Why Should We Believe in God


सत्य और असत्य

जो वस्तु संसारमें नहीं होती, उसके लिए किसीको लालायित नहीं देखा जाता। इसके विपरीत जो वस्तु जितनी सुन्दर और सत्य हो, उसका मिलना असम्भव होनेपर भी लोग उसे प्राप्त करनेकी इच्छा किया ही करते है।


जीवोंमें, विशेषकरके मनुष्यमें तो स्वाभाविक ही “सुन्दर” और “सत्य” के प्रति आकर्षण है। “सत्य” और “सुन्दर” को पाने के लिये जीव असाध्य-साधन करनेको भी तैयार है। जीवनकी बाजी लगा देना तो उसके लिये साधारण बात है।
वस्तुत: यह “सत्य” और “सुन्दर” यदि संसारमें न होता तो केवल अंध-कौतुहलवश कोई भी इसके प्रति आकर्षित नहीं होता।

सत्य की चाहत

यह भी देखा जाता है कि सत्य और मिथ्या इन दोंनोंमें लोग सत्य को ही चाहते हैं। स्वप्नमें प्राप्त धन और वास्तविक धनमें, लोग वास्तविक धनकी ही इच्छा करते है।
जब तक सत्य को ना जान लो (उसका का यथार्थ बोध न हो), तब तक सत्यके प्रति उपेक्षा दिखलाना संभव है, किन्तु एक बार सत्यको समझने के बाद उसके प्रति आकर्षित न होना असंभव है।
जब तक हम सांसारिक वस्तुओंको सत्य समझते हैं तब तक उनको अधिक से अधिक पानेकी आकांक्षा करते हैं, किन्तु जब वही वस्तुएं हमारी बुद्धिमें असत्य प्रमाणित हो जाती हैं, तब उनके प्रति किसी तरह का आकर्षण नहीं रहता।
हम अज्ञानवश असत्यके पीछे तभी तक भागते रहते हैं, जब तक उसको असत्य समझ नहीं लेते।
Believe in God
इसी प्रकार सत्य के प्रति भी तभी तक उदासीनवत व्यवहार करते हैं, जब तक सत्यका स्वरूप हमारे सामने प्रकट नहीं हो जाता।


सत्य सदा उपेक्षित नहीं रह सकता, इसी प्रकार असत्यके प्रति मोह भी सदा नहीं टिकता। इसीसे यह सम्भव है कि एक दिन सत्य अवश्य मिलेगा ही। सत्यके प्रति हमारा जो इतना खिंचाव है, यह हमारे अन्तर का एक अति गूढ़ रहस्य है।
जो सत्य है, वही तो सुन्दर है। सुन्दरके प्रति आकर्षण हमारा सहज स्वभाव है। यह सत्य हमारी अपनी वस्तु है, यह हमारे मनका मोहन, प्राणोंका आराम है।
जब तक इसको भूले रहते हैं, तभी तक असत्य (अवस्तु, सारहीन वस्तुएं) के साथ खेलना सम्भव है। सत्य के पा जानेपर असत्य अथवा अवस्तु के प्रति आदर नहीं रहता।

बालक का खिलोने के लिए मोह

जब बालक खिलौनोंको लेकर खेलमें रम जाता है, तब ऐसा मालूम होता है मानो वह अपनी माँको और घरको भूल गया है। किन्तु उसकी यह भूल सदा नहीं रहती। भूल मिटती है, खिलौनोंको फेंक देना पडता है।
उस समय उसको अपने घरका, अपनी माँ का स्मरण हो जाता है। तब वह व्याकुल होकर, रो-रोकर अपनी माँको खोजता है और अपने घरकी ओर दौड़ छूटता है, घर पहुँच माँसे मिलकर उसे इतना सन्तोष होता है कि खिलौने फेंककर चले आने का उसको किंचित भी पश्चाताप नहीं होता।
उसका अन्तःकरण और अनुभव यही साक्षी देता है कि उसे जो प्राप्त करना था उसको वह पा गया है। इस वास्तविक वस्तुकी प्राप्तिके आनंदमें वह सब कुछ भूल जाता है।


