ही हैं।

प्रकृतिसे लेकर परमाणुपर्यन्त जो कुछ भी जडरूप तत्त्व है, वह किसी बुद्धिमान् (चेतन) कारणके बिना स्वयं “कर्ता” नहीं देखा गया है।

जीवोंके लिये धर्म करने और अधर्मसे बचनेका उपदेश दिया जाता है।

उनके बन्धन और मोक्ष भी देखे जाते हैं।

अतः विचार करनेसे सर्वज्ञ परमात्मा शिवके बिना प्राणियोंके आदिसर्गकी सिद्धि नहीं होती।

जैसे रोगी वैद्यके बिना सुखसे रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिवका आश्रय न लेनेसे संसारी जीव नाना प्रकारके क्लेश भोगते हैं।

अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवोंका संसारसागरसे उद्धार करनेवाले स्वामी अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव विद्यमान हैं।

वे प्रभु आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं।

स्वभावसे ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हैं।

उन्हें शिव नामसे जानना चाहिये।

शिवागममें उनके स्वरूपका विशदरूपसे वर्णन है।

यह पंचाक्षर-मन्त्र उनका अभिधान (वाचक) है और वे शिव अभिधेय (वाच्य) हैं।

अभिधान और अभिधेय (वाचक और वाच्य)-रूप होनेके कारण परमशिवस्वरूप यह मन्त्र “सिद्ध” माना गया है।

“ॐ नमः शिवाय” यह जो षडक्षर शिववाक्य है, इतना ही शिवज्ञान है और इतना ही परमपद है।

यह शिवका विधि-वाक्य है, अर्थवाद नहीं है।

यह उन्हीं शिवका स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल हैं।

जो समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं, वे भगवान् शिव झूठी बात कैसे कह सकते हैं?

जो सर्वज्ञ हैं, वे तो मन्त्रसे जितना फल मिल सकता है, उतना पूरा-का-पूरा बतायेंगे।

परंतु जो राग और अज्ञान आदि दोषोंसे ग्रस्त हैं, वे ही झूठी बात कह सकते हैं।

वे राग और अज्ञान आदि दोष ईश्वरमें नहीं हैं; अतः ईश्वर कैसे झूठ बोल सकते हैं?

जिनका सम्पूर्ण दोषोंसे कभी परिचय ही नहीं हुआ, उन सर्वज्ञ शिवने जिस निर्मल वाक्य – पंचाक्षर-मन्त्रका प्रणयन किया है, वह प्रमाणभूत ही है, इसमें संशय नहीं है।

इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह ईश्वरके वचनोंपर श्रद्धा करे।

यथार्थ पुण्य-पापके विषयमें ईश्वरके वचनोंपर श्रद्धा न करनेवाला पुरुष नरकमें जाता है।

शान्त स्वभाववाले श्रेष्ठ मुनियोंने स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धिके लिये जो सुन्दर बात कही है, उसे सुभाषित समझना चाहिये।

जो वाक्य राग, द्वेष, असत्य, काम, क्रोध और तृष्णाका अनुसरण करनेवाला हो, वह नरकका हेतु होनेके कारण दुर्भाषित कहलाता है।

अविद्या एवं रागसे युक्त वाक्य जन्म-मरणरूप संसार-क्लेशकी प्राप्तिमें कारण होता है।

अतः वह कोमल, ललित अथवा संस्कृत (संस्कारयुक्त) हो तो भी उससे क्या लाभ?

जिसे सुनकर कल्याणकी प्राप्ति हो तथा राग आदि दोषोंका नाश हो जाय, वह वाक्य सुन्दर शब्दावलीसे युक्त न हो तो भी शोभन तथा समझने योग्य है।

मन्त्रोंकी संख्या बहुत होनेपर भी जिस विमल षडक्षर-मन्त्रका निर्माण सर्वज्ञ शिवने किया है, उसके समान कहीं कोई दूसरा मन्त्र नहीं है।

षडक्षर-मन्त्रमें छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं; अतः उसके समान दूसरा कोई मन्त्र कहीं नहीं है।

सात करोड़ महामन्त्रों और अनेकानेक उपमन्त्रोंसे यह षडक्षर-मन्त्र उसी प्रकार भिन्न है, जैसे वृत्तिसे सूत्र।

जितने शिवज्ञान हैं और जो-जो विद्यास्थान हैं, वे सब षडक्षर-मन्त्ररूपी सूत्रके संक्षिप्त भाष्य हैं।

जिसके हृदयमें “ॐ नमः शिवाय” यह षडक्षर-मन्त्र प्रतिष्ठित है, उसे दूसरे बहुसंख्यक मन्त्रों और अनेक विस्तृत शास्त्रोंसे क्या प्रयोजन है?

जिसने “ॐ नमः शिवाय” इस मन्त्रका जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिया और समस्त शुभ कृत्योंका अनुष्ठान पूरा कर लिया।

आदिमें “नमः” पदसे युक्त “शिवाय” – ये तीन अक्षर जिसकी जिह्वाके अग्रभागमें विद्यमान हैं, उसका जीवन सफल हो गया।

पंचाक्षर-मन्त्रके जपमें लगा हुआ पुरुष यदि पण्डित, मूर्ख, अन्त्यज अथवा अधम भी हो तो वह पापपंजरसे मुक्त हो जाता है।


पंचाक्षर-मन्त्रकी महिमा – शिवपुराण से

  • पंचाक्षर-मन्त्रकी महिमा,
  • उसमें समस्त वाङ्‌मयकी स्थिति,
  • उसकी उपदेशपरम्परा,
  • देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान,
  • उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार

देवी बोलीं – महेश्वर!
कलुषित कलिकालमें जब सारा संसार धर्मसे विमुख हो पापमय अन्धकारसे आच्छादित हो जायगा, वर्ण और आश्रम-सम्बन्धी आचार नष्ट हो जायँगे, धर्मसंकट उपस्थित हो जायगा, सबका अधिकार संदिग्ध, अनिश्चित और विपरीत हो जायगा, उस समय उपदेशकी प्रणाली नष्ट हो जायगी और गुरु-शिष्यकी परम्परा भी जाती रहेगी, ऐसी परिस्थितिमें आपके भक्त किस उपायसे मुक्त हो सकते हैं?

महादेवजीने कहा –
देवि! कलिकालके मनुष्य मेरी परम मनोरम पंचाक्षरी विद्याका आश्रय ले भक्तिसे भावितचित्त होकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं।

जो अकथनीय और अचिन्तनीय हैं – उन मानसिक, वाचिक और शारीरिक दोषोंसे जो दूषित, कृतघ्न, निर्दय, छली, लोभी और कुटिलचित्त हैं, वे मनुष्य भी यदि मुझमें मन लगाकर मेरी पंचाक्षरी विद्याका जप करेंगे, उनके लिये वह विद्या ही संसारभयसे तारनेवाली होगी।

देवि! मैंने बारंबार प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही है कि भूतलपर मेरा पतित हुआ भक्त भी इस पंचाक्षरी विद्याके द्वारा बन्धनसे मुक्त हो जाता है।

देवी बोलीं – यदि मनुष्य पतित होकर सर्वथा कर्म करनेके योग्य न रह जाय तो उसके द्वारा किया गया कर्म नरककी ही प्राप्ति करानेवाला होता है।

ऐसी दशामें पतित मानव इस विद्याद्वारा कैसे मुक्त हो सकता है?

महादेवजीने कहा – सुन्दरि! तुमने यह बहुत ठीक बात पूछी है।

अब इसका उत्तर सुनो, पहले मैंने इस विषयको गोपनीय समझकर अबतक प्रकट नहीं किया था।

यदि पतित मनुष्य मोहवश (अन्य) मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक मेरा पूजन करे तो वह निःसंदेह नरकगामी हो सकता है।

किंतु पंचाक्षर-मन्त्रके लिये ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है।

जो केवल जल पीकर और हवा खाकर तप करते हैं तथा दूसरे लोग जो नाना प्रकारके व्रतोंद्वारा अपने शरीरको सुखाते हैं, उन्हें इन व्रतोंद्वारा मेरे लोककी प्राप्ति नहीं होती।

परंतु जो भक्तिपूर्वक पंचाक्षर-मन्त्रसे ही एक बार मेरा पूजन कर लेता है, वह भी इस मन्त्रके ही प्रतापसे मेरे धाममें पहुँच जाता है।

इसलिये तप, यज्ञ, व्रत और नियम पंचाक्षरद्वारा मेरे पूजनकी करोड़वीं कलाके समान भी नहीं है।

कोई बद्ध हो या मुक्त, जो पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा मेरा पूजन करता है, वह अवश्य ही संसारपाशसे छुटकारा पा जाता है।

देवि! ईशान आदि पाँच ब्रह्म जिसके अंग हैं, उस षडक्षर या पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा जो भक्तिभावसे मेरा पूजन करता है, वह मुक्त हो जाता है।

कोई पतित हो या अपतित, वह इस पंचाक्षर-मन्त्रके द्वारा मेरा पूजन करे।

मेरा भक्त पंचाक्षर-मन्त्रका उपदेश गुरुसे ले चुका हो या नहीं, वह क्रोधको जीतकर इस मन्त्रके द्वारा मेरी पूजा किया करे।

जो इस मन्त्रकी दीक्षा लेकर मैत्री, मुदिता (करुणा, उपेक्षा) आदि गुणोंसे युक्त तथा ब्रह्मचर्यपरायण हो भक्तिभावसे मेरा पूजन करता है, वह मेरी समता प्राप्त कर लेता है।

इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ?

मेरे पंचाक्षर-मन्त्रमें सभी भक्तोंका अधिकार है। इसलिये वह श्रेष्ठतर मन्त्र है।

पंचाक्षरके प्रभावसे ही लोक, वेद, महर्षि, सनातनधर्म, देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् टिके हुए हैं।

देवि! प्रलयकाल आनेपर जब चराचर जगत् नष्ट हो जाता है और सारा प्रपंच प्रकृतिमें मिलकर वहीं लीन हो जाता है, तब मैं अकेला ही स्थित रहता हूँ, दूसरा कोई कहीं नहीं रहता।

उस समय समस्त देवता और शास्त्र पंचाक्षर-मन्त्रमें स्थित होते हैं।

अतः मेरी शक्तिसे पालित होनेके कारण वे नष्ट नहीं होते हैं।

तदनन्तर मुझसे प्रकृति और पुरुषके भेदसे युक्त सृष्टि होती है।

तत्पश्चात् त्रिगुणात्मक मूर्तियोंका संहार करनेवाला अवान्तर प्रलय होता है।

उस प्रलयकालमें भगवान् नारायणदेव मायामय शरीरका आश्रय ले जलके भीतर शेष-शय्यापर शयन करते हैं।

उनके नाभि-कमलसे पंचमुख ब्रह्माजीका जन्म होता है।

ब्रह्माजी तीनों लोकोंकी सृष्टि करना चाहते थे; किन्तु कोई सहायक न होनेसे उसे कर नहीं पाते थे।

तब उन्होंने पहले अमिततेजस्वी दस महर्षियोंकी सृष्टि की, जो उनके मानसपुत्र कहे गये हैं।

उन पुत्रोंकी सिद्धि बढ़ानेके लिये पितामह ब्रह्माने मुझसे कहा – महादेव! महेश्वर! मेरे पुत्रोंको शक्ति प्रदान कीजिये।

उनके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर पाँच मुख धारण करनेवाले मैंने ब्रह्माजीके प्रति प्रत्येक मुखसे एक-एक अक्षरके क्रमसे पाँच अक्षरोंका उपदेश किया।

लोकपितामह ब्रह्माजीने भी अपने पाँच मुखोंद्वारा क्रमशः उन पाँचों अक्षरोंको ग्रहण किया और वाच्यवाचक-भावसे मुझ महेश्वरको जाना।

मन्त्रके प्रयोगको जानकर प्रजापतिने विधिवत् उसे सिद्ध किया।

तत्पश्चात् उन्होंने अपने पुत्रोंको यथावत् रूपसे उस मन्त्रका और उसके अर्थका भी उपदेश दिया।

साक्षात् लोकपितामह ब्रह्मासे उस मन्त्ररत्नको पाकर मेरी आराधनाकी इच्छा रखनेवाले उन मुनियोंने उनकी बतायी हुई पद्धतिसे उस मन्त्रका जप करते हुए मेरुके रमणीय शिखरपर मुंजवान् पर्वतके निकट एक सहस्र दिव्य वर्षोंतक तीव्र तपस्या की।

वे लोकसृष्टिके लिये अत्यन्त उत्सुक थे।

इसलिये वायु पीकर कठोर तपस्यामें लग गये।

जहाँ उनकी तपस्या चल रही थी, वह श्रीमान् मुंजवान् पर्वत सदा ही मुझे प्रिय है और
मेरे भक्तोंने निरन्तर उसकी रक्षा की है।

उन ऋषियोंकी भक्ति देखकर मैंने तत्काल उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और उन आर्य ऋषियोंको पंचाक्षर-मन्त्रके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति, कीलक, षडंगन्यास, दिग्बन्ध और विनियोग – इन सब बातोंका पूर्णरूपसे ज्ञान कराया।

संसारकी सृष्टि बढ़े इसके लिये मैंने उन्हें मन्त्रकी सारी विधियाँ बतायीं, तब वे उस मन्त्रके माहात्म्यसे तपस्यामें बहुत बढ़ गये और देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंकी सृष्टिका भलीभाँति विस्तार करने लगे।

अब इस उत्तम विद्या पंचाक्षरीके स्वरूपका वर्णन किया जाता है।

आदिमें “नमः” पदका प्रयोग करना चाहिये।

उसके बाद “शिवाय” पदका।

यही वह पंचाक्षरी विद्या है, जो समस्त श्रुतियोंकी सिरमौर है तथा सम्पूर्ण शब्दसमुदायकी सनातन बीजरूपिणी है।

यह विद्या पहले-पहल मेरे मुखसे निकली; इसलिये मेरे ही स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाली है।

इसका एक देवीके रूपमें ध्यान करना चाहिये।

इस देवीकी अंग-कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान है।

इसके पीन पयोधर ऊपरको उठे हुए हैं।

यह चार भुजाओं और तीन नेत्रोंसे सुशोभित है।

इसके मस्तकपर बालचन्द्रमाका मुकुट है।

दो हाथोंमें पद्म और उत्पल हैं।

अन्य दो हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्रा है।

मुखाकृति सौम्य है।

यह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण आभूषणोंसे विभूषित है।

श्वेत कमलके आसनपर विराजमान है।

इसके काले-काले घुँघराले केश बड़ी शोभा पा रहे हैं।

इसके अंगोंमें पाँच प्रकारके वर्ण हैं, जिनकी रश्मियाँ प्रकाशित हो रही हैं।

वे वर्ण हैं – पीत, कृष्ण, धूम्र, स्वर्णिम तथा रक्त।

इन वर्णोंका यदि पृथक्-पृथक् प्रयोग हो तो इन्हें विन्दु और नादसे विभूषित करना चाहिये।

विन्दुकी आकृति अर्द्धचन्द्रके समान है और नादकी आकृति दीपशिखाके समान।

सुमुखि! यों तो इस मन्त्रके सभी अक्षर बीजरूप हैं, तथापि उनमें दूसरे अक्षरको इस मन्त्रका बीज समझना चाहिये।

