Importance of Good Thoughts in Life


शरीरको निरोगी रखने के लिए व पवित्र जीवनके लिये स्वच्छताकी बड़ी आवश्यकता है।
स्वच्छता दो प्रकारकी होती है एक तो बाह्य दूसरी आंतरिक। दोनों प्रकारकी स्वच्छताओंका मनुष्य के जीवनपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिये मनसे और शरीरसे स्वच्छ रहना मनुष्यका कर्तव्य है।
मनमें बुरे विचारोंको न आने देकर पवित्र विचार करना मानसिक अथवा आंतरिक स्वच्छता है।


दुनियामें जहाँ तहाँ प्राय: ऐसे साधन बहुत मिलते हैं जिनसे मन अपवित्र हो। ऐसे साधनोंके द्वारा मनको विकृत नहीं करना चाहिये। क्योंकि एक बार कोई भी विचार यदि मनमें जम जाय तो फिर उसका निकालना कठिन हो जाता है।

मन और विचारों का सम्बन्ध

मन संबंधी यह नियम है कि किसी विषयपर यदि वह एक बार किंचित्‌ भी विचार करले तो फिर उस पर वारंवार वह विचार करता है, और अंतमें उस विचारको पकड़कर तदनुसार कार्य करनेके लिये मनुष्यको बाध्य करता है।


मन संबंधी इस नियमको न जाननेके कारण बहुतसे लोग भूलकर बैठते हैं और हरेक कार्यके पीछे मनको दौड़ा देते हैं। परिणाम यह होता है कि वह उन कार्योंको अपनेमें स्थान दे देते है। बस फिर उसके अनुसार कार्य करनेके लिये मनुष्यको बाध्य होना पड़ता है।
अतएव प्रत्येक कार्यपर विचार करतेही पहिले उसकी भलाई बुराईका विचार करो। यदि वह कार्य भला हो तो उसके लिये अपने मनका स्थान खुला रखो। उसे यथेच्छ आने दो और मनको खूब उसपर विचार करनें दो। भली बातका मनमें जम जाना ही अच्छा है। पर यदि आपको मालूम हो जाय कि अमुक विचार बुरा है तो फिर उसे उठते ही रोक दो।
संभव है कि रोकनेपर वह बार बार आएगा, तुम्हें पराजित होना पड़ेगा। और एक योद्धासे लड़नेके समान उन विचारकों मनसे हटानेके लिये उससे लड़ना पड़ेगा।
तुम मनको दूसरी जगह लगाने, दूसरे विचारोंके सोचने, अन्य ध्यान करने, पुस्तक पढ़ने में प्रवृत्त करोगे और चाहोगे कि इन तरीकों वह विचार पराजित हो जाय, पर तब भी वह नहीं मानेगा। बार बार मनको टक्कर दे उसे अशांत करेगा।
परंतु तुम अपने कार्योसे न हटो, मनको उस विचारसे (बुरे विचारसे) पवित्र रखनेके लिये प्रयत्न करते रहो, मनको दूसरी ओर लगाओ। इस तरह निरंतरके प्रयत्नोंसे अंतमें जाकर विजय होगी और फिर वह विचार सदाके लिये मनसे छूट जायेगा, प्रत्युत उसके विरोधी भले विचार स्थान पा जायेंगे।
पर यदि प्रयत्न छोड़ बैठे, बुरे विचारोंको दूर ना करके उसे मनमें स्थान दे दिया तो एक दिन वही बुरा विचार आदतके रूपमें परिणत होकर चरित्रको नष्ट भ्रष्ट कर देगा।


इसलिये मनके विचारों पर अपना अंकुश रखना चाहिये और उसे भलाईकी ओर प्रवृत्त करना चाहिये। भले विचारोंसे, भले संस्कारोंसे और भले निश्चयोंसे उसे पवित्र बनाना चाहिये। ताकि हमारा आचरण भी शुद्ध हो और शरीर भी निरोगी रहे।


जितना लाभ औषधि आदिसे होता है उससे कई गुणा अधिक लाभ मानसिक पवित्रतासे होता है। जो रोग बड़ी बड़ी औषधियोंसे नहीं जाते धूलकी अथवा राखकी चुटकीसे चले जाते है क्योंकि उन धुल व राखकी चुटुकियोंमें मानसिक विश्वासकी औषधि मिली हुई होती है।
इसलिए शरीरको निरोगी रखनेके लिये मानसिक पवित्रताकी बड़ी आवश्यकता है।
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