उसी प्रकार जिन लोगोने परम सत्ता (परमात्मा) के अस्तित्व को जाना है, वे लोग किस परमानन्द में मग्न रहते हैं, कैसे परितृप्त रहते है, यह बात उनको देखनेसे ही समझमें आ सकती है।
असत्य वस्तुके आकर्षणमें इतना मोह नहीं होता, यदि कभी हो भी जाता है तो वह दीर्धकाल तक ठहर नहीं सकता।

महापुरुष का परमतत्व को जानना

महापुरुषोंकी जीवनी हमें यह समझा देती है कि “भगवान् हैं“। जिस वस्तुको पाकर वे सब भूल गये हैं, वह इतनी सुन्दर है कि संसारकी अन्य कोई भी वस्तु उनके मनको वैसा नहीं खींच सकती।
Ramkrishna Vivekanand
यह सत्य वस्तु किसीकी निराधार कल्पना मात्र नहीं है। यह भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालमें सत्य है।
जिन लोगो ने परम तत्व को जान लिया है, वे इसलिए तृप्त हैं की इस समय उन्हें सत्यके दर्शन हो गये है। वे उस असली सुन्दर पर मुग्ध होकर उसकी ओर खिंच गये हैं। इसीसे अब उन्हें जगत्‌के विविध वैभव और मान-प्रतिष्ठा आदि आकर्षित नहीं कर सकते। उन्हें प्रकाशके दर्शन हो गये हैं, अतएव वे अन्धकारमें भटकना नहीं चाहते।

अन्धकार ही अज्ञान है

अन्धेरेमें हम कछ भी देख नहीं सकते, किसी वस्तुका भी स्वरुप समझ नहीं सकते, परन्तु ऐसा होनेसे हमारे मनको संतोष या तृप्ति प्राप्त नहीं होती। यह मनका एक स्वाभाविक धर्म है। मनकी इस स्वाभाविक प्रवृत्तिके कारण ही हम अन्धकारको पसंद नहीं करते, अथवा अंधकारसे तृप्त नहीं होते।
यह अन्धकार ही अज्ञान है। जबतक अज्ञान हमपर छाया रहता है तबतक हमें बाध्य होकर उसमें निवास करना पड़ता है, किन्तु सत्यका प्रकाश पाते ही हम तुरन्त उसीकी ओर दौड़ जाते हैं, फिर वह अन्धकार हमें नहीं सुहाता।

अनेकों पुरुषोंके जीवनमें यह ज्ञानालोक प्रकाशित हो चुका है, वे इस ज्ञानालोकके प्रभावसे अज्ञान रूपी अन्धकारके अंगुलसे छूट चुके है।
सत्यका आलोक प्रकाशित हुए बिना हमारे मनका यह अज्ञान मिट नहीं सकता; अन्तःकरणकी अप्रसन्नता और चित्तका भय दूर नहीं होता।
ज्ञानी हो या अज्ञानी,सभी निर्भय, निश्चिन्त और आनंदित होना चाहते हैं, इसीलिए सत्य और ज्ञानके प्रकाशको आवश्यक समझते है और इसीलिए, जो सत्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं उसको पानेकी इच्छा करते हैं।
यही जीवमात्रके अन्तर-से-अन्तरकी बात है। यह “सत्यं ज्ञानमअनन्तं ब्रह्मारूपमअमृतं” परम सत्य है। इसीलिये यह हमें इतना आकर्षित करता है, मिथ्या होता तो निश्चय ही हम इतने आकर्षणका अनुभव नहीं कर सकते। जैसे अन्धकारके बाद प्रकाश देखकर हम तृप्त होते हैं, वैसे ही अज्ञानका पर्दा हटनेपर जो ज्ञानालोक प्रकाशित होता है, उस ज्ञाानके प्रकाशमें हम उन्हीका साक्षात् करते हैं जो परमतत्व हैं।
वही परम कल्याण स्वरुप हैं, वही हमारे आत्मा हैं, वही हमारे सबके राजा, प्रभु, भगवान और ईश्वर है।