दीर्घ-स्वरपूर्वक जो चौथा वर्ण है, उसे कीलक और पाँचवें वर्णको शक्ति समझना चाहिये।

इस मन्त्रके वामदेव ऋषि हैं और पंक्ति छन्द है।

वरानने! मैं शिव ही इस मन्त्रका देवता हूँ।

वरारोहे! गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, अंगिरा और भरद्वाज – ये नकारादि वर्णोंके क्रमशः ऋषि माने गये हैं।

गायत्री, अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, बृहती और विराट् – ये क्रमशः पाँचों अक्षरोंके छन्द हैं।

इन्द्र, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा और स्कन्द – ये क्रमशः उन अक्षरोंके देवता हैं।

वरानने! मेरे पूर्व आदि चारों दिशाओंके तथा ऊपरके – पाँचों मुख इन नकारादि अक्षरोंके क्रमशः स्थान हैं।

पंचाक्षर-मन्त्रका पहला अक्षर उदात्त है।

दूसरा और चौथा भी उदात्त ही है।

पाँचवाँ स्वरित है और तीसरा अक्षर अनुदात्त माना गया है।

इस पंचाक्षर-मन्त्रके – मूल विद्या शिव, शैव, सूत्र तथा पंचाक्षर नाम जाने।

शैव (शिवसम्बन्धी) बीज प्रणव मेरा विशाल हृदय है।

नकार सिर कहा गया है, मकार शिखा है, “शि” कवच है, “वा” नेत्र है और यकार अस्त्र है।

इन वर्णोंके अन्तमें अंगोंके चतुर्थ्यन्तरूपके साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् जोड़नेसे अंगन्यास होता है।

देवि! थोड़ेसे भेदके साथ यह तुम्हारा भी मूलमन्त्र है।

उस पंचाक्षर-मन्त्रमें जो पाँचवाँ वर्ण “य” है, उसे बारहवें स्वरसे विभूषित किया जाता है, अर्थात् “नमः शिवाय” के स्थानमें “नमः शिवायै” कहनेसे यह देवीका मूलमन्त्र हो जाता है।

अतः साधकको चाहिये कि वह इस मन्त्रसे मन, वाणी और शरीरके भेदसे हम दोनोंका पूजन, जप और होम आदि करे।

(मन आदिके भेदसे यह पूजन तीन प्रकारका होता है – मानसिक, वाचिक और शारीरिक।)

देवि! जिसकी जैसी समझ हो, जिसे जितना समय मिल सके, जिसकी जैसी बुद्धि, शक्ति, सम्पत्ति, उत्साह एवं योग्यता और प्रीति हो, उसके अनुसार वह शास्त्रविधिसे जब कभी, जहाँ कहीं अथवा जिस किसी भी साधनद्वारा मेरी पूजा कर सकता है।

उसकी की हुई वह पूजा उसे अवश्य मोक्षकी प्राप्ति करा देगी।

सुन्दरि! मुझमें मन लगाकर जो कुछ क्रम या व्युत्क्रमसे किया गया हो, वह कल्याणकारी तथा मुझे प्रिय होता है।

तथापि जो मेरे भक्त हैं और कर्म करनेमें अत्यन्त विवश (असमर्थ) नहीं हो गये हैं, उनके लिये सब शास्त्रोंमें मैंने ही नियम बनाया है, उस नियमका उन्हें पालन करना चाहिये।


रामभक्त हनुमानजी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी


श्रीहनुमानजी के गुणों का वर्णन

श्रीहनुमानजी भगवान् श्रीरामके सर्वोत्तम दास-भक्त हैं।

कहा जाता है कि
जहाँ श्रीरामकी कथा या कीर्तन होता है,
वहाँ श्रीहनुमानजी किसी-न-किसी वेषमें उपस्थित रहते ही हैं।
श्रद्धा न होनेके कारण लोग उन्हें पहचान नहीं पाते।

भगवान् और उनके भक्तोंके गुणोंका वर्णन
कोई भी मनुष्य कैसे कर सकता है।

इस विषयमें जो कुछ भी लिखा जाय,
वह बहुत ही थोड़ा है।

यहाँ संक्षेपमें श्रीहनुमानजीके चरित्रोंद्वारा
उनके गुणोंका वर्णन दिया गया है।

श्रीहनुमानजी के गुणों के वर्णन का यह लेख,
श्रीजयदयालजी गोयन्दका के प्रवचन से लिया गया है।


श्रीहनुमानजीके कुछ विलक्षण गुण

श्रीहनुमानजीके गुण अपार हैं।

श्रीहनुमानजी
महान् वीर, अतिशय बलवान्,
अत्यन्त बुद्धिमान्, चतुरशिरोमणि,
विद्वान्, सेवाधर्मके आचार्य,
सर्वथा निर्भय, सत्यवादी, स्वामिभक्त,
भगवानके तत्त्व, रहस्य, गुण और प्रभावको भली प्रकार जाननेवाले,
महाविरक्त, सिद्ध, परम प्रेमी भक्त और
सदाचारी महात्मा हैं।

श्रीहनुमानजी युद्ध-विद्यामें बड़े ही निपुण,
इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ तथा
भगवान के नाम, गुण, स्वरूप और लीलाके बड़े ही रसिक हैं।

पहले-पहल जब पम्पा सरोवरपर
श्रीराम और लक्ष्मणसे श्रीहनुमानजी मिले हैं,
उस प्रसङ्गको देखनेसे मालूम होता है कि
इनमें विनय, विद्वत्ता, चतुरता, दीनता,
प्रेम और श्रद्धा आदि सभी विलक्षण गुण विद्यमान हैं।


हनुमानजी का प्रभु राम से पहली बार मिलने का प्रसंग

अपने मन्त्रियोंके साथ ऋष्यमूक-पर्वतपर बैठे हुए
सुग्रीवकी दृष्टि पम्पा-सरोवरकी ओर जाती है, तो वे देखते हैं कि
हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए बड़े सुन्दर, विशालबाहु,
महापराक्रमी दो वीर पुरुष इसी ओर आ रहे हैं।

उन्हें देखते ही सुग्रीव भयभीत होकर
श्रीहनुमानजीसे कहते हैं कि
“हनुमान! तुम जाकर इनकी परीक्षा तो करो।

यदि ये वालीके भेजे हुए हों
तो मुझे संकेतसे समझा देना,
जिससे मैं इस पर्वतको छोड़कर तुरंत ही भाग जाऊँ।”

सुग्रीवकी आज्ञा पाकर
श्रीहनुमानजी ब्रह्मचारीका रूप धारण कर वहाँ जाते हैं और
श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके उनसे प्रश्न करते हैं।

मानस-रामायणमें श्रीतुलसीदासजी
उनके प्रश्नका यों वर्णन करते हैं –

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥

कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥

जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥
(४ । ४-५, १)

अध्यात्मरामायणमें भी लगभग ऐसा ही वर्णन मिलता है।

इसके अतिरिक्त वहाँ श्रीरामचन्द्रजी भाई श्रीलक्ष्मणसे
हनुमानजीकी विद्वत्ताकी सराहना करते हुए कहते हैं –

“लक्ष्मण!
देखो, यह व्यक्ति ब्रह्मचारीके वेषमें
कैसा सुन्दर भाषण करता है।
अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्द-शास्त्र
बहुत प्रकारसे पढ़ा है।

इसने इतनी बातें कहीं,
किंतु इसके बोलनेमें
कहीं कोई भी अशुद्धि नहीं आयी।”

वाल्मीकीय रामायणमें तो
श्रीरामने यहाँतक कहा है कि –

“इसने अवश्य ही सब वेदोंका अभ्यास किया है,
नहीं तो यह इस प्रकारका भाषण कैसे कर सकता है।”

इसके सिवा और भी बहुत प्रकारसे
श्रीहनुमानजीके वचनोंकी सराहना करते हुए
वे अन्तमें कहते हैं कि

“जिस राजाके पास ऐसे बुद्धिमान् दूत हों,
उसके समस्त कार्य दूतकी बातचीतसे ही सिद्ध हो जाया करते हैं।”

रामचरितमानसमें आगेका वर्णन बड़ा ही प्रेमपूर्ण है –

भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपना समस्त परिचय देकर
श्रीहनुमानजीसे पूछते हैं कि –

“ब्राह्मण! बतलाइये, आप कौन हैं?”


हनुमानजी प्रभु राम को पहचान जाते है

यह सुनते ही हनुमानजी
श्रीरामको भलीभाँति पहचानकर
तुरंत ही उनके चरणोंमें गिर पड़ते हैं,
उनका शरीर पुलकित हो जाता है,
मुखसे बोला नहीं जाता,
वे टकटकी लगाकर भगवानकी रूपमाधुरी और
विचित्र वेषको निहारने लगते हैं।

कैसा अलौकिक प्रेम है।

फिर धैर्य धारण करके
वे भगवानसे कहते हैं –

मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

तव माया बस फिरउँ भुलाना।
ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
(४ । २ । ४-५, २; ३ । १)

कितना प्रेम और दैन्यभाव है!

इसके बाद विनयपूर्वक सुग्रीवकी परिस्थिति बतलाकर
दोनों भाइयोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर
वे सुग्रीवके पास ले जाते हैं।

वहाँ दोनों ओरकी सब बातें सुनाकर
अग्निदेवकी साक्षीमें
श्रीराम और सुग्रीवकी मित्रता करा देते हैं।

वालीका वध करके
भगवान् श्रीराम भाई लक्ष्मणके सहित
प्रवर्षण पर्वतपर निवास कर
वर्षा-ऋतुका समय व्यतीत करते हैं।

उधर सुग्रीव राज्य, ऐश्वर्य और
स्त्री आदिके मिल जानेसे
भोगोंमें फँसकर भगवानके कार्यको भूल जाते हैं।

यह देखकर श्रीहनुमानजी राजनीतिके अनुसार
सुग्रीवको भगवानके कार्यकी स्मृति दिलाते हैं और
उनकी आज्ञा लेकर वानरोंको बुलानेके लिये देश-देशान्तरोंमें दूत भेजते हैं।

कैसी बुद्धिमानी है!

इसके बाद जब श्रीसीताजीकी खोजके लिये
सब दिशाओंमें वानरोंको भेजनेकी बातचीत हो रही थी,
उस समयका वर्णन
श्रीवाल्मीकीय रामायणमें देखनेसे मालूम होता है कि
सुग्रीवका श्रीहनुमानजीपर कितना भरोसा और विश्वास था
तथा भगवान् श्रीरामको भी
उनकी कार्यकुशलतापर कितना विश्वास था।


सुग्रीव हनुमानजी की प्रशंसा करते है

वहाँ श्रीरामके सामने ही सुग्रीव हनुमानसे कहते हैं –

न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये।
नाप्सु वा गतिभङ्गं ते पश्यामि हरिपुंगव॥

सासुरा: सहगन्धर्वाः सनागनरदेवता:।
विदिता: सर्वलोकास्ते ससागरधराधरा:॥

गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे।
पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजस:॥

तेजसा वापि ते भूतं न समं भुवि विद्यते।
तद् यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय॥

त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धि: पराक्रम:।
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नयपण्डित॥
(४ । ४४ । ३-७)

“कपिश्रेष्ठ! तुम्हारी गतिका अवरोध
न पृथ्वीमें, न अन्तरिक्षमें,
न आकाशमें और न देवलोकमें
अथवा जलमें ही देखा जाता है।

देवता, असुर, गन्धर्व,
नाग, मनुष्य और इनके सहित
उन-उनके समस्त लोकोंका
समुद्र और पर्वतोंसहित तुम्हें भलीभाँति ज्ञान है।

महाकपे!
तुम्हारी गति, वेग, तेज और
फुर्ती-तुम्हारे महान् बलशाली पिता वायुके समान हैं।

वीर! इस भूमण्डलपर कोई भी प्राणी
तेजमें तुम्हारी समानता करनेवाला
न कभी हुआ और न है।

अत: जिस प्रकार सीता मिल सके,
वह उपाय तुम्हीं सोचकर बताओ।

हनुमान! तुम नीतिशास्त्रके पण्डित हो;
बल, बुद्धि, पराक्रम, देश-कालका अनुसरण और
नीतिपूर्ण बर्ताव-ये सब एक साथ तुममें पाये जाते हैं।”

इस प्रकार सुग्रीवकी बातें सुनकर
भगवान् श्रीराम हनुमानजीकी ओर देखकर
अपना कार्य सिद्ध हुआ ही समझने लगे।


प्रभु राम हनुमानजी को अंगूठी देते है

उन्होंने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर
अपने नामके अक्षरोंसे युक्त एक अँगूठी
हनुमानजीके हाथमें देकर कहा –

अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नानुपश्यति॥

व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रम:।
सुग्रीवस्य च संदेश: सिद्धिं कथयतीव मे॥
(४ । ४४ । १३-१४)

“कपिश्रेष्ठ! इस चिह्नके द्वारा
जनकनन्दिनी सीताको यह विश्वास हो जायगा
कि तुम मेरे पाससे ही गये हो।

तब वह निर्भय होकर
तुम्हारी ओर देख सकेगी।

वीरवर! तुम्हारा उद्योग, धैर्य और पराक्रम तथा
सुग्रीवका संदेश मुझे इस बातकी सूचना दे रहे हैं कि
तुम्हारेद्वारा इस कार्यकी सिद्धि अवश्य होगी।”

अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी प्रकार
श्रीरामने हनुमानजीके गुणोंकी प्रशंसा की है।

वहाँ सहिदानीके रूपमें अपनी मुद्रिका देकर
भगवान् श्रीराम हनुमानजीसे कहते हैं –

अस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेव कपिसत्तम।
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पन्था: शुभस्तव॥
(४ । ६ । २९)

“कपिश्रेष्ठ! इस कार्यमें केवल तुम्हीं समर्थ हो।
मैं तुम्हारा समस्त पराक्रम भलीभाँति जानता हूँ।

अच्छा, जाओ;
तुम्हारा मार्ग कल्याणकारक हो।”


हनुमानजी वानरों के साथ समुद्रतट तक पहुँचते है

इसके बाद जब जाम्बवान् और अङ्गद आदि वानरोंके साथ
हनुमानजी श्रीसीताजीकी खोज करते-करते
समुद्रके किनारे पहुँचते हैं और

श्रीसीताका अनुसंधान न मिलनेके कारण
शोकाकुल होकर सब वहीं अनशन-व्रत लेकर बैठ जाते हैं,

तब गृध्रराज सम्पातिसे बातचीत होनेपर
उन्हें यह पता लगता है कि

सौ योजन समुद्रके पार लंकापुरीमें राक्षसराज रावण रहता है,
वहाँ अपनी अशोक-वाटिकामें उसने सीताको छिपा रखा है।

तब सब वानर एक जगह बैठकर
परस्पर समुद्र लाँघनेका विचार करने लगे।

अङ्गदके पूछनेपर
सभीने अपनी-अपनी सामर्थ्यका परिचय दिया;
परंतु श्रीहनुमानजी चुप साधे बैठे ही रहे।

कैसी निरभिमानता है!

यह प्रसङ्ग श्रीवाल्मीकीय रामायणमें
बड़ा ही रोचक और विस्तृत है।

वहाँ जाम्बवान्ने श्रीहनुमानजीकी बुद्धि,
बल, तेज, पराक्रम, विद्या और
वीरताका बड़ा ही विचित्र चित्रण किया है।

वे कहते हैं –

वीर वानरलोकस्य सर्वशास्त्रविदां वर।
तूष्णीमेकान्तमाश्रित्य हनूमन् किं न जल्पसि॥

रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च॥
गरुत्मानिव विख्यात उत्तम: सर्वपक्षिणाम्॥

पक्षयोर्यद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव।
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते॥

बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव।
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न सज्जसे॥
(४ । ६६ । २-७)

“सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ
तथा वानर-जगतके अद्वितीय वीर हनुमान!

