दिवाने मन| Kabir ke Bhajan


दिवाने मन

दिवाने मन भजन बिना
दुख पैहौ॥ टेक॥


पहिला जनम भूत का पै हौ
सात जनम पछिताहौ।
कॉंटा पर का पानी पैहौ
प्यासन ही मरि जैहौ॥


दूजा जनम सुवा का पैहौ
बाग बसेरा लैहौ।
टूटे पंख मॅंडराने
अधफड प्रान गॅंवैहौ॥


बाजीगर के बानर हो हौ
लकडिन नाच नचैहौ।
ऊँच नीच से हाय पसरि हौ
मॉंगे भीख न पैहौ॥


तेली के घर बैला होहौ
ऑंखिन ढॉंपि ढॅंपैहौ।
कोस पचास घरै मॉं चलिहौ
बाहर होन न पैहौ॥


पॅंचवा जनम ऊँट का पैहौ
बिन तोलन बोझ लदैहौ।
बैठे से तो उठन न पैहौ
खुरच खुरच मरि जैहौ॥


धोबी घर गदहा होहौ
कटी घास नहिं पैंहौ।
लदी लादि आपु चढि बैठे
लै घटे पहुँचैंहौ॥


पंछिन मॉं तो कौवा होहौ
करर करर गुहरैहौ।
उडि के जय बैठि मैले थल
गहिरे चोंच लगैहौ॥


सत्तनाम की हेर न करिहौ
मन ही मन पछितैहौ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो
नरक नसेनी पैहौ॥


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