तुम कैसे एकान्तमें आकर चुप साधे बैठे हो?

कुछ बोलते क्यों नहीं?

तुम तो तेज और बलमें
श्रीराम और लक्ष्मणके समान हो।

गमनशक्तिमें सम्पूर्ण पक्षियोंमें श्रेष्ठ
विनतापुत्र महाबली गरुड़के समान विख्यात हो।

उनकी पाँखोंमें जो बल, तेज तथा पराक्रम है,
वही तुम्हारी इन भुजाओंमें भी है।

वानरश्रेष्ठ! तुम्हारे अंदर समस्त प्राणियोंसे बढ़कर बल,
बुद्धि, तेज और धैर्य है;

फिर तुम अपना स्वरूप क्यों नहीं पहचानते?”


जाम्बवान् हनुमानजी को उनकी शक्तियों की याद दिलाते है

इसके बाद जाम्बवान् उनके जन्मकी कथा सुनाते हैं
तथा बाल्यावस्थाके पराक्रम और
वरदानकी बात कहकर
उनके बलकी स्मृति दिलाते हुए अन्तमें कहते हैं –

उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लङ्घयस्व महार्णवम्।
परा हि सर्वभूतानां हनुमन् या गतिस्तव॥

विषण्णा हरय: सर्वे हनुमन् किमुपेक्षसे।
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन् विक्रमानिव॥
(४ । ६६ । ३६-३७)

“वानरश्रेष्ठ हनुमान!
उठो और इस महासागरको लाँघ जाओ।

जो तुम्हारी गति है,
वह सभी प्राणियोंसे बढ़कर है।

सभी वानर चिन्तामें पड़े हैं और
तुम इनकी उपेक्षा करते हो,
यह क्या बात है?

तुम्हारा वेग महान् है।

जैसे भगवान् विष्णुने,
पृथ्वीको नापनेके लिये तीन डगें भरी थीं,
उसी प्रकार तुम छलाँग मारकर
समुद्रके उस पार चले जाओ।”

इतना सुनते ही श्रीहनुमानजी
तुरंत ही समुद्र लाँघनेके लिये
अपना शरीर बढ़ाने लगे।

रामचरितमानसमें भी इसी आशयका वर्णन है।

वहाँ अङ्गदको धैर्य देनेके बाद

जाम्बवान् हनुमानजीसे कहते हैं –

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥

कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
(४ । ३० । २-४)

अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी तरहका वर्णन है।

इसके सिवा पर्वताकार रूप धारण करनेके अनन्तर
वहाँ श्रीहनुमानजी कहते हैं –

लङ्घयित्वा जलनिधिं कृत्वा
लङ्कां च भस्मसात्॥

रावणं सकुलं हत्वाऽऽनेष्ये जनकनन्दिनीम्।
यद्वा बद्ध्वा गले रज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥

लङ्कां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्।
यद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥
(४ । ९ । २२-२४)

“वानरो! मैं समुद्रको लाँघकर लंकाको भस्म कर डालूँगा और
रावणको कुलसहित मारकर
श्रीजनक-नन्दिनीको ले आऊँगा

अथवा कहो तो रावणके गलेमें रस्सी डालकर
तथा लंकाको त्रिकूट-पर्वतसहित बायें हाथपर उठाकर
भगवान् श्रीरामके आगे ला रखूँ?

या शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको देखकर ही,
रामजीके पास चला आऊँ?”

कितना आत्मबल है!

इसपर जाम्बवान्ने कहा –

“वीर! तुम्हारा शुभ हो,
तुम केवल शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको
जीती-जागती देखकर ही चले आओ।”

समुद्रको लाँघनेके लिये तैयार होकर
हनुमानजीने वानरोंसे जो वचन कहे हैं,
उनसे यह पता चलता है कि
उनका श्रीराम-नामपर बड़ा ही दृढ़ विश्वास था ।

हनुमानजी भगवान् श्रीरामके गुण, प्रभाव और
तत्त्वको भलीभाँति जानते थे तथा
श्रीराममें उनका अविचल प्रेम था ।

अध्यात्मरामायणमें यह प्रसङ्ग इस प्रकार है –

पश्यन्तु वानरा: सर्वे गच्छन्तं मां विहायसा॥
अमोघं रामनिर्मुक्तं महाबाणमिवाखिला:।

पश्याम्यद्यैव रामस्य पत्नीं जनकनन्दिनीम्॥
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुन: पश्यामि राघवम्।

प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत् स्मरन्॥
नरस्तीर्त्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम्।

किं पुनस्तस्य दूतोऽहं तदङ्गाङ्गुलिमुद्रिक:॥
तमेव हृदये ध्यात्वा लङ्घयाम्यल्पवारिधिम्।
(५ । १ । २-६)


सुंदरकांड प्रसंग

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सुन्दरकाण्ड हिन्दी में अर्थ सहित

“समस्त वानरो!
तुम सभी लोग
भगवान् श्रीरामद्वारा छोड़े हुए अमोघ बाणकी भाँति
आकाशमार्गसे जाते हुए मुझे देखो।

मैं आज ही श्रीरामप्रिया जनकनन्दिनी
श्रीसीताजीके दर्शन करूँगा।

निश्चय ही मैं कृतकृत्य हो चुका,
कृतकृत्य हो चुका;

अब मैं फिर श्रीरघुनाथजीका दर्शन करूँगा।

प्राण निकलनेके समय
जिनके नामका एक बार स्मरण करनेसे ही
मनुष्य अपार संसार-सागरको पारकर
उनके परमधामको चला जाता है,
उन्हीं भगवान् श्रीरामका दूत,
उनके हाथकी मुद्रिका लिये हुए,
हृदयमें उन्हींका ध्यान करता हुआ
मैं यदि इस छोटे-से समुद्रको लाँघ जाऊँ
तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।”

समुद्र लाँघनेके लिये श्रीहनुमानजीने
जो भयानक रूप धारण किया था,
उसका वर्णन वाल्मीकीय रामायणमें विस्तारपूर्वक है।

यहाँ उसका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।

वहाँ लिखा है –

ववृधे रामवृद्ध्यर्थं समुद्र इव पर्वसु॥
निष्प्रमाणशरीर: सँल्लिलङ्घयिषुरर्णवम्।

बाहुभ्यां पीडियामास चरणाभ्यां च पर्वतम्॥
स चचालाचलश्चाशु मुहुर्त्तं कपिपीडित:।

तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत्॥
तमूरुवेगोन्मथिता: सालाश्चान्ये नगोत्तमा:।

अनुजर्मुहनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम्॥
(५ । १ । १०-१२, ४८)

“जिस प्रकार पूर्णिमाके दिन समुद्र बढ़ता है,
उसी प्रकार भगवान् श्रीरामके कार्यकी सिद्धिके लिये हनुमान बढ़ने लगे।

समुद्र लाँघनेकी इच्छासे
उन्होंने अपने शरीरको बेहद बढ़ा लिया और
अपनी भुजाओं एवं चरणोंसे उस पर्वतको दबाया,
तो वह हनुमानजीके द्वारा ताडित हुआ पर्वत
तुरंत काँप उठा और मुहूर्त्तभर काँपता ही रहा।

उसपर उगे हुए वृक्षोंके समस्त फूल झड़ गये।

जब उन्होंने उछाल मारी,
तब पर्वतपर उगे हुए साल
तथा दूसरे वृक्ष इधर-उधर गिर गये।

उनकी जाँघोंके वेगसे टूटे हुए वृक्ष
इस प्रकार उनके पीछे चले,
जैसे राजाके पीछे सेना चलती है।”

इसके अतिरिक्त वहाँपर
श्रीहनुमानजीके स्वरूपका मनोहर भाषामें
बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है।

वहाँ लिखा है कि
उस समय श्रीहनुमानजीकी दस योजन चौड़ी और
तीस योजन लम्बी परछाईं
वेगके कारण समुद्रमें बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी।

वे परम तेजस्वी, महाकाय कपिवर
आकाशमें आलम्बनहीन पंखवाले पर्वतकी भाँति जान पड़ते थे।

इससे उनकी लम्बाई-चौड़ाईके विस्तारका कुछ पता चलता है।

यह देखकर मैनाक-पर्वत
उनसे विश्राम लेनेके लिये
अनेक प्रकारसे प्रार्थना करता है,
परंतु भगवान् श्रीरामका कार्य पूरा किये बिना
श्रीहनुमानजी विश्राम कहाँ!

हनुमानजी उसे केवल स्पर्श करके ही आगे बढ़ जाते हैं।

रामचरितमानसमें श्रीतुलसीदासजी कहते हैं –

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥
(५ । १ । ४-५, १)

सुरसाको अपने बुद्धि-बलका परिचय देकर
आगे जाते-जाते जब समुद्रपर श्रीहनुमानजीकी दृष्टि पड़ती है,

तब क्या देखते हैं कि
एक विशालकाय प्राणी समुद्रके जलपर पड़ा हुआ है।

उस विकरालवदना राक्षसीको देखकर वे सोचने लगे –

“कपिराज सुग्रीवने
जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीवकी बात कही थी,
वह निःसंदेह यही है।”

ऐसा निश्चय करके
उन्होंने अपने शरीरको बढ़ाया।

हनुमानजीके शरीरको बढ़ता देखकर
सिंहिका भी अपना भयानक मुख फैलाकर
हनुमानजीकी ओर दौड़ी।

तब हनुमानजी छोटा रूप बनाकर
उसके मुखमें घुस गये और
अपने नखोंसे उसके मर्मस्थलको फाड़ डाला।

इस प्रकार कुशलता और धैर्यपूर्वक
उसे मारकर फिर वे पहलेकी भाँति ही आगे बढ़ गये।

कैसा विचित्र बुद्धि-कौशल,
धैर्य और साहस है!

इस प्रकार समुद्रको पार करके
श्रीहनुमानजी त्रिकूट पर्वतपर जा उतरे।

बिना विश्राम सौ योजनके समुद्रको लाँघनेपर भी
हनुमानजीके शरीरमें किसी प्रकारकी थकावट नहीं आयी।

वहाँसे उन्होंने भलीभाँति लंकाका निरीक्षण किया।

फिर लंकाके समीप जाकर
उसके भीतर प्रवेश करनेके
विषयमें भलीभाँति विचार करके
अन्तमें यह निश्चय किया कि
रात्रिके समय छोटा रूप बनाकर
इसमें प्रवेश करना ठीक होगा।

इसके बाद संध्याकालमें
जब हनुमानजी छोटा-सा रूप धारण करके
लंकापुरीमें प्रवेश करने लगे,
तब द्वारपर लंकापुरीकी अधिष्ठात्री
लंकिनी राक्षसीने उनको देख लिया।

उसने श्रीहनुमानजीको डाँट-डपटकर जब उन्हें लात मारी,
तब हनुमानजीने बायें हाथका
एक मुक्का उसके शरीरपर जमा दिया।

उसके लगते ही वह रुधिर वमन करती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी,
फिर उठकर ब्रह्माजीकी बातका स्मरण करके
हनुमानजीकी स्तुति करने लगी और अन्तमें बोली –

धन्याहमप्यद्य चिराय राघव- स्मृतिर्ममासीद् भवपाशमोचिनी।
तद्भक्तसङ्गोऽप्यतिदुर्लभो मम प्रसीदतां दाशरथि: सदा ह्यदि॥
(अध्यात्म० ५ । १ । ५७)

“आज मैं भी धन्य हूँ,
जो चिरकालके बाद मुझे संसार-बन्धनका नाश करनेवाली
श्रीरघुनाथजीकी स्मृति प्राप्त हुई
तथा उनके भक्तका अति दुर्लभ सङ्ग भी मिला।

वे दशरथपुत्र श्रीराम
सदा ही मेरे हृदयमें प्रसन्नतापूर्वक निवास करें।”

रामचरितमानसमें यह प्रसङ्ग इस प्रकार है –

हनुमानजीके प्रहारसे व्याकुल होकर गिर पड़नेके बाद
सावधान होकर लंकिनी कहती है –

तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(५ । ४ । ४,४)

इसके बाद हनुमानजी
छोटा-सा रूप धारण कर
लंकापुरीमें सीताकी खोज करते-करते
बहुत-से राक्षसोंके घरोंमें घूम-फिरकर
रावणके महलमें जाते हैं।

वहाँ रावणके महलकी विचित्र रचना देखते-देखते
पुष्पक-विमानको आश्चर्ययुक्त होकर देखते हैं।

इसके बाद जिस समय उन्होंने सीताको पहचाननेके लिये
रावणके महलमें उसकी स्त्रियोंको देखकर
अपने मनकी स्थितिका वर्णन किया है,
उसे देखनेसे यह पता चलता है कि

हनुमानजीकी ब्रह्मचर्य-निष्ठा कितनी ऊँची थी,
परस्त्री-दर्शनको हनुमानजी कितना बुरा समझते थे और
हनुमानजीका कितना सुन्दर विशुद्ध भाव था।

वाल्मीकीय रामायणकी कथा है कि
जब हनुमानजीने रावणके महलका कोना-कोना छान डाला,
परंतु उन्हें जानकी कहीं दिखायी नहीं पड़ीं
तो उस समय सीताको खोजनेके उद्देश्यसे
स्त्रियोंको देखते-देखते उनके मनमें धर्म-भयसे शङ्का उत्पन्न हुई।

वे सोचने लगे,

“इस प्रकार अन्तःपुरमें सोयी हुई
परायी स्त्रियोंको देखना
तो मेरे धर्मको एकदम नष्ट कर देगा;

परंतु इन परस्त्रियोंको मैंने
कामबुद्धिसे नहीं देखा है।

इस दृश्यसे मेरे मनमें
तनिक भी विकार नहीं हुआ।

समस्त इन्द्रियोंकी
अच्छी-बुरी प्रवृत्तियोंका कारण मन ही है और
मेरा मन सर्वथा शुद्ध एवं निर्विकार है।

इसके अतिरिक्त सीताजीको
दूसरे ढंगसे मैं खोज भी नहीं सकता।

स्त्रियोंको ढूँढ़ते समय
उन्हें स्त्रियोंके ही बीचमें ढूँढ़ना पड़ता है”- इत्यादि।

ऐसे सुन्दर विचार और
ऐसा विशुद्ध भाव हनुमानजीके ही उपयुक्त है।

साधकोंको इससे विशेष शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और
विकट परिस्थितियोंमें भी
अपने मनमें किसी प्रकारका भी विकार नहीं आने देना चाहिये।

वाल्मीकीय रामायणमें सीताजीकी खोजका
बड़ा ही विचित्र और विस्तृत वर्णन है।

यहाँ उसमेंसे बहुत ही थोड़े-से प्रसङ्गका
दिग्दर्शनमात्र कराया गया है।

रामचरितमानसमें लिखा है कि
सीताको खोजनेके लिये
लंकामें घूमते-घूमते हनुमानजीकी दृष्टि
एक सुन्दर भवनपर पड़ती है,
जिसपर भगवान् श्रीरामके आयुध अङ्किति किये हुए हैं।

तुलसीके पौधे उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं।

यह देखकर हनुमानजी सोचने लगते हैं कि
यहाँ तो राक्षसोंका ही निवास है,
यहाँ सज्जन पुरुष क्यों निवास करने लगे।

उसी समय विभीषण जाग उठते हैं और
बार-बार श्रीराम-नामका उच्चारण करते हैं।

यह देखकर हनुमानजीने सोचा कि
निःसंदेह यह कोई भगवान्का भक्त है,

इससे अवश्य पहचान करनी चाहिये;
क्योंकि साधुसे कभी कार्यकी हानि नहीं हो सकती।

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥
(५ । ६ । ३-४, ६)

भगवानके भक्तोंमें परस्पर स्वाभाविक प्रेम कैसा होना चाहिये,
इसका यहाँ बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है।

विभीषण कहते हैं –

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥

तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
(५ । ७ । १-२)

तब हनुमानजी कहते हैं –

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
(५ । ७ । ३-४, ७; ८ । १)

कितना सुन्दर दैन्यभाव,
अतुलित विश्वास और
अनन्य भगवत्प्रेम है!

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श्रीहनुमानजी के गुणों का वर्णन – भाग 2

महर्षि भृगु और पिता वरुण की कथा – 5 ध्यान


महर्षि भृगु और ब्रह्मविद्या

यह कथा तैत्तिरीय उपनिषद के
भृगुवल्ली अध्याय में दी गयी है।

भृगु ऋषि को किस प्रकार अपने पिता वरूण से
ब्रह्मका रहस्य बतानेवाली विद्या,
यानि ब्रह्मविद्या प्राप्त हुई थी,
उसका इस अध्याय में वर्णन है,
इसलिए इस अध्याय का नाम भृगुवल्ली है।


ऋषि भृगु के मन में प्रश्न – ब्रह्म, परमात्मा क्या है?

भृगु नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि थे,
जो वरुणके पुत्र थे।

उनके मनमें परमात्माको जानने और
प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा हुई,
तब वे अपने पिता वरुणके पास गये।


ऋषि भृगु, पिता वरुण के पास जाते है

उनके पिता वरुण
वेदको जाननेवाले, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे;
अतः भृगुको किसी दूसरे आचार्यके पास जानेकी आवश्यकता नहीं हुई।

अपने पिताके पास जाकर भूगुने इस प्रकार प्रार्थना की –
भगवन्‌! मैं ब्रह्मको जानना चाहता हूँ,
अतः आप कृपा करके मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।


वरुण भृगु को ब्रह्मका तत्व बताते है

तब वरुणने भृगुसे कहा –
“अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी –
ये सभी ब्रह्मकी उपलब्धिके द्वार हैं।
इन सबमें ब्रह्मकी सत्ता स्फुरित हो रही है।”

साथ ही यह भी कहा –
ये प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले सब प्राणी जिनसे उत्पन्न होते हैं,
उत्पन्न होकर जिनके सहयोगसे,
जिनका बल पाकर ये सब जीते हैं –
जीवनोपयोगी क्रिया करनेमें समर्थ होते हैं और
महाप्रलयके समय जिनमें विलीन हो जाते हैं,
उनको वास्तवमें जाननेकी (पानेकी) इच्छा कर।
वे ही ब्रह्म हैं।


ऋषि भृगु का पहला तप

इस प्रकार पिताका उपदेश पाकर
भृगु ऋषिने ब्रह्मचर्य और
शम-दम आदि नियमोंका पालन करते हुए
तथा समस्त भोगोंके त्यागपूर्वक संयमसे रहते हुए
पिताके उपदेशपर विचार किया।

यही उनका तप था।

अन्न ही ब्रह्म है


अन्न ही ब्रह्म है

भृगुने पिताके उपदेशानुसार यह निश्चय किया कि
अन्न ही ब्रह्म है;
क्योंकि पिताजीने ब्रह्मके जो लक्षण बताये थे,
वे सब आन्नमें पाये जाते हैं।

समस्त प्राणी अन्नसे-अन्नके परिणामभूत वीर्यसे उत्पन्न होते हैं,
अन्नसे ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और
मरनेके बाद अन्नस्वरूप इस पृथ्वीमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

इस प्रकार निश्चय करके
वे पुनः अपने पिता वरुणके पास आये।

आकर अपने निश्चयके अनुसार
उन्होंने सब बातें कहीं।

पिताने कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म अन्न नहीं, उससे सूक्ष्म है

उन्होंने सोचा –
“इसने अभी ब्रह्मके स्थूल रूपको ही समझा है,
वास्तविक रूप तक इसकी बुद्धि नहीं गयी;
अतः इसे तपस्या करके
अभी और विचार करनेकी आवश्यकता है।

पर जो कुछ इसने समझा है,
उसमें इसकी तुच्छ बुद्धि कराकर
अश्रद्धा उत्पन्न कर देनेमें भी इसका हित नहीं है,
अतः इसकी बातका उत्तर न देना ही ठीक है।”

पितासे अपनी बातका समर्थन न पाकर
भृगुने फिर प्रार्थना की –

“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक नहीं समझा हो
तो आप मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”

तब वरुणने कहा –
“तू तपके द्वारा ब्रह्मके तत्वको समझनेकी
कोशिश कर।

यह तप ब्रह्मका ही स्वरूप है,
अतः यह उनका बोध करानेमें सर्वथा समर्थ है।”


भृगु ऋषि का दुसरा तप

इस प्रकार पिताकी आज्ञा पाकर
भृगु ऋषि पुनः पहलेकी भाँति
तपोमय जीवन बिताते हुए
पितासे पहले सुने हुए उपदेशके अनुसार
ब्रह्मका स्वरूप निश्चय करनेके लिये विचार करते रहे।

भृगुने पिताके उपदेशानुसार
तपके द्वारा यह निश्चय किया कि
प्राण ही ब्रह्म है;

प्राण ही ब्रह्म है


प्राण ही ब्रह्म है

उन्होंने सोचा,
पिताजीद्वारा बताये हुए ब्रह्मके लक्षण
प्राणमें पूर्णतया पाये जाते हैं।

समस्त प्राणी प्राणसे उत्पन्न होते हैं,
अर्थात्‌ एक जीवित प्राणीसे
उसीके सदृश दूसरा प्राणी उत्पन्न होता हुआ
प्रत्यक्ष देखा जाता है;
तथा सभी प्राणसे ही जीते हैं।

यदि श्वासका आना-जाना बन्द हो जाय,
यदि प्राणद्वारा अन्न ग्रहण न किया जाय
तथा अन्नका रस समस्त शरीरमें न पहुँचाया जाय
तो कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता और
मरनेके बाद सब प्राणमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि
मृत शरीरमें प्राण नहीं रहते;
अतः निःसन्देह प्राण ही ब्रह्म है,
यह निश्चय करके वे पुनः अपने पिता वरुणके पास गये।

पहलेकी भाँति अपने निश्चयके अनुसार
उन्होंने पुनः पितासे अपना अनुभव निवेदन किया।

पिताने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म प्राण नहीं, उससे सूक्ष्म है

उन्होंने सोचा कि
यह पहलेकी अपेक्षा तो कुछ सूक्ष्मतामें पहुँचा है;
परंतु अभी बहुत कुछ समझना शेष है;

अतः उत्तर न देनेसे
अपने-आप इसकी जिज्ञासामें बल आयेगा;

अतः उत्तर न देना ही ठीक है।

पिताजीसे अपनी बातका समर्थन न पाकर
भृगुने फिर उनसे प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि अब भी मैंने ठीक न समझा हो
तो आप ही कृपा करके मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”


महर्षि भृगु का तीसरा तप

तब वरुणने पुनः वही बात कही –
“तू तपके द्वारा ब्रह्मको जाननेको चेष्टा कर;
यह तप ही ब्रह्म है,
अर्थात्‌ ब्रह्मके तत्त्वको जाननेका प्रधान साधन है।”

इस प्रकार पिताजीकी आज्ञा पाकर
भृगु ऋषि फिर उसी प्रकार तपस्या करते हुए
पिताके उपदेशपर विचार करते रहे।

मन ही ब्रह्म है


मन ही ब्रह्म है

इस बार भूगुने पिताके उपदेशानुसार
यह निश्चय किया कि
मन ही ब्रह्म है;

उन्होंने सोचा,
पिताजीके बताये हुए ब्रह्मके सारे लक्षण
मनमें पाये जाते हैं।

मनसे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं –
स्त्री और पुरुषके मानसिक प्रेमपूर्ण सम्बन्धसे ही प्राणी
बीजरूपसे माताके गर्भमें आकर उत्पन्न होते हैं,
उत्पन्न होकर मनसे ही इन्द्रियोंद्वारा
समस्त जीवनोपयोगी वस्तुओंका उपभोग करके जीवित रहते हैं और
मरनेके बाद मनमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं –
मरनेके बाद इस शरीरमें
प्राण और इन्द्रियाँ नहीं रहतीं,
इसलिये मन ही ब्रह्म है।

इस प्रकार निश्चय करके
वे पुनः पहलेकी भाँति
अपने पिता वरुणके पास गये और
उन्होंने अपने अनुभवकी बात
पिताजीको सुनायी।

इस बार भी पितासे
कोई उत्तर नहीं मिला।


ब्रह्म मन नहीं, उससे सूक्ष्म है

पिताने सोचा कि
यह पहलेकी अपेक्षा तो गहराईमें उतरा है,
परंतु अभी इसे और भी तपस्या करनी चाहिये;
अतः उत्तर न देना ही ठीक है।

पितासे अपनी बातका उत्तर न पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक न समझा हो
तो कृपया आप ही मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”


भृगु ऋषि का चौथा तप

तब वरुणने पुनः वही उत्तर दिया –
“तू तपके द्वारा
ब्रह्मके तत्त्वको जाननेको इच्छा कर।

अर्थात्‌ तपस्या करते हुए
मेरे उपदेशपर पुनः विचार कर।

यह तपरूप साधन ही ब्रह्म है।

ब्रह्मको जाननेका इससे बढ़कर
दूसरा कोई उपाय नहीं है।”

इस प्रकार पिताकी आज्ञा पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति संयमपूर्वक रहकर
पिताके उपदेशपर विचार किया।

विज्ञानस्वरूप चेतना ही ब्रह्म है


विज्ञानस्वरूप चेतना ही ब्रह्म है

इस बार भृगुने पिताके उपदेशानुसार
यह निश्चय किया कि
यह विज्ञानस्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है;

उन्होंने सोचा –
पिताजीने जो ब्रह्मके लक्षण बताये थे,
वे सब-के-सब पूर्णतया इसमें पाये जाते हैं।

ये समस्त प्राणी जीवात्मासे ही उत्पन्न होते हैं,
सजीव चेतन प्राणियोंसे ही
प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है।

उत्पन्न होकर
इस विज्ञानस्वरूप जीवात्मासे ही जीते हैं;

यदि जीवात्मा न रहे
तो ये मन, इन्द्रियाँ, प्राण आदि कोई भी नहीं रह सकते और
कोई भी अपना काम नहीं कर सकते
तथा मरनेके बाद
ये मन आदि सब जीवात्मामें ही प्रविष्ट हो जाते हैं –

जीवके निकल जानेपर
मृत शरीरमें ये सब देखनेमें नहीं आते।

अतः विज्ञानस्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है।

यह निश्चय करके
वे पहलेकी भाँति अपने पिता वरुणके पास आये।

आकर उन्होंने अपने निश्चित अनुभवकी बात
पिताजीको सुनायी।

इस बार भी पिताजीने कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म विज्ञानस्वरूप चेतना नहीं, उससे सूक्ष्म है

पिताने सोचा –
“इस बार यह बहुत कुछ ब्रह्मके निकट आ गया है,
इसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके जडतत्त्वोंसे ऊपर उठकर
चेतन जीवात्मातक तो पहुँच गया है।

परंतु ब्रह्मका स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है,
वे तो नित्य आनन्दस्वरूप एक अद्वितीय परमात्मा हैं;

इसे अभी और तपस्या करनेकी आवश्यकता है,
अतः उत्तर न देना ही ठीक है।”


भृगु ऋषि का पांचवा तप

इस प्रकार बार- बार पिताजीसे कोई उत्तर न मिलनेपर भी
भृगु हतोत्साह या निराश नहीं हुए।

उन्होंने पहलेकी भाँति
पुनः पिताजीसे वही प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक न समझा हो
तो आप मुझे ब्रह्मका रहस्य बतलाइये।”

तब वरुणने पुनः वही
उत्तर दिया –
“तू तपके द्वारा ही
ब्रह्मके तत्त्वको जाननेको इच्छा कर।

अर्थात्‌ तपस्यापूर्वक
उसका पूर्वकथनानुसार विचार कर।
तप ही ब्रह्म है।”

इस प्रकार पिताजीकी आज्ञा पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति संयमपूर्वक रहते हुए
पिताके उपदेशपर विचार किया।

आनन्द ही ब्रह्म है – ब्रह्मविद्या


आनन्द ही ब्रह्म है – आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा

इस बार भृगुने पिताके उपदेशपर
गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि
आनन्द ही ब्रह्म है।

ये आनन्दमय परमात्मा ही
अन्नमय आदि सबके अन्तरात्मा हैं।

वे सब भी इन्हींके स्थूलरूप हैं।

इसी कारण उनमें ब्रह्मबुद्धि होती है और
ब्रह्मके आंशिक लक्षण पाये जाते हैं।

परंतु सर्वांशसे ब्रह्मके लक्षण आनन्दमें ही घटते हैं;
क्योंकि ये समस्त प्राणी
उन आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मासे ही
सृष्टिके आदिमें उत्पन्न होते हैं –
इन सबके आदि कारण तो वे ही हैं
तथा इन आनन्दमयके आनन्दका लेश पाकर ही
ये सब प्राणी जी रहे हैं –
कोई भी दुःखके साथ जीवित रहना नहीं चाहता।

इतना ही नहीं,
उन आनन्दमय सर्वान्तर्यामी परमात्माको
अचिन्त्यशक्तिको प्रेरणासे ही
इस जगत्‌के समस्त प्राणियोंकी सारी चेष्टाएँ हो रही हैं।

उनके शासनमें रहनेवाले सूर्य आदि
यदि अपना-अपना काम न करें
तो एक क्षण भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता।

सबके जीवनाधार
सचमुच वे आनन्दस्वरूप परमात्मा ही हैं
तथा प्रलयकालमें
समस्त प्राणियोंसे भरा हुआ यह ब्रह्माण्ड
उन्हींमें प्रविष्ट होता है –
उन्हींमें विलीन होता है,
वे ही सब प्रकारसे सदा-सर्वदा सबके आधार हैं।


ऋषि भृगु को परब्रह्मका यथार्थ ज्ञान

इस प्रकार अनुभव होते ही
भृगुको परब्रह्मका यथार्थ ज्ञान हो गया।

फिर उन्हें किसी प्रकारकी जिज्ञासा नहीं रही।

श्रुति स्वयं उस विद्याकी महिमा बतलानेके लिये कहती है –
वही यह वरुणद्वारा बतायी हुई और
भृगुको प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्मका रहस्य बतानेवाली विद्या) है।

यह विद्या
विशुद्ध आकाशस्वरूप
परब्रह्म परमात्मामें स्थित है।

वे ही इस विद्याके भी आधार हैं।

जो कोई मनुष्य भृगुकी भाँति
तपस्यापूर्वक इसपर विचार करके
परमानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्माको जान लेता है,
वह भी उन विशुद्ध परमानन्दस्वरूप
परमात्मामें स्थित हो जाता है।

इस प्रकार इस विद्याका वास्तविक फल बताकर
मनुष्योंको उस साधनकी ओर लगानेके लिये उपर्युक्त प्रकारसे
अन्न, प्राण आदि समस्त तत्त्वोंके रहस्य
विज्ञानपूर्वक ब्रह्मको जाननेवाले ज्ञानीके शरीर और
अन्तःकरणमें जो स्वाभाविक विलक्षण शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं,
उनको भी श्रुति बतलाती है।

वह अन्नवान्‌ अर्थात्‌ नाना प्रकारके जीवन-यात्रोपयोगी भोगोंसे सम्पन्न हो जाता है और
उन सबको सेवन करनेकी सामर्थ्य भी उसमें आ जाती है।

अर्थात्‌ उसके मन, इन्द्रियाँ और शरीर सर्वथा निर्विकार और नीरोग हो जाते हैं।

इतना ही नहीं, वह संतानसे, पशुओंसे,
ब्रह्मतेजसे और बड़ी भारी कीर्तिसे समृद्ध होकर
जगतमें सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है।

मन को नियंत्रण में करने के 15 उपाय


इस लेख में मन को नियंत्रण में करने के लिए 15 उपाय दिए गए हैं।

इस पोस्ट में जितने उपाय बताए गए हैं,
वे सभी संत, महात्मा पुरुष
या ऊँचे साधक द्वारा बताई गई बातों से लिए गए हैं।

आध्यात्मिक जीवन हो या सांसारिक जीवन,
दोनों ही स्थितियों में सफलता के लिए मन पर कंट्रोल सबसे महत्वपूर्ण है।

यदि आपको लगता है कि, मन पर नियंत्रण करना जरूरी है,
तो अपनी अवस्था के अनुकुल नीचे दिए गए उपाय में से
किसी एक उपाय से शुरू कर सकते हैं।

इस आर्टिकल में मन को शांत करने के लिए
जो आनापान ध्यान साधना है,
उसके बारे में नहीं दिया गया है।

आनापान ध्यान और विपश्यना के बारे में विस्तार से,
दूसरे आर्टिकल में दिया गया है।


मन को वश में क्यों करें?

भगवान् ने मन के बारे में गीता में क्या कहा है?

श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है –
जिसका मन वशमें नहीं है
उसके लिये योगका प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है,
परन्तु जिसका मन वशमें है ऐसा प्रयत्नशील व्यक्ति,
साधन द्वारा, योग प्राप्त कर सकता है।

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥
(गीता ६ ॥३६)

भगवान् श्रीकृष्णके इन वचनोंके अनुसार यह सिद्ध होता है कि,
मनको वश में किये बिना
परमात्माकी प्राप्ति के लिए योग, भक्ति
या साधना अत्यन्त कठिन है।


दुःखोंसे मुक्ति के लिए, मन को काबू में करने के अलावा, दुसरा उपाय नही

यदि कोई ऐसा चाहे कि,
मन तो अपनी इच्छानुसार, निरंकुश होकर,
विषय वाटिकामे स्वच्छन्द विचरण किया करे और
परमात्माके दर्शन अपनेआप ही हो जायें,
तो यह उसकी भूल है।

आनन्दमय परमात्माकी प्राप्ति और
दुःखोंसे मुक्ति चाहनेवाले को
मन को वशमें करना ही पड़ेगा।

इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।


आदि शंकराचार्य ने मन के बारे में कहा है –

भगवान् शङ्कराचार्यने कहा है –

जित जगत् केन, मनो हि येन।

अर्थात, जगत को किसने जीता?
जिसने मनको जीत लिया।

यानी की,
मन पर विजय मिलते ही
मानो विश्वपर विजय मिल जाती है।


किन्तु, मन बड़ा चंचल और बलवान है

परन्तु मन स्वभावसे ही बड़ा चञ्चल और बलवान् है और
इसे वशमें करना साधारण बात नहीं है।

सारे साधन इसीको कंट्रोल में करने के लिये किये जाते है।

अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से कहा था, मन बड़ा चंचल है

अर्जुनने भी मनको वशमें करना कठिन समझकर,
भगवान् से यही कहा था –

चञ्चलं हि मनः कृष्ण
प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये
वायोरिव सुदुष्करम्॥ (गीता ६।३४)

हे भगवन्।
यह मन बड़ा ही चंचल, हठीला,
दृढ़ और बलवान है।
इसे रोकना मैं तो वायुके रोकनेके समान,
अत्यन्त दुष्कर समझता हूँ।


लेकिन, भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को, मन वश में करने का रास्ता बताया

भगवान् ने भी इस बातको स्वीकार किया,
पर साथ ही उपाय भी बतला दिया —

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(गीता ६ । ३५)

भगवान् ने कहा – अर्जुन!
इसमे कोई सन्देह नहीं
कि इस चञ्चल मनका निग्रह करना बड़ा ही कठिन है,
परन्तु अभ्यास और वैराग्यसे, यह वशमें हो सकता है।

इससे यह सिद्ध हो गया कि,
मनका वशमें करना कठिन भले ही हो, पर असम्भव नहीं और
इसके वश किये बिना, दुःखोंकी निवृत्ति नहीं।

इसलिए मन को वश में करने का
निरंतर प्रयास करना ही चाहिये।

इसके लिये, सबसे पहले इसका साधारण स्वरुप और
स्वभाव जानने की आवश्यकता है।


मनका स्वरूप

मन क्या है?

यह आत्म और अनात्म पदार्थके
बीचमे रहनेवाली एक विलक्षण वस्तु है।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।

मन इतना बलवान है की
यह व्यक्ति को, बंधन या मोक्ष दोनों में से
किसी एक रास्ते पर ले जा सकता है।

बस, मन ही जगत् है,
मन नहीं तो जगत् नहीं।


मन क्या करता है?

मन का कार्य है संकल्प-विकल्प करना,
जिसकी वजह से विकार उत्पन्न होते है।

यह जिस पदार्थको भलीभाँति ग्रहण करता है,
स्वयं भी तदाकार बन जाता है।

साधारणतया, यही मनका स्वरूप और स्वभाव है।

मन रागके अर्थात आसक्ति के साथ ही चलता है।

सारे अनर्थों और दुःखो की उत्पत्ति, रागसे ही होती है।

राग (इच्छा, आसक्ति) न हो तो, मन प्रपञ्चोंकी ओर न जाय।


तो मन को कण्ट्रोल कैसे करें?

अब, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की, यह वशमे कैसे हो।

इसके लिये उपाय भी, भगवान् ने बतला ही दिया है –
अभ्यास और वैराग्य।

यही उपाय योगदर्शनमे, महर्षि पतञ्जलिने बतलाया है –
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध।
(समाधिपाद १२)

अर्थात, अभ्यास और वैराग्यसे ही चित्तका निरोध होता है।

इसलिए, इसी अभ्यास और वैराग्य पर विचार करना चाहिये।


वैराग्य और अभ्यास से मन का नियंत्रण

निचे मन को वश में करने के कुछ उपाय दिए गए है।

जिसमे पहला उपाय, वैराग्य से संबंधित है और
बाद के उपाय, अभ्यास से सम्बंधित है।


1. वैराग्य से संबंधित तरीका – भोगों में वैराग्य

सांसारिक पदार्थों और भोगों की सच्चाई क्या है?

जबतक संसारकी वस्तुएँ सुन्दर और सुखप्रद मालूम होती है,
तभीतक मन उनमें जाता है।

लेकिन जब इन भौतिक पदार्थों और
भोगों की असली सच्चाई समझ में आ जाये
की ये सब पदार्थ, दोषयुक्त और दुःखप्रद है,
तो मन कदापि इनमें नहीं लगेगा।

क्योंकि, इन भोगों के अंत में दुःख ही है,
भले ही कुछ समय के लिए इनमे ख़ुशी मिलती हो,
किन्तु अंत में दोष ही है।

सांसारिक वस्तुओं में थोड़े समय के लिए ख़ुशी

जब मन को यह सच्चाई समझ में आ जायेगी,
तब मन, कभी इन वस्तुओं के पीछे नहीं दौड़ेगा और
यदि कभी इनकी ओर गया भी,
तो उसी समय वापस लौट आएगा।

इसलिये, संसारके सारे पदार्थोंमे,
चाहे वे इहलौकिक हो या पारलौकिक,
दुःख और दोषकी प्रत्यक्ष भावना करनी चाहिये।

इस सच्चाई को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए
की इन पदार्थोंमें, केवल दोष और दुःख ही भरे हुए है।


अध्यात्म के रास्ते की सच्चाई क्या है?

रमणीय और सुखरूप दीखनेवाली चीजों में ही मन लगता है।

यदि यह रमणीयता और सुखरूपता
विषयोंसे हटकर परमात्मा में दिखायी देने लगे,
जैसा कि वास्तवमे है,
तो यही मन तुरन्त विषयोंसे हटकर
परमात्मामे लग जाय।

यही वैराग्यका साधन है और
वैराग्य ही मन जीतनेका एक उत्तम उपाय है।

सच्चा वैराग्य तो संसारके इस दीखनेवाले स्वरूपका सर्वथा अभाव और
उसकी जगह परमात्माका नित्यभाव प्रतीत होनेमे है।

परन्तु आरम्भमे नये साधकको मन वश करनेके लिये
इस लोक और परलोकके समस्त पदार्थोंमे
दोष और दुःख देखना चाहिये,
जिससे मनका अनुराग उनसे हटे।


भगवान् कृष्ण ने, इस वैराग्य के तरीके के बारे में क्या कहा?

श्रीभगवान् ने कहा है –

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्यु जराव्याधि दुःखदोषानुदर्शनम्॥
(गीता १३ । ८)

इस लोक और परलोकके समस्त भोगोंमें
वैराग्य, अहंकारका त्याग,
इस शरीरमे, जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और
रोग आदि दुःख और दोष देखने चाहिये।

इस प्रकार वैराग्यकी भावनासे
मन वशमे हो सकता है ।

यह तो वैराग्यका संक्षिप्त साधन हुआ,
अब कुछ अभ्यासोंपर विचार करें।


2. नियमसे रहना

सांसारिक हो या आध्यात्मिक जीवन, सफलता के लिए नियम का बड़ा महत्व है

मनको वश करनेमें नियमानुवर्तितासे,
अर्थात नियमसे रहने से बड़ी सहायता मिलती है।

सारे काम ठीक समयपर नियमानुसार होने चाहिये।

प्रातःकाल बिस्तरसे उठकर रातको सोने तक,
दिनभरके कार्योंकी एक ऐसी नियमित दिनचर्या बना लेनी चाहिये,
जिससे जिस समय जो कार्य करना हो,
मन अपने-आप स्वभावसे ही उस समय उसी कार्य में लग जाय।

संसार-साधनमे तो नियमानुवर्तितासे लाभ होता ही है,
परमार्थमे भी इससे बड़ा लाभ होता है।


ध्यान के समय का नियम

अपने जिस इष्ट स्वरूपके ध्यानके लिये
प्रतिदिन जिस स्थानपर, जिस आसनपर,
जिस आसनसे, जिस समय और जितने समय बैठा जाय,
उसमे किसी दिन भी आलस या व्यतिक्रम नहीं होना चाहिये।

पाँच मिनटका भी नियमित ध्यान,
अनियमित अधिक समयके ध्यानसे उत्तम है।

आज दस मिनट बैठे, कल आध घण्टे, परसो बिल्कुल नहीं किया,
इस प्रकारके साधनसे मनको शांत और
नियंत्रण करना अत्यंत कठिन होता है और
सिद्धि भी कठिनतासे मिलती है।

जब पाँच मिनटका ध्यान नियमसे होने लगे,
तब दस मिनटका करे,
परन्तु दस मिनटका करनेके बाद,
किसी भी दिन नौ मिनट न होना चाहिये।

इसी प्रकार स्थान, आसन, समय,
इष्ट और मन्त्रका, बारबार परिवर्तन नहीं करना चाहिये।

इस तरह नियम से रहने से भी मन स्थिर होता है।


सभी बातों में नियम

नियमोंका पालन, खाने, पीने, पहनने, सोने और
व्यवहार करने सम्बन्धी सभी चीजों में होना चाहिये।

नियम अपनी अवस्था के अनुकुल शास्त्रसम्मत बना लेने चाहिये।


3. मनकी क्रियाओंपर विचार

मन के अच्छे और बुरे विचार

मनके प्रत्येक कार्यपर विचार करना चाहिये।

प्रतिदिन रातको सोनेसे पूर्व
दिनभरके मनके कार्योंपर विचार करना उचित है।

यद्यपि मनकी सारी उधेड़-बुनका स्मरण होना बड़ा कठिन है,
परन्तु, जितनी याद रहे, उतनी ही बातों पर विचार कर,
जो-जो संकल्प अर्थात विचार सात्त्विक मालूम दें,
उनके लिये मनकी सराहना करना और
जो-जो सङ्कल्प तामसिक अर्थात बुरे मालूम पड़ें,
उनको सुधारने का संकल्प करना चाहिए।

मन के बुरे संकल्प, धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगे

प्रतिदिन इस प्रकारके अभ्याससे,
मनपर सत्कार्य करनेके और
बुरे कार्य छोड़नेके संस्कार जमने लगेंगे।

जिससे कुछ ही समयमें मन बुराइयों से बचकर,
भले भले कार्योंमे लग जायगा।

मन पहले भले कार्यवाला होगा,
तब उसे वशमें करनेमें सुगमता होगी।


बुरी संगति में, पड़ा हुआ बालक का उदाहरण

बुरी संगति में पड़ा हुआ बालक जबतक कुसंगति नहीं छोड़ता,
तबतक उसे बुरी संगति से दूर रहने की सलाह मिलती रहती है।

क्योंकि जबतक वह बालक बुरी सांगत में है,
तब तक उसे कुछ भी समझाना कठिन होता है।

पर जब कुसंग छूट जाता है,
तब उसे बुरी सलाह नहीं मिल सकती, और
दिनरात घरमे उसको माता-पिताके सदुपदेश मिलते हैं,
वह भली-भली बातें सुनता है।

तब फिर उसके सुधरकर
माता-पिताके आज्ञाकारी होनेमे विलम्ब नहीं होता।


मन में, बुरे विचारों की जगह, अच्छे विचार आना शुरू हो जाएंगे

इसी तरह यदि विषय-चिन्तन करनेवाले मनको
कोई एक साथ ही सर्वथा विषयरहित करना चाहे,
तो वह नहीं कर सकता।

पहले मनको बुरे चिन्तनसे बचाना चाहिये,
जब वह परमात्म-सम्बन्धी शुभ चिन्तन करने लगेगा,
तब उसको वश करनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी।


4. मनके कहनेमें न चलना

मनके कहने में नहीं चलना चाहिये।

जबतक यह मन, वशमें नहीं हो जाता,
तबतक इसके कहने के अनुसार नहीं चलना चाहिये।

जैसे शत्रुके प्रत्येक कार्यपर निगरानी रखनी पड़ती है,
वैसे ही इसके भी प्रत्येक कार्यको सावधानीसे देखना चाहिये।

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चोर।
मन के मते ना चालीये। मन पल पल में कहीं और॥

मनकी खातिर अर्थात मन जैसा कहे वैसा कर लिया,
ऐसा भूलकर भी नहीं करनी चाहिये।

जहाँ कहीं यह उलटा सीधा करने लगे,
वहीं इसे धिक्कारना और पछाड़ना चाहिये।


मन बड़ा बलवान, किन्तु धीरे धीरे काबू में आ ही जाता है

यद्यपि यह बड़ा बलवान् है,
कई बार इससे हारना होगा,
पर साहस नहीं छोड़ना चाहिये।

जो हिम्मत नहीं हारता,
वह एक दिन मनको अवश्य जीत लेता है।

इससे लड़नेमे एक विचित्रता है।
यदि दृढ़तासे लढा जाय,
तो लड़ने वाले का बल दिनोदिन बढ़ता है और
इसका क्रमशः घटने लगता है।

इसलिये, इससे लड़नेवाला एक-न-एक दिन
इसपर अवश्य ही विजयी होता है।

अतएव इसकी हाँ-में-हाँ न मिलाकर
प्रत्येक कार्यमें खूब सावधानीसे बरतना चाहिये।

यह मन बड़ा ही चतुर है।

कभी डरावेगा, कभी फुसलावेगा,
कभी लालच देगा, बड़े-बड़े अनोखे रंग दिखलावेगा,
परन्तु कभी इसके धोखेमे न आना चाहिये।

भूलकर भी इसका विश्वास नहीं करना चाहिये।

आज्ञाकारी मन

इस प्रकार करनेसे इसकी हिम्मत टूट जायगी और
लड़ने और धोखा देनेकी आदत छूट जायगी।

अंत में यह आज्ञा देनेवाला न रहकर
सीधा-सादा आज्ञा पालन करनेवाला,
विश्वासी सेवक बन जायगा।


5. मनको सत्कार्यमें संलग्न रखना

मन कभी निकम्मा नहीं रह सकता,
कुछ-न-कुछ काम इसको मिलना ही चाहिये;

इसलिए, इसे निरन्तर काममें लगाये रखना चाहिये।

निकम्मा रहनेसे ही इसे दूसरी बातें सूझा करती है।

इसलिए जबतक नींद न आये,
तब तक चुने हुए सुन्दर माङ्गलिक कार्योंमे इसे लगाये रखना चाहिये।

जाग्रत् समयके सत्कार्योंके चित्र ही
स्वप्नमे भी दिखायी देंगे।


6. मनको परमात्मामें लगाना

श्रीकृष्ण ने, मन को, ईश्वर में लगाने के विषय में क्या कहा?

श्रीभगवान् ने कहा है –

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६ । २६)

यह चञ्चल और अस्थिर मन,
जहाँ-जहाँ दौड़कर जाय,
वहाँ-वहाँसे हटाकर वारंवार इसे
परमात्मामें ही लगाना चाहिये।


मनको वशमें करनेका उपाय प्रारम्भ करनेपर,
पहलेपहले तो यह इतना जोर दिखलाता है,

अपनी चञ्चलता और शक्तिमत्तासे ऐसी पछाड़ लगाता है
कि नया साधक घबड़ा उठता है।
उसके हृदयमें निराशा सी छा जाती है।

परन्तु ऐसी अवस्थामे धैर्य रखना चाहिये।

मनका तो ऐसा स्वभाव ही है,
लेकिन इसपर विजय पाना जरूरी है,
इसलिए घबड़ानेसे काम नहीं चलेगा।

मुस्तैदीसे सामना करना चाहिये।

आज न हुआ तो क्या, कभी-न-कभी तो वशमें होगा ही।

भगवान् कृष्ण ने भी कहा है की, मन को नियंत्रण में करने का अभ्यास करते रहे

इसीलिये भगवान् ने कहा है –

शनैः शनैरुपरमेद बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थ मन कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत॥
(गीता ६ । २५)

धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त हो।

धैर्ययुक्त बुद्धिसे,
मनको परमात्मामे स्थिर करके और
किसी भी विचारको मनमे न आने दे।

बड़ा धैर्य चाहिये।

घबड़ाने, ऊबने या निराश होनेसे काम नहीं होगा।

झाडू से घर साफ कर लेने पर भी,
जैसे धूल जमी हुई सी दीख पड़ती है।

पर इससे डरकर कोई झाडू लगाना बन्द नहीं करता।

उसी प्रकार मनको सस्कारोंसे रहित करते समय,
यदि मन और भी अस्थिर दीखे,
तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

किन्तु मन को नियंत्रण में करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

इस प्रकारकी दृढ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि,
किसी प्रकारका भी वृथा चिन्तन
या मिथ्या संकल्पकों मनमें नहीं आने दिया जायगा।

बड़ी चेष्टा, बड़ी दृढता रखनेपर भी,
मन साधककी चेष्टाओंको कई बार व्यर्थ कर देता है।

साधक तो समझता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ,
पर मनदेवता, सङ्कल्प-विकल्पोंकी पूजामें लग जाते है।

जब साधक मनकी ओर देखता है,
तो उसे आश्चर्य होता है कि यह क्या हुआ।

इतने नये-नये सङ्कल्प, जिनकी भावना भी नहीं की गयी थी, कहाँसे आ गये?

बात यह होती है कि,
साधक जब मनको निर्विषय करना चाहता है,
तब संसारके नित्य अभ्यस्त विषयोसे,
मनको फुरसत मिल जाती है।

उधर परमात्मामें लगनेका इस समय तक उसे पूरा अभ्यास नहीं होता।

इसलिये फुरसत पाते ही,
वह उन पुराने दृश्यों को,
जो संस्कार रूपसे उसपर अंकित हो रहे हैं,
सिनेमाके फिल्मकी भॉति,
क्षण-क्षणमें एकके बाद एक उलटने लग जाता है।

इसीसे उस समय ऐसे सङ्कल्प मनमे उठते हुए मालूम होते है,
जो संसारका काम करते समय याद भी नहीं आते थे।

मनकी ऐसी प्रबलता देखकर,
साधक स्तम्भित-सा रह जाता है,
पर कोई चिन्ता नहीं।

जब अभ्यासका बल बढेगा,
तब उसको संसारसे फुरसत मिलते ही
तुरन्त परमात्मामे लग जायगा।

अभ्यास दृढ़ होनेपर तो यह
परमात्माके ध्यानसे हटाये जानेपर भी न हटेगा।

मन चाहता है सुख।

जबतक इसे वहाँ सुख नहीं मिलता,
विषयोंमे सुख दीखता है, तबतक यह विषयोंमे रमता है।

जब अभ्याससे विषयोमें दुःख और
परमात्मामें परम सुख प्रतीत होने लगेगा,
तब यह स्वयं ही विषयोंको छोड़कर
परमात्माकी ओर दौड़ेगा।

परन्तु जबतक ऐसा न हो,
तबतक निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये।

यह मालूम होते ही कि मन अन्यत्र भागा है,
तत्काल इसे पकड़ना चाहिए।

इसको पक्के चोरकी भॉति, भागनेका बड़ा अभ्यास है,
इसलिये ज्यों ही यह भागे, त्यों ही इसे पकडना चाहिये।

जिस-जिस कारणसे मन मांसारिक पदार्थोंमें विचरे,
उस-उससे रोककर परमात्मामें स्थिर करे।

मनपर ऐसा पहरा बैठा दे कि, यह भाग ही न सके।

यदि किसी प्रकार भी न माने,
तो फिर इसे भागनेकी पूरी स्वतन्त्रता दे दी जाय;
परन्तु यह जहाँ जाय, वहींपर परमात्माकी भावना की जाय,
यहींपर इसे परमात्माके स्वरूपमे लगाया जाय ।

इस उपायसे भी मन स्थिर हो सकता है।


7. एक तत्त्वका अभ्यास करना

योगदर्शन महर्षि पतञ्जलि लिखते है –

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः। (समाधिपाद ३२)

चित्तका विक्षेप दूर करनेके लिये,
पाँच तत्त्वोंमेसे किसी एक तत्त्वका, अभ्यास करना चाहिये।

एक तत्त्वके अभ्यासका अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि,
किसी एक वस्तुकी या किसी मूर्तिविशेषकी तरफ एकदृष्टि से देखते रहना।

जबतक आखोंकी पलक न पड़े,
तबतक उस एक ही चिह्नकी तरफ देखते रहना चाहिये।

चिह्न धीरे-धीरे छोटा करते रहना चाहिये।

अन्तमे उस चिह्नको बिल्कुल ही हटा देना चाहिये।

दृष्टिः स्थिरा यत्र विनावलोकनम् –

अवलोकन न करनेपर भी दृष्टि स्थिर रहे।

ऐसा हो जाने पर चित्तविक्षेप नहीं रहता।

इस प्रकार प्रतिदिन, आध-आध घण्टे भी अभ्यास किया जाय,
तो मनके स्थिर होनेमे, अच्छी सफलता मिल सकती है।

इसी प्रकार दोनों भ्रुवोंके बीचमें दृष्टि जमाकर,
देखते रहनेका भी अभ्यास किया जाता है।
इससे भी मन निश्चल होता है, इसीको त्राटक कहते है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि,
इस प्रकारके अभ्यासमे नियमितरूपसे जो जितना अधिक समय दे सकेगा,
उसे उतना ही अधिक लाभ होगा।


8. नाभि या नासिकाग्रमें दृष्टि स्थापन करना

नित्य नियमपूर्वक पद्मासन या सुखासनसे बैठकर,
सीधा बैठकर, नाभिमे दृष्टि जमाकर,
जबतक पलक न पड़े, तबतक एक-मनसे देखते रहना चाहिये।

ऐसा करनेसे, शीघ्र ही मन स्थिर होता है।

इसी प्रकार, नासिकाके अग्रभागपर,
दृष्टि जमाकर बैठनेसे भी, चित्त निश्चल हो जाता है।

इससे ज्योतिके दर्शन भी होते है।


9. शब्द श्रवण करना

कानोमे अँगुली देकर, शब्द सुननेका अभ्यास किया जाता है।

इसमे पहले भँवरोंके गुंजार
अथवा प्रातःकालीन पक्षियोंके चह-चहाने जैसा शब्द सुनायी देता है।

फिर क्रमशः घुघुरू, शङ्ख, घण्टा, ताल, मुरली, भेरी, मृदङ्ग, नफीरी और सिंहगर्जनके सदृश, शब्द सुनायी देते हैं।

इस प्रकार, दस प्रकारके शब्द सुनायी देने लगनेके बाद,
दिव्य ॐ शब्द का श्रवण होता है,
जिससे साधक समाधिको प्राप्त हो जाता है।

यह भी मनके निश्चल करनेका उत्तम साधन है।


10. ध्यान या मानसपूजा

सब जगह, भगवानके किसी नामको लिखा हुआ समझकर,
वारंवार उस नामके ध्यानमे, मन लगाना चाहिये अथवा
भगवानके किसी स्वरूपविशेषकी, अन्तरिक्ष में मनसे कल्पना कर,
उसकी पूजा करनी चाहिये।

पहले भगवान की मूर्तिके एक-एक अवयवका, अलग-अलग ध्यान कर,
फिर दृढताके साथ, सारी मूर्तिका ध्यान करना चाहिये।

(जैसे शिव पंचाक्षर मंत्र में शिव के गुणों का और उनके स्वरुप का वर्णन किया है)

उसीमे मनको अच्छी तरह स्थिर कर देना चाहिये।

मूर्तिके ध्यानमे इतना तन्मय हो जाना चाहिये कि, संसारका भान ही न रहे।

फिर कल्पना-प्रसूत सामग्रियोंसे, भगवान की मानसिक पूजा करनी चाहिये।

(जैसे शिव मानस पूजा मंत्र में भगवान् शिव की पूजा मनद्वारा, मन में ही, की जाती है)

प्रेमपूर्वक की हुई नियमित भगवद उपासनासे,
मनको निश्चल करनेमें बड़ी सहायता मिल सकती है।


11. मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षाका व्यवहार

योगदर्शनमें महर्षि पतञ्जलि एक उपाय यह भी बतलाते हैं –

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(समाधिपाद ३३ )

अर्थात, सुखी मनुष्योसे प्रेम, दुखियोंके प्रति दया, पुण्यात्माओंके प्रति प्रसन्नता ओर पापियोके प्रति उदासीनताकी भावनासे, चित्त प्रसन्न होता है।


जगत् के सारे सुखी जीवोंके साथ, प्रेम करनेसे चित्तका ईर्ष्यामल दूर होता है, द्वेषकी आग बुझ जाती है।

संसारमे लोग, अपनेको और अपने आत्मीय स्वजनोंको, सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे उन लोगोंको, अपने प्राणों के समान प्रिय समझते हैं।

यदि यही प्रिय भाव, सारे ससारके सुखियोंके प्रति अर्पित कर दिया जाय, तो कितने आनन्दका कारण हो !

दूसरेको सुखी देखकर, जलन पैदा करनेवाली वृत्तिका, नाश हो जाय।


दुखी प्राणियोंके प्रति, दया करनेसे, परअपकाररूप चित्त-मल नष्ट होता है।

मनुष्य अपने कष्टोंको दूर करनेके लिये, किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं समझता,

भविष्यमे कष्ट होनेकी सम्भावना होते ही, पहलेसे उसे निवारण करनेकी चेष्टा करने लगता है।

यदि ऐसा ही भाव, जगत्के सारे दुखी जीवोंके साथ हो जाय तो, अनेक लोगोंके दुःख दूर हो सकते हैं।

दुःखपीड़ित लोगोंके दुःख दूर करनेके लिये, अपना सर्वस्व न्योछावर कर देनेकी प्रबल भावनासे, मन सदा ही प्रफुल्लित रह सकता है।


धार्मिकोंको देखकर हर्षित होनेसे, दोषारोप नामक मनका विकार नष्ट होता है,

साथ ही धार्मिक पुरुषकी भॉति, चित्तमें धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है।

विकारों के दूर होते ही, चित्त शान्त होता है।


पापियोके प्रति उपेक्षा करनेसे, चित्तका क्रोधरूप मल नष्ट होता है।

पापोंका चिन्तन न होनेसे, उनके सस्कार अन्तःकरणपर नहीं पड़ते।

किसीसे भी घृणा नहीं होती।

इससे चित्त शांत रहता है।

इस प्रकार इन चारो भावोंके, बारबार अनुशीलनसे, चित्तकी राजस, तामस वृत्तियाँ नष्ट होकर,

सात्त्विक वृत्तिका उदय होता है और उससे चित्त प्रसन्न होकर, शीघ्र ही एकाग्रता लाभ कर सकता है।


12. सदग्रंथो का अध्ययन

भगवान के परम रहस्यसम्बन्धी, परमार्थ-ग्रन्थोंके पठन पाठन से भी, चित्त स्थिर होता है।

एकान्तमें बैठकर, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि प्रन्थोंका अर्थ सहित पाठ करनेसे, वृत्तियाँ तदाकार बन जाती हैं।

इससे मन स्थिर हो जाता है।


13. प्राणायाम

प्राणायाम से योग के सम्बन्धमें महत्वपूर्ण बात – इस मार्ग में सद्गुरुकी सलाह के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिये। योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

समाधि से भी मन रुकता है।

समाधि अनेक तरहकी होती है।

प्राणायाम समाधिके साधनोका, एक मुख्य अङ्ग है।

योगदर्शनमे कहा गया है –

प्रच्छईनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। ( समाधिपाद ३४)

नासिकाके छेदोंसे अन्तरकी वायुको बाहर निकालना, प्रच्छर्दन कहलाता है, और प्राणवायुकी गति रोक देनेको विधारण कहते हैं।

इन दोनों उपायोसे भी चित्त स्थिर होता है।

श्रीमद्भगवद्गीतामे भगवान् ने भी कहा है –

अपाने जुद्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा॥

कई अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, कई प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करते हैं और कई प्राण, और अपानकी गतिको रोककर, प्राणायाम किया करते हैं।

इसी तरह योगसम्बन्धी ग्रन्थोंके अतिरिक्त, महाभारत, श्रीमद्भागवत और उपनिषदोंमे भी, प्राणायामका यथेष्ट वर्णन है।

श्वास-प्रश्वासकी गतिको रोकनेका नाम ही, प्राणायाम है।

मनु महाराजने कहा है –

दद्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।
तयेन्द्रियाणां दद्यन्ते दोपाः प्राणस्य निग्रहात्।

अग्निमें तपाये जानेपर, जैसे धातुका मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणवायुके निग्रहसे, इन्द्रियोंके सारे दोष नष्ट हो जाते है।

प्राणोंको रोकनेसे ही मन रुकता है।

इनका एक दूसरेके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है।

मन सवार है, तो प्राण वाहन है।

एकको रोकनेसे, दोनों रुक जाते है।

प्राणायामके सम्बन्धमे, योगशान्त्रमे, अनेक उपदेश मिलते हैं, परन्तु वे बड़े ही कठिन हैं।

योगसाधनमे अनेक नियमोंका, पालन करना पड़ता है।

योगाभ्यासके लिये बड़े ही कठोर, आत्मसंयमकी आवश्यकता है।

आजकलके समयमें तो, कई कारणोंसे योगका साधन, एक प्रकारसे असाध्य ही समझना चाहिये।

यहा पर प्राणायामके सम्बन्धमें, केवल इतना ही कहा जाता है कि,

बाई नासिकासे बाहरकी वायुको, अन्तरमें ले जाकर स्थिर रखनेको, पूरक कहते हैं,

दाहिनी नासिकासे अन्तरकी वायुको, बाहर निकालकर बाहर स्थिर रखनेको, रेचक कहते है और

जिसमें अन्तरकी वायु, बाहर न जा सके और बाहरकी वायु अन्तरमें प्रवेश न कर मके, इस भावसे प्राणवायु रोक रखनेको कुंभक कहते हैं।

इसीका नाम प्राणायाम है।

सााधारणतः, चार बार मन्त्र जपकर पूरक, सोलह बाारके जपसे कुम्मक और आठ बारके जपसे रेचककी विधि है।

परन्तु इस सम्बन्धमें उपयुक्त, सद्गुरुकी आज्ञा बिना, कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

देखा देसी साधै जोग।
छीजै काया बाढ़ै रोग।

पर यह स्मरण रहे कि, प्राणायाम, मनको रोकनेका, एक बहुत ही उत्तम साधन है।


14. श्वासके द्वारा नाम-जप

मनको रोककर परमात्मामें लगानेका, एक अत्यन्त सुलभ और आशंका रहित उपाय और है, जिसका अनुष्ठान सभी कर सकते है।

वह है, आने-जानेवाले श्वास – प्रश्वास की गतिपर, ध्यान रखकर, श्वासके द्वारा, श्रीभगवान के नामका जप करना।

यह अभ्यास बैठते-उठते, चलते-फिरते, सोते-खाते हर समय, प्रत्येक अवस्थामे किया जा सकता है।

इसमे श्वास, जोर-जोर से लेनेकी भी, कोई आवश्यकता नहीं।

श्वासकी साधारण चालके साथ-ही-साथ, नामका जप किया जा सकता है।

इसमे लक्ष्य रखनेसे ही, मन रुककर नामका जप हो सकता है।

श्वासके द्वारा नामका जप करते समय, चित्तमें इतनी प्रसन्नता होनी चाहिये कि, मानो मन आनन्दसे उछला पड़ता हो।

आनन्द रससे भरा हुआ, अन्तःकरणरूपी पात्र मानो, छलका पडता हो।

यदि इतने आनन्दका अनुभव न हो तो, आनन्दकी भावना ही करनी चाहिये।

इसीके साथ भगवान को, अपने अत्यन्त समीप जानकर, उनके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये, मानो उनके समीप होनेका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।

इस भावसे संसारकी सुध भुलाकर, मनको परमात्मामे लगाना चाहिये।


15. ईश्वर-शरणागति

ईश्वर-प्रणिधानसे भी मन वशमें होता है,

अनन्य भक्तिसे परमात्माके शरण होना, ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है।

ईश्वर शब्दसे यहाँ पर, परमात्मा और उनके भक्त, दोनों ही समझे जा सकते हैं।

‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’, ‘तस्मिस्तजने भेदाभावात्’, ‘तन्मयाः’ –

इन श्रुति और भक्तिशास्त्रके सिद्धान्त-वचनोंसे, भगवान्, ज्ञानी और भक्तोंकी एकता सिद्ध होती है।

श्रीभगवान् और उनके भक्तोंके प्रभाव और चरित्रके चिन्तनमात्रसे, चित्त आनन्दसे भर जाता है।

संसारका बन्धन मानो, अपने-आप टूटने लगता है।

अतएव भक्तोंका सङ्ग करने, उनके उपदेशोंके अनुसार चलने और भक्तोंकी कृपाको ही,

भगवत्प्राप्तिका प्रधान उपाय समझनेसे भी, मनपर विजय प्राप्त की जा सकती है।

भगवान् और सच्चे भक्तोंकी कृपासे, सब कुछ हो सकता है।


16. मनके कार्योंको देखना

मनको वशमें करनेका, एक बड़ा उत्तम साधन है,

मनसे अलग होकर, निरन्तर, मनके कार्योको, देखते रहना।

जबतक हम, मनके साथ मिले हुए है, तभीतक, मनमें इतनी चञ्चलता है।

जिस समय हम, मनके द्रष्टा बन जाते हैं, उसी समय, मनकी चञ्चलता मिट जाती है।

वास्तवमें तो मनसे, हम सर्वथा भिन्न ही है।

किस समय मनमे क्या सकल्प होता है, इसका पूरा पता हमें रहता है।

मुंबईमे बैठे हुए एक मनुष्यके मनमे, दिल्ली किसी दृश्यका सङ्कल्प होता है, इस बाातको यह अच्छी तरह जानता है।

यह निर्विवाद बात है कि, जानने या देखनेवाला, जाननेकी वा देखनेकी वस्तुसे, सदा अलग होता है।

ऑखको आँख नहीं देख सकती।

इस न्यायसे मनकी बातोंको, जो जानता या देखता है, वह मनसे सर्वथा भिन्न है, भिन्न होते हुए भी, वह अपनेको मनके साथ मिला लेता है,

इसीसे उसका जोर पाकर मनकी उद्दण्डता बढ़ जाती है।

यदि साधक अपनेको निरन्तर अलग रखकर, मनकी क्रियाओंका, द्रष्टा बनकर देखनेका अभ्यास करे,

तो मन बहुत ही शीघ्र, सङ्कल्परहित हो सकता है।


17. भगवन्नामकीर्तन

मग्न होकर उच्च स्वरसे, परमात्माका नाम और गुणकीर्तन, करनेसे भी मन परमात्मामें, स्थिर हो सकता है।

भगयान् चैतन्यदेवने तो मनको निरुद्धकर, परमात्मामे लगानेका, यही परम साधन बतलाया है।

भक्त जब अपने प्रभुका, नाम-कीर्तन करते-करते, गद्गदकण्ठ, रोमाञ्चित और अश्रुपूर्णलोचन होकर, प्रेमावेशमें अपने आपको सर्वथा भुलाकर, केवल परमात्माके रूपमें, तन्मयता प्राप्त कर लेता है,

तब भला, मनको जीतने में, और कौन-सी बात बच रहती है ?

अतएव, प्रेमपूर्वक परमात्माका नामकीर्तन करना, मनपर विजय पानेका एक अत्युत्तम साधन है।

इस प्रकारसे मनको रोककर, परमात्मामें लगानेके अनेक साधन और युक्तियाँ हैं।

इनमेंसे या अन्य किसी भी युक्तिसे, किसी प्रकारसे भी, मनको विषयोंसे हटाकर, परमात्मामे लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये।

मनके स्थिर किये बिना, अन्य कोई भी अवलम्बन नहीं।

जैसे चञ्चल जलमें, रूप विकृत दीख पड़ता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्तमें, आत्माका यथार्थ स्वरूप, प्रतिबिम्बित नहीं होता।

परन्तु जैसे स्थिर जलमें, प्रतिबिम्ब जैसा होता है, वैसा ही दीखता है, इसी प्रकार केवल स्थिर मनसे ही, आत्माका यथार्थ स्वरूप, स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है।

अतएव प्राणपणसे, मनको स्थिर करनेका, प्रयत्न करना चाहिये।

अबतक जो इस मनको स्थिर कर सके है, वे ही उस श्यामसुन्दरके, नित्यप्रसन्न नवीन-नील-नीरद, प्रफुल्ल मुखारविन्दका दर्शन कर, अपना जन्म और जीवन सफल कर सके है।

जिसने एक बार भी, उस ‘अनूपरूपशिरोमणि’ के दर्शनका सयोग प्राप्त कर लिया, वही धन्य हो गया।

उसके लिये उस सुखके सामने, और सारे सुख फीके पड़ गये।

उस लाभके सामने, और सारे लाभ नीचे हो गये!

यं लब्ध्वा चापरं लामं मन्यते नाधिकं ततः।

जिस लाभको पा लेनेपर, उससे अधिक और कोई-सा लाभ भी नहीं जंचता।

यही योगसाधनका चरम फल है, अथवा यही परम योग है।

दुःख की परिस्थिति से लाभ


दुःख क्यों

तुम्हारे पास धन नहीं, बुद्धि नहीं,
स्वस्थ तन नहीं और
जगत्‌में अपमान मिल रहा है।

इसीलिये सुख नहीं हैं – ऐसी तुम्हारी धारणा है।

यदि वस्तुत: तुम्हारी ऐसी ही परिस्थिति है,
तो तुम्हे प्रसन्न होना चाहिये।

क्योंकि, इसी अवस्थामें
मनुष्य जगत्‌की ओरसे मोह ममता हटाकर,
भगवानकी ओर बढ़ता है।


ईश्वर चाहते है की –

भगवान् जिस पर बड़ी दया करते हैं,
उसीके सामने ऐसी परिस्थिति लाकर रखते हैं।

निश्चय ही भगवान् तुम पर कृपादृष्टि डाल रहे है,
और तुम्हे अपनी शरणमें लेनेको उत्सुक है।


दुःख की स्थिति से लाभ उठाये

अब तुम्हारा काम है कि
इस परिस्थिति से लाभ उठाये।

संसारके मनुष्य,
संसारसे दुःख और अपमान पाकर भी,
उसीमें रचे-पचे रहते हैं।

सोभाग्यकी बात है कि
तुम्हे जगत्‌के स्वरूपका वास्तविक अनुभव हुआ।

अब तुम यह निश्चय करो कि
दीनबंधु भगवान के सिवा कोई भी अपना नहीं।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम।

यह जगत्, यह शरीर, अनित्य और
दुःख-रूप है –
इसे पाकर भगवान का स्मरण करो।

ईश्वर के प्रति समर्पण ही जीवनका सार है।


भगवान का स्मरण

आप सुख,अच्छी सेहत, धन, मान
या अपना उद्धार, जो कुछ भी चाहो,
उसकी प्राप्तिका एकमात्र उपाय है,
भगवानका भजन।

भजन करने में कोई कठिनाई नही है।


ईश्वर का भजन कैसा हो

अपना तन, मन, धन –
जो कुछ भी अपना कहा जानेवाला हो,
सब कुछ मनसे भगवानको अर्पण कर दें।

आप भगवान के हो जाए।

सोयें भगवान‌ के लिये,
जागे भगवान के लिये।

सब कार्य, सारी चेष्टा,
भगवान्‌के लिये हो।

अपने लक्ष्य, अपने प्राणोंके भगवान् ही आराध्य बन जायें।

ऐसी अवस्थामें जो सुख मिलेगा,
उसकी कहीं तुलना नहीं है ।


काम और घर छोड़ने की जरूरत नहीं

आप घर न छोड़ें, काम न छोड़ें,
केवल भगवान्‌से नाता जोड़ लें।
उनके ही हो जाएं।

सब कार्य करते हुए भगवानका चिन्तन करें।

तो समझो बेड़ा पार है। शेष प्रभुकी कृपा ।

ईश्वर भक्त के दस गुण – ईश्वर भक्त की पहचान


सिर्फ वेश भूषा देखकर, किसी को ईश्वर भक्त ना माने

बहुत से लोग छली, पाखण्डी और दुष्ट पुरुषोंको ही
उनके बाहरका भेष देखकर ईश्वरभक्त मान बैठते हैं।

जैसे रावण एक अहंकारी पुरुष था,
किंतु उसने कपटवेश धारण करके
सीताजी का हरण कर लिया था।

उसी प्रकार आज के युग में भी
कुछ पाखंडी कपटवेश धारण कर लेते हैं और
अपने आप को ईश्वर का भक्त कहते हैं।

यदि लोग इन दुष्ट पुरुषों का कपट रूप पहले से जान लें,
तो उनके माया जालसे बच सकते हैं।

ऐसे लोगों से बचें

कुछ पाखंडी मनुष्य,
सिर्फ ऊपर से ईश्वर भक्ति का स्वांग दिखाया करते हैं।

लेकिन, उनके मनके भीतर
छल और पाखंड के विचार भरे होते हैं।

इसलिए उन्हें ईश्वर भक्त नहीं समझना चाहिए,
और ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए।


तो ईश्वर भक्त की पहचान क्या है?

भगवान ने भगवद गीता के अध्याय 12 के श्लोक 13 और 14 में ईश्वर भक्त की पहचान बतलाई है –

अद्वेष्टा सर्वभूतानां,
मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्‍कारः,
समदुःखसुखः क्षमी॥

संतुष्टः सततं योगी,
यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो,
मद्भक्तः स मे प्रियः॥

ईश्वर भक्त के दस महत्वपूर्ण गुण

1

ईश्वरभक्त किसी भी जीव से
द्वेष या घृणा का भाव नहीं रखता है।
सब भूतों में द्वेष भाव से रहित होता है।

2

बिना किसी इच्छा या स्वार्थ के
सभी जीवों पर दया करता है।
अर्थात स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और
हेतु रहित दयालु होता है।

3

किसी भी व्यक्ति के प्रति राग या आसक्ति नहीं होती है।
अर्थात ममता से रहित है।

4

किसी भी बात में अहंकार की भावना नहीं रहती है।

5

सुख दुःखमें एक भावसे रहता है।
सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम रहता है।

6

हानि या लाभमें एकसा संतुष्ट रहता है।
निरन्तर संतुष्ट रहता है।

7

मनसहित इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है।

8

अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला होता है।
क्षमावान होता है।

9

ईश्वरमें दृढ़ निश्चय वाला होता है, और

10

मन और बुद्धि को ईश्वर के चरणों में अर्पण किए हुए रहता है।


जो लोग सादा चालचलन रखते हैं,
मन और इंद्रियों को वश में रखते हैं,
सच्चाई की राह पर चलते हैं,
ऐसे लोगों में ईश्वर के लिए प्रेम होता है और
वेही ईश्वर के सच्चे भक्त है।


ऐसा मनुष्य ईश्वर भक्त नहीं हो सकता

जिसने मन का अहंकार दूर नहीं किया,
जिसका क्रोध नहीं गया है,
जो अविद्या के अन्धकारमें फंसा हुआ है,
जिसकी आशाएं, इच्छाएं नहीं मिटी हैं,
किसी भी वस्तु में या जीव से आसक्ति बनी हुई है,
जो अच्छे पुरुषोंका संग नहीं करता है,
उसे ईश्वरभक्त नहीं समझना चाहिये।


ईश्वर भक्त का सरल स्वभाव

ईश्वरभक्त उसे ही समझना चाहिये,
जो दूसरोंको दुःख न दे,
सबकी भलाई करता रहे,
किसीका माल न छिपा रक्खे,
सब धर्मकथाओंको प्रेमसे सुने,
ईश्वरकी उपासना, पाठ, पूजा, ध्यान आदि समयानुसार करता रहे,
उसे अवश्य ईश्वरभक्त समझना चाहिये ।


ईश्वरभक्तके भाव बहुत ही शुद्ध और पवित्र हो जाते हैं।

ईश्वरभक्तका स्वभाव सरल होता है।

वह सबका हितैषी होता है।

शरीरके श्रृंगार में उसकी रूचि नहीं रहती है और
सादगी से प्रेम होता है।

भक्तियोग – List

ध्यान कैसे करना चाहिये? जप, साकार और निराकार ध्यान


कुछ लोग निराकार शुद्ध ब्रह्मका ध्यान करते हैं,
कुछ साकार दो भुजावाले और
कुछ चतुर्भुजधारी भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं।

वास्तवमें भगवान् विष्णु, राम और कृष्ण जैसे एक हैं,
वैसे ही देवी माँ, शिवजी, गणेशजी और सूर्य भी, उनसे कोई भिन्न नहीं।


अठारह पुराणों में ईश्वर

एक ही परमात्माका निरूपण करनेके लिये
श्रीवेदव्यासजीने अठारह पुराणोंकी रचना की है।

जिस देवके नामसे जो पुराण बना,
उसमें उसीको सर्वोपरि, सृष्टिकर्ता,
सर्वगुणसम्पन्न ईश्वर बतलाया गया।

वास्तवमें नाम-रूपके भेदसे
सबमें उस एक ही परमात्माकी बात कही गयी है।

नाम-रूपकी भावना
साधक अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।

यदि कोई एक स्तम्भको ही परमात्मा मानकर उसका ध्यान करे,
तो वह भी परमात्माका ही ध्यान होता है।
किन्तु उसके लक्ष्यमें ईश्वरका पूर्ण भाव होना चाहिये।


साकार और निराकार ध्यान

साकार और निराकार ध्यान दोनों का फल एक ही है।

फर्क केवल साधन में है,
अर्थात ध्यान करने की क्रिया है।

साकारकी अपेक्षा,
निराकारका ध्यान कुछ कठिन है।

किन्तु अपनी–अपनी प्रीतिके अनुसार साधक,
निराकार या साकारका ध्यान कर सकते हैं।


निराकार के उपासक को साकारका तत्व जानना चाहिए

निराकार का ध्यान करने वाले,
यदि साकारका तत्त्व समझकर,
परमात्माको सर्वदेशी, विश्वरूप मानते हुए,
निराकारका ध्यान करें तो फल शीघ्र होता है।

साकारका तत्त्व न समझनेसे,
कुछ विलम्बसे सफलता होती है।


साकारके उपासक को भी निराकार ब्रह्म का तत्व जानना चाहिए

इसी प्रकार, साकारके ध्यान करनेवालो को,
निराकार, व्यापक ब्रह्मका तत्त्व जाननेकी आवश्यकता है।

इसीसे वह सुगमतापूर्वक,
शीघ्र सफलता प्राप्त कर सकता है।


साकार या निराकार में सुलभ मार्ग

निराकारके प्रभावको जानकर,
जो साकारका ध्यान किया जाता है,
वही ईश्वरकी शीघ्र प्राप्तिके लिये,
उत्तम और सुलभ साधन है।

वास्तवमें परमात्माका असली स्वरूप
इन दोनोंसे ही विलक्षण है,
जिसका ध्यान नहीं किया जा सकता।


भगवद गीता में ध्यान का महत्व

भगवान्‌ने गीतामें ध्यान का प्रभाव समझाकर,
ध्यान करनेकी ही बढ़ाई की है।

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥ (१२।२)

हे अर्जुन! मेरेमें मनको एकाग्र करके,
निरन्तर मेरे भजन, ध्यानमें लगे हुए,
जो भक्तजन, अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त हुए,
मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं,
वे मुझे योगियोंमें भी अति उत्तम योगी मान्य हैं,
अर्थात् उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूँ।


निराकार का ध्यान

निराकारके ध्यान करनेकी कई युक्तियाँ हैं।

जिसको जो सुगम मालूम हो,
वह उसीका अभ्यास करे।
सबका फल एक ही है।

कुछ युक्तियाँ निचे दी गयी है –


गीता के अनुसार ध्यान कैसे करें?

साधकको भगवद गीताके अध्याय ६ – श्लोक ११ से १३ के अनुसार,
एकान्त स्थानमें बैठकर,
नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखकर,
या आँखें बंदकर (अपनी इच्छानुसार) ध्यान करना चाहिए।


ध्यान कितने समय करें?

नियमपूर्वक प्रतिदिन कम से कम तीन घण्टे का समय,
ध्यानके अभ्यासमें बिताना चाहिये।

तीन घण्टे कोई न कर सके तो, दो करे,
दो नहीं तो एक घण्टे, अवश्य ध्यान करना चाहिये।

शुरू शुरू में मन न लगे, तो पंद्रह–बीस मिनटसे आरम्भ कर,
धीरे–धीरे ध्यानका समय बढ़ाते रहे।

बहुत शीघ्र प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले साधकोंके लिये,
तीन घण्टेका अभ्यास आवश्यक है।


निराकार ध्यान में ॐ कार जाप

ध्यानमें नाम जपसे बड़ी सहायता मिलती है।

ईश्वरके सभी नाम समान हैं,
परंतु निराकारकी उपासनामें ॐ कार प्रधान है।

योगदर्शनमें भी महर्षि पतंजलिने कहा है –

तस्य वाचक: प्रणव:॥
तज्जपस्तदर्थभावनम्॥

उसका वाचक प्रणव (ॐ) है,
उस प्रणवका जप करना और
उसके अर्थ (परमात्मा) का ध्यान करना चाहिये,
स्वरूपका ध्यान करना चाहिये।


ध्यान में नाम का जप

ध्यानका लक्ष्य ठीक करनेके लिये,
पतंजलिजीके कथनानुसार,
स्वरूपका ध्यान करते हुए,
नामका जप करना चाहिये।

ॐ की जगह कोई आनन्दमय ब्रह्मका जप करे,
तो भी कोई आपत्ति नहीं है।

भेद नामोंमें है,
फलमें कोई फर्क नहीं है।


ध्यान के समय जप कैसे करें? मन से, वाणी से या श्वास में?

मन और बुद्धि से जप

जप सबसे उत्तम वह होता है, जो मनसे होता है,
जिसमें जीभ हिलाने और
होठोंसे उच्चारण करनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती।

ऐसे जपमें ध्यान और जप दोनों साथ ही हो सकते हैं।

अन्तःकरणके चार चीजों में, मन और बुद्धि दो प्रधान हैं।

बुद्धिसे
पहले परमात्माका स्वरूप निश्चय करके, उसमें बुद्धि स्थिर कर ले,
फिर मन से
उसी सर्वत्र परिपूर्ण आनन्दमयकी पुन:–पुन: आवृत्ति करते रहे।

यह जप भी है और ध्यान भी।

वास्तवमें आनन्दमयके जप और ध्यानमें, कोई खास अन्तर नहीं है।

दोनों काम एक साथ किये जा सकते हैं।


श्वास के द्वारा जप

दूसरी युक्ति श्वासके द्वारा जप करनेकी है।

श्वासोंके आते और जाते समय, कण्ठसे नामका जप करे।

जीभ और होठोंको बंदकर,
श्वासके साथ नामकी आवृत्ति (नामका जप) करते रहे,
यही प्राणजप है, इसको प्राणद्वारा उपासना कहते हैं।

यह जप भी उच्च श्रेणीका है।


वाणी से जप

यह न हो सके तो, मनमें ध्यान करे और
जीभसे उच्चारण करे।

परन्तु इनमें साधकके लिये अधिक सुगम और लाभप्रद
श्वासके द्वारा किया जानेवाला जप है।

यह तो जपकी बात हुई, असलमें जप तो निराकार और साकार,
दोनों प्रकारके ध्यानमें ही होना चाहिये।


निराकार ध्यान – नेति, नेति

अब निराकारके ध्यानके सम्बन्धमें –

एकान्त स्थानमें, स्थिर आसनसे बैठकर,
एकाग्रचित्तसे इस प्रकार अभ्यास करे।

जो कोई भी वस्तु, इन्द्रिय और मनसे प्रतीत हो,
उसीको कल्पित समझकर, उसका त्याग करते रहे।

जो कुछ प्रतीत होता है, सो है नहीं।

स्थूल शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, आदि कुछ भी नहीं हैं।

इस प्रकार, सबका अभाव करते करते,
अभाव करनेवाले पुरुषकी वह वृत्ति,
अर्थात् दृश्यको अभाव करनेवाली वृत्ति भी शान्त हो जाती है।

उस वृत्तिका त्याग करना नहीं पड़ता, स्वयमेव हो जाता है।

इसीको वेदोंमें – नेति – नेति अर्थात ऐसा भी नहीं, ऐसा भी नहीं, कहा है।


त्याग स्वयं हो जाता है, वृत्तियाँ शांत हो जाती है

त्याग करनेमें तो त्याग करनेवाला,
त्याज्य वस्तु (जिसका त्याग कर रहे है) और
त्याग, यह त्रिपुटी आ जाती है।

इसलिये, त्याग करना नहीं पड़ता,
त्याग हो जाता है।

जैसे ईंधनके अभावमें अग्नि स्वयमेव शान्त हो जाती है,

इसी प्रकार विषयोंके सर्वथा अभावसे,
वृत्तियाँ भी सर्वथा शान्त हो जाती हैं।

शेषमें जो बचा रहता है,
वही परमात्माका स्वरूप है।

इसीको निर्बीज समाधि कहते हैं।

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:॥

संसारको जड़से उखाड़कर फेंक देनेपर, परमात्मा आप ही रह जाते हैं।

उपाधियोंका नाश होते ही सारा भेद मिटकर,
अपार एकरूप परमात्माका स्वरूप रह जाता है।

वही सब जगह परिपूर्ण, और सभी देश–कालमें व्याप्त है।

जब चिन्तनका सर्वथा त्याग हो जाता है,
तभी उस अचिन्त्य ब्रह्मका खजाना निकल पड़ता है और
साधक उसमें जाकर मिल जाता है।


अज्ञान मिट जाता है, विकार दूर हो जाते है

जबतक अज्ञानकी आड़से दूसरे पदार्थ भरे हुए थे,
तबतक वह खजाना अदृश्य था।

अज्ञान मिटनेपर एक ही वस्तु रह जाती है,
तब उसमें मिल जाना,
यानी सम्पूर्ण वृत्तियोंका शान्त होकर
एक ही वस्तुका रह जाना निश्चित है।

सब वस्तुओंका अभाव होनेपर प्राप्त होनेवाली चीज कैसी है,
उसका स्वरूप कोई नहीं कह सकता,
वह तो अत्यन्त विलक्षण है।

सूक्ष्मभावके तत्त्वज्ञ सूक्ष्मदर्शी महात्मागण उसे, –
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म – कहते हैं।

वह अपार है, असीम है,
चेतन है, ज्ञाता है,
घन है, आनन्दमय है,
सुखरूप है, सत् है, नित्य है।

इस प्रकारके विशेषणोंसे वे विलक्षण वस्तुका निर्देश करते हैं।

उसकी प्राप्ति हो जानेपर फिर कभी पतन नहीं होता।

दुःख, क्लेश, दुर्गुण, शोक,
अल्पता, विक्षेप, अज्ञान और
पाप आदि, सब विकारोंकी
सदाके लिये आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है।

एक सत्य, ज्ञान, बोध और आनन्दरूप ब्रह्मके बाहुल्यकी जागृति रहती है।

यह जागृति भी केवल समझानेके लिये ही है।
वास्तवमें तो कुछ कहा नहीं जा सकता।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्येते॥ (गीता १३ । १२)

वह आदिरहित परब्रह्म, अकथनीय होनेसे
न सत् कहा जाता है, और न असत् ही कहा जाता है।

यदि ज्ञानका भोक्ता कहें, तो कोई भोग नहीं है।
यदि ज्ञानरूप या सुखरूप कहें, तो कोई भोक्ता नहीं है।

भोक्ता, भोग और भोग्य,
सब कुछ एक ही रह जाता है।

वह एक ऐसी चीज है जिसमें त्रिपुटी रहती ही नहीं।

एक तो यह निराकारके ध्यानकी विधि है।


साकार ध्यान

अब साकारके ध्यानके सम्बन्धमें –

साकारकी उपासनाके फल दोनों प्रकारके होते हैं।

साधक यदि मुक्ति चाहता है और
शुद्ध ब्रह्ममें एकरूपसे मिलना चाहता है,
तो उसमें मिल जाता है, उसकी मुक्ति हो जाती है।

परन्तु यदि वह ऐसी इच्छा करता है कि,
मैं दास, सेवक या सखा बनकर,
भगवान्‌के समीप निवास कर प्रेमानन्दका भोग करूँ,
या अलग रहकर संसारमें भगवत्प्रेम प्रचाररूप परम सेवा करूँ,
तो उसको सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य, सायुज्य आदि मुक्तियों में से
यथारुचि कोई सी मुक्ति मिल जाती है और
वह मृत्युके बाद भगवान्‌के परम नित्यधाममें चला जाता है।

महाप्रलयतक नित्यधाममें रहकर,
अन्तमें परमात्मामें मिल जाता है,
या संसारका उद्धार करनेके लिये,
कारक पुरुष बनकर जन्म भी ले सकता है।

परन्तु जन्म लेनेपर भी
वह किसी मोह माया में नहीं फँसता।

माया उसे किंचित् भी दुःख–कष्ट नहीं पहुँचा सकती,
वह नित्य मुक्त ही रहता है।

जिस नित्यधाममें ऐसा साधक जाता है,
वह परमधाम सर्वोपरि है, सबसे श्रेष्ठ है।

उससे परे
एक सच्चिदानन्दघन निराकार शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं है।

वह सदासे है, सब लोक नाश होनेपर भी वह बना रहता है।

उसका स्वरूप कैसा है?

इस बातको वही जानता है, जो वहाँ पहुँच जाता है।

वहाँ जानेपर सारी भूलें मिट जाती हैं।

उसके सम्बन्धकी सम्पूर्ण भिन्न–भिन्न कल्पनाएँ,
वहाँ पहुँचनेपर एक यथार्थ सत्यस्वरूपमें परिणत हो जाती हैं।

महात्मागण कहते हैं कि,
वहाँ पहुँचे हुए भक्तोंको
प्राय: वह सब शक्तियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जो भगवान्‌में हैं,
परन्तु वे भक्त,
भगवान्‌के सृष्टिकार्यके विरुद्ध उनका उपयोग कभी नहीं करते।

उस महामहिम प्रभुके दास, सखा या सेवक बनकर,
जो उस परमधाममें सदा समीप निवास करते हैं,
वे सर्वदा उसकी आज्ञामें ही चलते हैं।

गीताके अध्याय 8 श्लोक 24, इस परमधाममें जानेवाले साधकके लिये ही है।

बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद्‌में भी इस अर्चिमार्गका विस्तृत वर्णन है।

इस नित्यधामको ही, सम्भवत:
भगवान् श्रीकृष्णके उपासक गोलोक,
भगवान् श्रीरामके उपासक साकेतलोक कहते हैं।

वेदमें इसीको, सत्यलोक और ब्रह्मलोक कहा है।
(वह ब्रह्मलोक नहीं जिसमें ब्रह्माजी निवास करते हैं,
जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 के 16 वें श्लोकके पूर्वार्धमें है।)

भगवान् साकाररूपसे अपने इसी नित्यधाममें विराजते हैं।
साकाररूप मानकर, नित्य परमधाम न मानना बड़ी भूलकी बात है।


भक्तियोग – List